हमारी वसीयत और विरासत (भाग 110): हमारी प्रत्यक्ष सिद्धियाँ
संपदा एकत्रित होती है, तो उसका प्रभाव परिलक्षित होता है। शरीर से स्वस्थ मनुष्य बलिष्ठ और सुंदर दीखता है। संपदा वालों के ठाठ-बाट बढ़ जाते हैं। बुद्धिमानों का वैभव वाणी, रहन-सहन में दिखाई पड़ता है। ठीक इसी प्रकार आध्यात्मिक संपदा बढ़ने पर उसका प्रभाव भी स्पष्ट उदीयमान होता दृष्टिगोचर होता है। साधना से सिद्धि का अर्थ होता है— असाधारण सफलताएँ। साधारण सफलताएँ तो सामान्यजन भी अपने पुरुषार्थ और साधनों के सहारे प्राप्त करते रहते हैं और कई तरह की सफलताएँ अर्जित करते रहते हैं। अध्यात्म-क्षेत्र बड़ा और ऊँचा है, इसलिए उसकी सिद्धियाँ भी ऐसी होनी चाहिए, जिन्हें सामान्यजनों के एकाकी प्रयास से न बन पड़ने वाली, अधिक ऊँचे स्तर की मानी जा सके।
इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि आध्यात्मिकता का अवमूल्यन होते-होते वह बाजीगरी स्तर पर पहुँच गई है और सिद्धियों का तात्पर्य लोग किसी ऐसे ही अजूबे से समझने लगे हैं, जो कौतुक-कौतूहल उत्पन्न करता हो। दर्शकों को अचंभे में डालता हो। भले ही वे अचरज सर्वथा निरर्थक ही क्यों न हों? बालों में से बालू निकाल देना, कोई ऐसा कार्य नहीं है, जिसके बिना किसी का काम रुकता हो या उस बालू से किसी का भला होता हो। असाधारण कृत्य, चकाचौंध में डालने वाले करतब ही बाजीगर लोग दिखाते रहते हैं। इसी के सहारे वाहवाही लूटते और पैसा कमाते हैं, किंतु इनके कार्यों में से एक भी ऐसा नहीं होता, जिससे जनहित का कोई प्रयोजन पूरा होता हो। कौतूहल दिखाकर अपना बड़प्पन सिद्ध करना उनका उद्देश्य होता है। इसके सहारे वे अपना गुजारा चलाते हैं। सिद्धपुरुषों में भी कितने ही ऐसे होते हैं, जो ऐसी ही कुछ हाथों की सफाई दिखाकर अपनी सिद्धियों का विज्ञापन करते रहते हैं। हवा में हाथ मारकर इलायची या मिठाई मँगा देने, नोट दूने कर देने जैसे कृत्यों के बहाने चमत्कृत करके कितने ही भोले लोगों को ठग लिए जाने के समाचार आएदिन सुनने को मिलते रहते हैं। लोगों का बचपना है, जो बाजीगरी-कौतुकी और अध्यात्म-क्षेत्र की सिद्धियों का अंतर नहीं कर पाते। बाजीगरों और सिद्धपुरुषों के जीवनक्रम में— स्तर में जो मौलिक अंतर रहता है, उसे पहचानना आवश्यक है।
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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