हमारी वसीयत और विरासत (भाग 112): हमारी प्रत्यक्ष सिद्धियाँ
हमारी जीवन-साधना की परिणतियाँ यदि कोई सिद्धि स्तर पर ढूँढ़ना चाहे तो उसे निराश नहीं होना पड़ेगा। हर कदम अपने कौशल और उपलब्ध साधनों की सीमा से बहुत ऊँचे स्तर का उठा है। आरंभ करते समय सिद्धि का पर्यवेक्षण करने वालों ने इसे मूर्खता कहा और पीछे उपहासास्पद बनते फिरने की चेतावनी भी दी, किंतु मन में इस ईश्वर के साथ रहने का अटूट विश्वास रहा, जिसकी प्रेरणा उसे हाथ में लेने को उठ रही थी। लिप्सारहित अंतःकरणों में प्रायः ऐसे ही संकल्प उठते हैं, जो सीधे लोक-मंगल से संबंधित हों और जिनके पीछे दिव्य सहयोग मिलने का विश्वास हो।
साधना की ऊर्जा सिद्धि के रूप में परिपक्व हुई, तो उसने सामयिक आवश्यकताएँ पूरी करने वाले किसी कार्य में उसे खपा देने का निश्चय किया। कार्य आरंभ हुआ और आश्चर्य इस बात का है कि सहयोग का साधन जुटने का वातावरण न दीखते हुए भी प्रयास इस प्रकार अग्रगामी बने, मानो वे सुनिश्चित रहे हों और किसी ने उसकी पूर्व से ही सांगोपांग व्यवस्था बना रखी हो। पर्यवेक्षकों में से अनेकों ने इसे आरंभ में दुस्साहस कहा था, लेकिन सफलताएँ मिलती चलने पर वे उस सफलता को साधना की सिद्धि कहते चले गए।
इन दुस्साहसों की छुट-फुट चर्चा तो की जा चुकी। उन सबको पुनः दुहराया जा सकता है—
1. पंद्रह वर्ष की आयु में चौबीस वर्ष तक चौबीस गायत्री महापुरश्चरण चौबीस वर्ष में पूरा करने का अनेक अनुबंधों के साथ जुड़ा हुआ संकल्प लिया गया। वह बिना लड़खड़ाए नियत अवधि में संपन्न हो गया।
2. इस महापुरश्चरण की पूर्णाहुति में निर्धारित जप का हवन करना था। देश भर के गायत्री उपासक आशीर्वाद देने आमंत्रित करने थे। पता लगाकर ऐसे चार लाख पाए गए और वे सभी मथुरा में सन् 1958 में सहस्रकुंडी यज्ञ में आमंत्रित किए गए। प्रसन्नता की बात थी कि उनमें से एक भी अनुपस्थित नहीं रहा। पाँच दिन तक निवास, भोजन, यज्ञ आदि का निःशुल्क प्रबंध रहा। विशाल यज्ञशाला, प्रवचन-मंच, रोशनी, पानी, सफाई आदि का सुनियोजित प्रबंध था। सात मील के घेरे में सात नगर बसाए गए। सारा कार्य निर्विघ्न पूरा हुआ। लाखों का खरच हुआ, पर उसकी पूर्ति बिना किसी के आगे पल्ला पसारे ही होती रही।
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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