गायत्री और यज्ञ

नवरात्रि अनुशासन
उपवास का तत्वज्ञान आहार शुद्धि से सम्बन्धित है, “जैसा खाये अन्न वैसा बने मन” वाली बात आध्यात्मिक प्रगति के लिए विशेष रुप से आवश्यक समझी गई हैं। इसके लिए न केवल फल, शाक, दूध जैसे सुपाच्य पदार्थो को प्रमुखता देनी होगी, वरन् मात्र चटोरेपन की पूर्ति करने वाली मसाले तथा खटाई, मिठाई, चिकनाइ्र की भरमार से भी परहेज करना होगा। यही कारण है कि उपवासों से भी परहेज करना होगा। यही कारण हैं कि उपवासों की एक धारा, ‘अस्वाद व्रत’ भी हैं।
साधक सात्विक आहार करें और चटोरेपन के कारण अधिक खा जाने वाली आदत से बचें, यह शरीरगत उपवास हुआ। मनोगत यह है कि आहार को प्रसाद एवं औषधि की तरह श्रद्धा भावना से ग्रहण किय जाए और उसकी अधिक मात्रा से अधिक बल मिलने वालों की प्रचलित मान्यता से पीछो छुड़ाया जाए। वस्तुतः आम आदमी जितन...
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अजस्र अनुदानों को बरसाने वाली यह नवरात्रि-साधना
अनुष्ठान के अंतर्गत साधक संकल्पपूर्वक नियत संयम-प्रतिबन्धों एवं तपश्चर्याओं के साथ विशिष्ट उपासना पद्धति को अपनाता है और नवरात्रि के इन महत्वपूर्ण क्षणों में अपनी चेतना को परिष्कृत-परिशोधित करते हुए उत्कर्ष की दिशा में आगे बढ़ता है। चौबीस हजार के लघु गायत्री अनुष्ठान के अंतर्गत उपासना के क्रम में प्रतिदिन 27 माला गायत्री महामंत्र के जप का विधान है। जो अपनी गति के अनुसार तीन से चार घण्टे में पूरा हो जाता है। यदि कोई नवागन्तुक पूरा गायत्री मंत्र बोलने में असक्षम हो तो वह पंचाक्षरी गायत्री-’ॐ भूर्भुवः स्वः’ के साथ भी इस जप संख्या को पूरी कर सकता है। इसमें प्रतिदिन एक घण्टा समय लगता है। पूर्ण श्रद्धा के साथ सम्पन्न यह साधना आत्मोत्कर्ष की दृष्टि से चमत्कारिक रूप से फलित होती है, क्योंकि गायत्री ...
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नवरात्रि अनुष्ठान का विधि- विधान
नवरात्रि साधना को दो भागें में बाँटा जा सकता है : एक उन दिनों की जाने वाली जप संख्या एवं विधान प्रक्रिया। दूसरे आहार- विहार सम्बन्धी प्रतिबन्धों की तपश्चर्या। दोनों को मिलाकर ही अनुष्ठान पुरश्चरणों की विशेष साधना सम्पन्न होती है।
जप संख्या के बारे में विधान यह है कि ९ दिनों में २४ हजार गायत्री मन्त्रों का जप पूरा होना चाहिए। कारण २४ हजार जप का लघु गायत्री अनुष्ठान होता है। प्रतिदिन २७ माला जप करने से ९ दिन में २४० मालायें अथवा २४०० मंत्र जप पूरा हो जाता है। माला में यों १०८ दाने होते हैं पर ८ अशुद्ध उच्चारण अथवा भूल- चूक का हिसाब छोड़ कर गणना १०० की ही की जाती है। इसलिये प्रतिदिन २७ माला का क्रम रखा जाता है। मोटा अनुपात घण्टे में ११- ११ माला का रहता है। इस प्रकार प्रायः २(१/२) घण्टे इस जप...

गायत्री उपासना सम्बन्धी शंकाएँ एवं उनका समाधान (भाग 1)
गायत्री मन्त्र के सम्बन्ध में एक शंका अक्सर उठाई जाती है कि उसके कई रूप हैं। कई लोग भिन्न-भिन्न ढंग से उसका उच्चारण करते या लिखते हैं। वस्तुतः शुद्ध रूप क्या है? इस सम्बन्ध में सारे ग्रन्थों का अध्ययन करने पर निष्कर्ष यही निकलता है कि गायत्री में आठ-आठ अक्षर के तीन चरण एवं चौबीस अक्षर हैं। भूः, भुवः, स्वः के तीन बीज मन्त्र- ओजस् तेजस् और वर्चस् को उभारने के लिए अतिरिक्त रूप से जुड़े हुए हैं। प्रत्येक वेद मन्त्र के आरम्भ में एक ॐ लगाया जाता है। जैसे किसी व्यक्ति के नाम से पूर्व सम्मान सूचक ‘श्री’ मिस्टर, पण्डित, महामना आदि सम्बोधन जोड़े जाते हैं, उसी प्रकार ॐकार- तीन व्याहृति और तीन पाद समेत पूरा और सही गायत्री मन्त्र इस प्रकार लिखा जा सकता है- “ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य ...

गायत्री उपासना सम्बन्धी शंकाएँ एवं उनका समाधान (भाग 3)
तन्त्र विधान की कुछ विधियाँ गुप्त रखी गयी हैं। ताकि अनधिकारी लोग उसका दुरुपयोग करके हानिकार परिस्थितियाँ उत्पन्न न करने पाएँ। मारण, मोहन, उच्चाटन, वशीकरण, स्तम्भन जैसे आक्रामक अभिचारों के विधि-विधान तथा तन्त्र को इसी दृष्टि से कीलित या गोपनीय रखा गया है। एक तरह से इन्हें सौम्य साधना का स्वरूप न मानकर इन पर ‘बैन’ लगा दिया गया है ताकि लोग भ्रान्तिवश इनमें भटकने न लगें। वैदिक प्रक्रियाओं में ऐसा कोई प्रतिबंध नहीं। गायत्री वेदमन्त्र है। उसका नामकरण ही “गाने वाले का त्राण करने वाली” के रूप में हुआ है। फिर उसे मुँह से न बोलने, गुप्त रखने, चुप रहने, कान में कहने जैसा कथन सर्वथा उपहासास्पद है। ऐसा वे लोग कहते हैं जो तन्त्र और वेद में अंतर नहीं समझते। गायत्री मन्त्र का उच्चारण व्यापक विस्तृत होने से ...

गायत्री उपासना सम्बन्धी शंकाएँ एवं उनका समाधान (भाग 4)
साकार उपासना में गायत्री को माता के रूप में प्रतिष्ठित किया जाता है। माता होते हुए भी उसका स्वरूप नवयौवना के रूप में दो कारणों से रखा गया है। एक तो इसलिए कि देवत्व को कभी वार्धक्य नहीं सताता। सतत् उसका यौवन रूपी उभार ही झलकता रहता है। सभी देवताओं की प्रतिमाओं में उन्हें युवा सुदर्शन रूप में ही दर्शाया जाता है। यही बात देवियों का चित्रण करते समय भी ध्यान में रखी जाती है और उन्हें किशोर निरूपित किया जाता है। दूसरा कारण यह है कि युवती के प्रति भी विकार भाव उत्पन्न न होने देने- मातृत्व की परिकल्पना परिपक्व करते चलने के लिये उठती आयु को इस अभ्यास के लिये सर्वोपयुक्त माना गया है। कमलासन पर विराजमान होने का अर्थ है- कोमल, सुगन्धित, उत्फुल्ल कमल पुष्प जैसे विशाल में उसका निवास होने की संगति बिठाना। ...

गायत्री उपासना सम्बन्धी शंकाएँ एवं उनका समाधान (भाग 5)
बहुपत्नी प्रथा चलते हुए यह आवश्यक हो गया कि इसकी प्रतिक्रिया से नारी को भी तनकर खड़े न होने देने के लिए धार्मिक मोर्चे पर मनोवैज्ञानिक दीवार खड़ी की जाय और उन्हें अपनी विवशता को भगवद् प्रदत्त या धर्मानुकूल मानने के लिए बाधित किया जाय। सती प्रथा- पर्दा प्रथा- जैसे प्रचलन नारी को अपनी विवशता- नियति प्रदत्त मानने के लिये स्वीकार करने हेतु कुचक्र भर थे। इसी सिलसिले में धार्मिक अधिकारों से उन शोषित वर्गों को वंचित करने की बात कही जाने लगी। शस्त्रों में भी जहाँ-तहाँ ये अनैतिक प्रतिपादन ठूँस दिये गए और भारतीय संस्कृति की मूलाधार को उलट देने वाले प्रतिपादन चल पड़े। धार्मिक कृत्यों से वंचित रखने की बात भी उसी सामन्ती अन्धकार युग का प्रचलन- आधुनिक संस्करण भर है। वस्तुतः नर-नारी के बीच शास्त्र परम्परा ...

गायत्री उपासना सम्बन्धी शंकाएँ एवं उनका समाधान (भाग 6)
किसी भी कार्य को उपयुक्त विधि-विधान के साथ किया जाय, तो यह उत्तम ही है। इसमें शोभा भी है, सफलता की सम्भावनाएँ भी हैं। चूक से यदि अपेक्षित लाभ नहीं मिलता तो किसी प्रकार के विपरीत प्रतिफल की या उल्टा- अशुभ होने की कोई आशंका नहीं है। पूजा-उपासना कृत्यों पर, विशेषकर गायत्री उपासना पर भी यह बात लागू होती है। भगवान सदैव सत्कर्मों का सत्परिणाम देने वाली सन्तुलित विधि-व्यवस्था को ही कहा जाता रहा है। दुष्परिणाम तो दुष्कृतों के निकलते हैं। यदि उपासना में भी चिन्तन और कृत्य को भ्रष्ट और बाह्योपचार को प्रधानता दी जाती रही तो प्रतिफल उस चिन्तन की दुष्टता के ही मिलेंगे। उन्हें बाह्योपचारों से नहीं जोड़ा जाना चाहिए। इन्हीं उपचारों में मुँह से जप लेना, जल्दी-जल्दी या उँघते-उँघते माला घुमा लेना, किसी तरह संख...

गायत्री उपासना सम्बन्धी शंकाएँ एवं उनका समाधान (भाग 8)
गायत्री के बारे में एक चर्चा जो की जानी है- वह यह कि इसकी कृपा से- अर्चा- आराधना से स्वर्ग और मुक्ति मिलती है। शंकालु इस विषय पर काफी ऊहापोह करते देखे गए हैं। वस्तुतः स्वर्ग कोई स्थान विशेष नहीं है। न ही कोई ऐसा ग्रह-नक्षत्र है जहाँ स्वर्ग के नाम पर अलंकारिक रूप में वर्णित अनेकानेक प्रसंग बताए जाते रहे हैं। वस्तुतः इस सम्बन्ध में ऋषि चिन्तन सर्वथा भिन्न है। परिष्कृत दृष्टिकोण को ही स्वर्ग कहते हैं। चिन्तन में उदात्तता का समावेश होने पर सर्वत्र स्नेह, सौंदर्य, सहयोग और सद्भाव ही दृष्टिगोचर होता है। सुखद- दूसरों को ऊँचा उठाने- श्रेष्ठ देखने की ही कल्पनाएँ मन में उठती हैं। उज्ज्वल भविष्य का चिन्तन चलता तथा उपक्रम बनता है। इस उदात्त दृष्टिकोण का नाम स्वर्ग है। स्नेह, सहयोग और सन्तोष का उदय होते ...

गायत्री उपासना सम्बन्धी शंकाएँ एवं उनका समाधान (अन्तिम भाग)
साधना से सम्पन्नता की सिद्धि या सफलता प्राप्त के शाश्वत सिद्धांत पर ये सभी बातें लागू होती हैं। छुटपुट कर्मकाण्डों की लकीर पीट लेने से अभीष्ट सफलता कहाँ मिलती है? उसके लिये श्रम साधना, मनोयोग, साधनों का दुरुपयोग आदि सभी आवश्यक हैं।
गायत्री के आकर्षक महात्म्य जो बताये जाते रहे हैं, वे किसी को मिलते हैं- किसी को नहीं। इसका एक ही कारण है- उपासना व साधना के मध्य अविच्छिन्न संबंध। दोनों परस्पर पूरक हैं। उपासना से तात्पर्य है- उत्कृष्टता की देवसत्ता के साथ तादात्म्य स्थापित करना, साधना का अर्थ है- अपने गुण, कर्म, स्वभाव में उत्कृष्टता का अनुपात अधिकाधिक मात्रा में बढ़ाना। यदि गायत्री तत्वज्ञान को सही रूप में समझा गया होगा तो साधक को निर्धारित उपासना कृत्य श्रद्धापूर्वक स्वीकार करना पड़ेगा, साथ ही...