गुरुदेव की वाणी अपनों से अपनी बात
हम अपने परिजनों से लड़ते-झगड़ते भी रहते हैं और अधिक काम करने के लिए उन्हें भला-बुरा भी कहते रहते हैं, पर वह सब इस विश्वास के कारण ही करते हैं कि उनमें पूर्वजन्मों के महत्त्वपूर्ण आध्यात्मिक संस्कार विद्यमान् हैं, आज वे प्रसुप्त पड़े हैं पर उन्हें झकझोरा जाय तो जगाया जा सकना असम्भव नहीं है। कड़ुवे-मीठे शब्दों से हम अक्सर अपने परिवार को इसलिये को झकझोरते रहते हैं कि वे अपनी अंतःस्थिति और गरिमा के अनुरूप कुछ अधिक साहसपूर्ण कदम उठा सकने में समर्थ हो सकें। कटु प्रतीत होने वाली भाषा में और अप्रिय लगने वाले शब्दों में हम अक्सर परिजनों का अग्रगामी उद्बोधन करते रहते हैं। उस सन्दर्भ में रोष या तिरस्कार मन में नहीं रहता वरन् आत्मीयता और अधिकार की भावना ही काम करती रहती है। लोग भले ही भूल गये हों, पर हम तो नहीं भूले हैं।
लम्बी अवधि से चली आ रही ममता और आत्मीयता हमारे भीतर जमी भी पूर्वजन्मों की भाँति सजग है। सो हमें अपनी पूर्वकालीन घनिष्ठता की अनुभूति के कारण वैसा ही कुछ जब भी लगता रहता है कि यह अपनी ही आत्मा के अविच्छिन्न अंग हैं। और इन पर हमारा उतना ही अधिकार है, जितना निकटतम आत्मीय एवं कुटुम्बी-सम्बन्धियों का हो सकता है। अपने इस अधिकार की अनुभूति के कारण ही आग्रह और अनुरोध ही नहीं करते वरन् निर्देश भी देते रहते हैं और उनके प्रति उपेक्षा करते जाने पर लाल-पीले भी होते रहते हैं। इन कटु प्रसंगों के पीछे हमारा कोई व्यक्तिगत राम-द्वेष या स्वार्थ-लोभ नहीं रहना विशुद्ध रूप से लोक-मंगल और जनकल्याण की भावना ही काम करती रहती है। जिस प्रकार लोभी बाप में अपने बेटे को अमीर देखने की लालसा रहती है, उसी प्रकार हमारे मन में भी अपने परिजनों को उत्कृष्ट स्तर के महामानव देखने की आकांक्षा बनी रहती है। और उसी के लिए आवश्यक अनुरोध आग्रह करते रहते हैं।
इस बार झोला पुस्तकालयों की पूर्णता के लिए जो अनुरोध किया गया है, उसके पीछे भी यही भावना काम कर रही है कि हमारा शरीर कहीं सुदूर प्रदेश में भले ही चला जाय पर हमारी आत्मा विचारणा, प्रेरणा, भावना और रोशनी प्रिय परिजनों के घरों में पीछे भी जमी बैठी रहे और हमारी अनुपस्थिति में भी उपयुक्त मार्ग दर्शन करती रहे। जो उपेक्षा और आलस्य करते हैं, उन्हें कटु शब्द भी इसीलिये कह देते हैं कि थोड़ी सी पूँजी में घर की एक बहुमूल्य सम्पदा स्थिर करने में जो कंजूसी बरती जाती है। वहीं हमें रुचती नहीं। अनेक आकस्मिक कार्यों में किसी भी सद्गृहस्थ को बहुत व्यय करना पड़ जाता है। उसे किसी प्रकार करते ही हैं। फिर एक घरेलू पुस्तकालय परिपूर्ण कर लेने के लिए आना-कानी की जाती है तो उसे हमें उपेक्षा मात्र मानते हैं और भर्त्सना करते हैं। हमारी भावनाओं का गलत अर्थ न लगाया जाय और जो बात जैसी है, उसे वैसा ही समझा जाय।
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति, सितंबर १९६९, पृष्ठ 64
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