हमारी वसीयत और विरासत (भाग 109): ब्राह्मण मन और ऋषिकर्म
उपरोक्त पंक्तियों में ऋषिपरंपरा की टूटी कड़ियों में से कुछ को जोड़ने का वह उल्लेख है, जो पिछले दिनों अध्यात्म और विज्ञान की— ब्रह्मवर्चस् शोध-साधना द्वारा संपन्न किया जाता रहा है। ऐसे प्रसंग एक नहीं अनेकों हैं, जिन पर पिछले साठ वर्षों से प्रयत्न चलता रहा है और यह सिद्ध किया जाता रहा है कि लगनशीलता, तत्परता यदि उच्चस्तरीय प्रयोजनों में संलग्न हो तो उसके परिणाम कितने महत्त्वपूर्ण हो सकते हैं।
सबसे बड़ा और प्रमुख काम अपने जीवन का एक ही है कि प्रस्तुत वातावरण को बदलने के लिए दृश्य और अदृश्य प्रयत्न किए जाएँ। इन दिनों आस्था-संकट सघन है। लोग नीति और मर्यादा को तोड़ने पर बुरी तरह उतारू हैं। फलतः अनाचारों की अभिवृद्धि से अनेकानेक संकटों का माहौल बन गया है। न व्यक्ति सुखी है, न समाज में स्थिरता है। समस्याएँ, विपत्तियाँ, विभीषिकाएँ निरंतर बढ़ती जा रही हैं। सुधार के प्रयत्न कहीं भी सफल नहीं हो रहे। स्थिर समाधान के लिए जनमानस का परिष्कार और सत्प्रवृत्ति-संवर्द्धन यह दो ही उपाय हैं। यह प्रत्यक्ष, रचनात्मक, संगठनात्मक, सुधारात्मक उपयोग द्वारा भी चलने चाहिए और अदृश्य आध्यात्मिक उपचारों द्वारा भी। विगत जीवन में यही किया गया है। समूची सामर्थ्य को इसी में होमा गया है। परिणाम आश्चर्यजनक हुए हैं। जो होने वाला है, उसे अगले दिनों अप्रत्याशित कहा जाएगा।
एक शब्द में यह ब्राह्मण मनोभूमि द्वारा अपनाई गई संत परंपरा अपनाने में की गई तत्परता है। इस प्रकार के प्रयासों में निरत व्यक्ति अपना भी कल्याण करते हैं, दूसरे अनेकानेकों का भी।
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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