आत्मचिंतन के क्षण

आत्मचिंतन के क्षण
आत्म निरीक्षण और विचार पद्धति का कार्य उसी प्रकार चलाना चाहिए जिस प्रकार साहूकार अपनी आय और व्यय का ठीक-ठीक खाता रखते हैं। हमारी दुर्बलताओं और कुचेष्टाओं का खर्च-खाता भी हो और विवेक सत्याचरण तथा आत्म परिष्कार का जमा-खाता भी होना चाहिये। बचत का ठीक-ठीक अनुमान तभी लग सकता है। यदि अपनी जमा अधिक है तो आप सुसंस्कार बढ़ा रहे है। खर्च की अधिकता आप के संस्कारों का दीवालियापन प्रकट करती है। संस्कारों रुची धन एकत्रित करने के लिये सदाचरण की पूँजी बढ़ाना नितान्त आवश्यक है।
जिसमें पूरी शक्ति से काम करने की दृढ़ लगन है उसके मार्ग में चाहे कितना प्रबल विरोध का प्रवाह आये, वह उसकी गति को अवरुद्ध नहीं कर सकता, पीछे नहीं हटा सकता। आप आगे बढ़ने का प्रयत्न जितनी दृढ़ता के साथ करेंगे। सफलता उतनी ही आपके समीप आत...

आत्मचिंतन के क्षण
आत्म-निर्माण के कार्य में सत्संग निःसन्देह सहायक होता है किन्तु आज की परिस्थितियों में इस क्षेत्र में जो विडंबना फैली है, उससे लाभ के स्थान पर हानि अधिक है। सड़े-गले, औंधे-सीधे, रूढ़िवादी, भाग्यवादी, पलायनवादी विचार इन सत्संगों में मिलते हैं। फालतू लोग अपना समुदाय बढ़ाने के लिए सस्ते नुस्खे बताते रहते हैं या किसी देवी देवता के कौतूहल भरे चरित्र सुनाकर उनके सुनने मात्र से स्वर्ग, मुक्ति आदि मिलने की आशा बँधाते रहते हैं। ऐसा विडम्बनापूर्ण सत्संग किसी का क्या हित साधेगा?
आज सत्संग की आवश्यकता स्वाध्याय से ही पूरी करनी पड़ती है। जहाँ जीवन को प्रेरणाप्रद मार्गदर्शन कर सकने की दृष्टि से उपयुक्त सत्संग मिल सके, वहाँ जाने और लाभ उठाने का प्रयत्न अवश्य करना चाहिए। पर जहाँ व्यर्थ की विडम्बनाओं में सम...

आत्मचिंतन के क्षण
मनुष्य अपनी वरिष्ठता का कारण अपने वैभव- पुरुषार्थ, बुद्धिबल- धनबल को मानता है, जबकि यह मान्यता नितान्त मिथ्या है। व्यक्तित्व का निर्धारण तो अपना ही स्व- अन्त:करण करता है। निर्णय, निर्धारण यहाँ से होते हैं। मन और शरीर स्वामिभक्त सेवक की तरह अन्त:करण की आकांशा पूरी करने के लिए तत्परता और स्फूर्ति से लगे रस्ते हैं। उन्नति- अवनति का भाग्य- विधान यही लिखा जाता है।
श्रद्धा अर्थात् सद्भाव, प्रज्ञा अर्थात् सद्ज्ञान एवं निष्ठा अर्थात् सत्कर्म। तीनों का समन्वित स्वरूप ही व्यक्तित्व का निर्माण करता है। श्रद्धा अन्तःकरण से प्रस्फुटित होने वाले आदर्शो के प्रति प्रेम है। इस गंगोत्री से निःसृत होने वाली पवित्र धारा ही सद्ज्ञान और सत्कर्म से मिलकर पतितपावनी गंगा का स्वरुप ले लेती है। इन तीनों का विकास- उत्...

आत्मचिंतन के क्षण
ईश्वर उपासना मानव जीवन की अत्यन्त महत्वपूर्ण आवश्यकता है। आत्मिक स्तर को सुविकसित, सुरक्षित एवं व्यवस्थित रखने के लिए हमारी मनोभूमि में ईश्वर के लिए समुचित स्थान रहना चाहिए और यह तभी संभव है जब उसका अधिक चिन्तन, मनन, अधिक सामीप्य, सान्निध्य प्राप्त करते रहा जाय। भोजन के बिना शरीर का काम नहीं चल सकता, साँस लिए बिना रक्ताभिषरण की प्रक्रिया बिगड़ जाती है। इसी प्रकार ईश्वर की उपेक्षा करने के उपरान्त आन्तरिक स्तर भी नीरस, चिन्ताग्रस्त, अनिश्चित, अनैतिक, अव्यवस्थित एवं आशंकित बना रहता है।
भौतिक सुख- साधन, बाहुबल और बुद्धिबल के आधार पर कमाये जा सकते हैं पर गुण-कर्म-स्वभाव की उत्कृष्टता पर निर्धारित समस्त विभूतियाँ हमारे आन्तरिक स्तर पर ही निर्भर रहती हैं। इस स्तर के सुदृढ़ और समुन्नत बनाने में उपा...

आत्मचिंतन के क्षण
जो अपनी पैतृक सम्पत्ति को जान लेता है, अपने वंश के गुण, ऐश्वर्य, शक्ति,सामर्थ्य आदि से पूर्ण परिचित हो जाता है, वह उसी उच्च परम्परा के अनुसार कार्य करता है, वैसा ही शुभ व्यवहार करता है, उसी उत्कृष्ट भूमि में निवास करता है। जब तक किसी को अपने शील गुण और वंश का ज्ञान नहीं होता, तभी तक वह दीन स्थिति में रहता है।
ईश्वर हमको पिता होने के कारण कभी नहीं भूलता, हम ही उनको मूढ़तावश भूल बैठते हैं, यही दुःख का कारण है। वह पानी जैसी चीजों में रस की तरह है, सूर्य और चन्द्र में प्रकाश है, वेदों में ॐ है, आकाश में विस्तार है, मनुष्य में उनकी हिम्मत है, जमीन में खुशबू की तरह है, आग में उसकी दमक है और तपस्वियों में उनका तप है।
गीता के शब्दों में, “जो मुझे (ईश्वर को) सब जगह और सब चीजों को मेरे अन्दर देखता...

आत्मचिंतन के क्षण
जीवन का लक्ष्य खाओ पीओ मौज करो के अतिरिक्त कुछ और ही रहा होगा यदि हमने अपना अवतरण ईश्वर के सहायक सहयोगी के रूप में उसकी सृष्टि को सुन्दर समुन्नत बनाने के लिए हुआ अनुभव किया होता पर किया क्या जाय बुद्धिमान समझे जाने वाले मनुष्य पर अदूरदर्शिता और मूर्खता भी उतनी ही सघन बनकर छाई हुई है।
असत्य का मार्ग पकड़ कर लोग थोड़े दिनों तक लाभ अर्जित कर सकते हैं, अपनी आमदनी और इज्जत बढ़ा सकते हैं, अपनी शान-शौकत जताकर लोगों को थोड़े दिन तक उल्लू बना सकते हैं, किन्तु रामलीला के नकली रावण को जैसे ही दियासलाई लगती है, विशालकाय रावण थोड़ी ही देर में जलकर भस्म हो जाता है। वैसे ही असत्य का अनावरण एक न एक दिन होता ही है। स्थिरता केवल सचाई में है। उसको समझने में देर भले ही लग सकती है। अन्ततः विजय सत्य की होती है।...

आत्मचिंतन के क्षण
एकाँगी उपासना का क्षेत्र विकसित कर अपना अहंकार बढ़ाने वाले व्यक्ति , ईश्वर के सच्चे भक्त नहीं कहे जा सकते। परमात्मा सर्व न्यायकारी है। वह, ऐसे भक्त को जो अपना सुख, अपना ही स्वार्थ सिद्ध करना चाहता हो, कभी प्यार नहीं कर सकता। संसार के और भी जितने प्राणी हैं वह सब भी उसी परमात्मा के प्यारे बच्चे हैं। किसी के पास शक्ति कम है, किसी के पास गुण कम हैं, तो इससे क्या? अपने सभी बच्चे पिता को समान रूप से प्यारे होते हैं। जो उसके सभी बच्चों को प्यार कर सकता हो परमात्मा का वास्तविक प्यार उसे ही मिल सकता है। केवल अपनी ही बात, अपने ही साधन सिद्ध करने वाले व्यक्ति लाख प्रयत्न करके भी उसे प्राप्त नहीं कर सकते।
निर्ममता और अहंकार से मुक्ति मिल गई इसका प्रमाण एकात्मवादी होकर नहीं दिया जा सकता। मनुष्य सबके ...

आत्मचिंतन के क्षण
किसी एक समुदाय के विचार किसी दूसरे समुदाय के विरुद्ध हो सकते हैं। किसी एक वर्ग का आहार -विहार दूसरे वर्ग के विपरीत पड़ सकता है। एक की भावनायें, मान्यतायें आदि दूसरे से टकरा सकती हैं। इसी विविधता, विभिन्नता और बहुलता के कारण कदम-कदम पर संर्घर्ष पैदा होने लगा है। एक विचार धारा के लोग दूसरे की विचारधारा की आलोचना करते हैं निन्दा करते हैं। हर मनुष्य अपने ही विचारों, विश्वासों एवं मान्यताओं के प्रति भावुक होता है। वह उनके विरोध में कुछ सुनना पसन्द नहीं करता। किन्तु उसे सुनना ही पड़ता है।
तृष्णा भयानक अजगर के समान है। जब यह किसी मनुष्य में अनियन्त्रित हो जाती है तो सम्पूर्ण संसार को निगल जाने की इच्छा किया करती है। अपनी इस अनुचित इच्छा से प्रेरित होकर जब वह अग्रसर होता है तब भयानक संघर्ष, विरोध ए...

आत्मचिंतन के क्षण
मनुष्य कितना दीन-हीन, स्वल्प शक्ति वाला, कमजोर प्राणी है, यह प्रतिदिन के उसके जीवन से पता चलता है। उसे पग-पग पर परिस्थितियों का आश्रित होना पड़ता है। कितने ही समय तो ऐसे आते हैं, जब औरों से सहयोग न मिले तो उसकी मृत्यु तक हो सकती है। इस तरह विचार करने से तो मनुष्य की लघुता का ही आभास होता है। किन्तु मनुष्य के पास एक ऐसी भी शक्ति है जिसके सहारे वह लोक-परलोक की अनन्त सिद्धियों सामर्थ्यों का स्वामी बनता है। यह है प्रार्थना की शक्ति -परमात्मा के प्रति अविचल श्रद्धा और अटूट विश्वास की शक्ति । मनुष्य प्रार्थना से अपने को बदलता है, शक्ति प्राप्त करता है और अपने भाग्य में परिवर्तन कर लेता है। विश्वासपूर्वक की गई प्रार्थना पर परमात्मा दौड़े चले आते हैं। सचमुच उनकी प्रार्थना में बड़ा बल है, अलौकिक शक्त...

आत्मचिंतन के क्षण
जीवन में उदासी, खिन्नता एवं अप्रसन्नता के वास्तविक कारण बहुत कम ही होते हैं, अधिकाँश का कारण घबराहट से उत्पन्न भय ही होता है। मनुष्य नहीं जानता कि वह इससे अपनी शारीरिक तथा मानसिक शक्तियों का कितना बड़ा भाग व्यर्थ गँवाता रहता है? जिन्होंने जीवन में बड़ी सफलताएं पाई हैं, उन सबके जीवन बड़े सुचारु, क्रमबद्ध और सुव्यवस्थित रहे हैं। जिनके जीवन में विश्रृंखलता होती है, उनके पास सदैव “समय कम होने” की शिकायत बनी रहती है फिर भी अन्त तक कुल मिलाकर एक-दो काम ही कर पाते हैं, पर जिन लोगों ने विधि-व्यवस्था से, धैर्य से चिन्ता-विमुक्त कार्य सँवारे उन्होंने असंख्य कार्य किये।
काम करते समय आपको जब भी निराशा, बोझ या घबराहट लगा करे, उस समय अपने आत्म-विश्वास को जगाने का प्रयत्न किया कीजिये। आध्यात्मिक चिन्तन ...