अपना विचार क्षेत्र बढ़ाना है
हमें अपना विचार क्षेत्र बढ़ाना है। अब तक केवल अखण्ड-ज्योति और युग-निर्माण पत्रिका से ही अपना संपर्क क्षेत्र विनिर्मित करते रहें। जो इन्हें पढ़ते हैं उन्हीं तक अपने विचार पहुँचते हैं। इस छोटे वर्ग से ही समस्त विश्व को परिवर्तित करने का स्वप्न साकार नहीं हो सकता। हमें प्रचार के लिए बड़े कदम उठाने होंगे। प्रस्तुत विज्ञप्ति योजना और झोला पुस्तकालय प्रक्रिया इसी प्रयोजन की पूर्ति के लिए है। हर परिजन से इनमें आवश्यक रस लेने और उत्साहपूर्वक प्रयत्न करने को अनुरोध किया गया है। समय के साथ अपनी गाड़ी कमाई का एक छोटा अंश लोक-मंगल के इस छोटे दीखने वाले, किन्तु अत्यधिक महत्त्वपूर्ण कार्य के लिए खर्च करने को कहा गया है। व्यक्ति को अपने लिए ही नहीं कमाते रहना चाहिये। उसकी कमाई में समाज का भी अधिकार है। इस अधिकार को संतुलित बनाने के लिए दान को एक अनिवार्य धर्म कर्तव्य माना गया है। जो दान नहीं करता-अपनी कमाई आप ही खाता रहता है, उसे मनीषियों और शास्त्रों ने चोर माना है। हमारा कोई परिजन चोर न कहलायेगा, उसे दानी ही बनना चाहिये और दान की सार्थकता तभी है, जब उसके पीछे उपयोगिता और विवेक का पुट हो।
सद्ज्ञान प्रसार करने जनमानस को बदलने से बढ़कर दान की और कहीं सार्थकता हो नहीं सकती। यह ब्रह्म दान सबसे बड़ा परमार्थ है। इसलिये परिजनों को दस पैसा रोज एवं थोड़े दिन के लिए, महीने में एक दिन की आमदनी खर्च करते रहने के लिए कहा गया है। यदि यह बात समझ में आ सके और थोड़ा समय एवं थोड़ा पैसा सभी लोग नियमित रूप से खर्च करने लगें तो अपने ज्ञान-यज्ञ की लपटें आकाश को छूने लगेंगी और पाताल तक को प्रभावित करने लगेंगी। इसलिए गत पूरे अंक में और इस अंक की इन पंक्तियों में बहुत जोर देकर यह कहा जा रहा है कि यह पंक्तियाँ पढ़ कर ही पत्रिका उठाकर एक कोने में रख दी जाय वरन् कुछ करने के लिए आवश्यक साहस और उत्साह पैदा किया जाय। विश्वास यही किया जाना चाहिये कि अपने अति आवश्यक अनुरोध परिजनों द्वारा उपेक्षित नहीं किये गये हैं और इस बार ज्ञान यज्ञ की हमारी संकल्पित प्रक्रिया को अधूरी न रहने दिया जाएगा उसके लिए भी स्वजनों में आवश्यक उत्साह पैदा होगा और नवनिर्माण की विचार धारा विश्वव्यापी होकर रहेगी।
यह विचार-धारा और जनमानस की प्रबुद्धता को दिशा में घसीट ले जाने की प्रक्रिया अखण्ड-ज्योति परिवार, गायत्री परिवार अथवा युग-निर्माण योजना के कुछ लाख सदस्यों तक सीमित नहीं रहने दी जा सजती। इसे देशव्यापी-विश्व-व्यापी बनना है। इसके लिए एक भाषा की सीमा बद्धता भी पर्याप्त नहीं है। अब तक अपने पास केवल हिन्दी माध्यम रहा है। अब भारत की 14 प्रमुख भाषाओं में अपना कार्यक्षेत्र बढ़ाना पड़ेगा। इतना ही नहीं संसार की दस प्रमुख भाषाओं का भी सहारा लेना पड़ेगा ताकि अपना सन्देश भारतवर्ष तक ही सीमित न रहकर विश्व-व्यापी बन सके। विज्ञप्तियाँ, ट्रैक्ट तथा सभी प्रचार साहित्य अब हमें इस सब भाषाओं में प्रकाशित प्रचारित करना है। इसके लिए पूँजी की जरूरत पड़ेगी यज्ञ आयोजनों के संयोजन लोग अपनी बचत गतवर्ष में इस कार्य के लिए देने लगे हैं। यह अच्छी परम्परा है। दूसरे लोग जिनमें सामर्थ्य और उदारता हो इस अहम् प्रयोजन के लिए कुछ अनुदान देने का साहस कर सकते हैं। ज्ञान-यज्ञ से बढ़कर दानशीलता को चरितार्थ करने का और कोई माध्यम शायद ही इस संसार में दूसरा होता है।
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति, सितंबर १९६९, पृष्ठ 66
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