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दुष्प्रवृत्ति निरोध आन्दोलन (भाग 1)
विवाहोन्माद प्रतिरोध आन्दोलन आज के हिन्दू समाज की सबसे बड़ी एवं सबसे प्रमुख आवश्यकता है। उसकी पूर्ति के लिए हमें अगले दिनों बहुत कुछ करना होगा। हमारा यह प्रयत्न निश्चित रूप में सफल होगा। अगले दिनों हवा बदलेगी और आज की खर्चीली वैवाहिक कुरीतियाँ पीढ़ी वालों के लिए एक कौतूहल की बात रह जायगी। कुछ वर्षों बाद भावी सन्तान को यह खोज करनी पड़ेगी कि हमारे पूर्वज थे तो बुद्धिमान पर ऐसी मूर्खतापूर्ण रीति-रिवाज के जंजाल में फँसकर इतना कमर तोड़ अपव्यय आखिर करते क्यों थे?
वह दिन निश्चित रूप में आने हैं। समय की माँग, युग की पुकार इतनी प्रबल होती है कि उसके द्वारा बड़े-बड़े प्रवाह मोड़ दिये जाते हैं। इस परिवर्तन का लाभ अगली पीढ़ी को मिलेगा, हमें तो इसके लिए भागीरथ तप ही करना है और प्रति...
हरि कीर्तन
‘कीर्तन’ शब्द को यदि उलटा कर दिया जाय तो वह शब्द ‘नर्तकी’ बन जाता है। इस जमाने में हर जगह उलटा चलने ही अधिक देखा जाता है। कीर्तन का वास्तविक तात्पर्य न समझ कर लोग उसका उलटा अर्थ करते हैं और नर्तकी की तरह नाच कूद कर अपनी उचंग पूरी करते हैं। ईश्वर कोई मनचला नवाब नहीं है, जिसे नाच रंग में मस्त रहने की सनक हो। वह अपने प्रिय पुत्रों को नर्तक नहीं, धर्म प्रवर्तक बनाना चाहता है।
कीर्तन का तात्पर्य उन कर्मों के करने से है, जिससे प्रभु की कारीगरी की कीर्ति फलती है, प्रशंसा होती है। हम किसी सुन्दर खिलौने को देखकर उसकी प्रशंसा करते हैं, वास्तव में वह प्रशंसा जड़ खिलौने की नहीं वरन् उस कुम्हार की है जिसने उसे बनाया है। विद्वान्, धर्मात्मा, तपस्वी, उद्ध...
भगवान की कृपा या अकृपा
एक व्यक्ति नित्य हनुमान जी की मूर्ति के आगे दिया जलाने जाया करता था। एक दिन मैंने उससे इसका कारण पूछा तो उसने कहा- ”मैंने हनुमान जी की मनौती मानी थी कि यदि मुकदमा जीत जाऊँ तो रोज उनके आगे दिया जलाया करूंगा। मैं जीत गया और तभी से यह दिया जलाने का कम चल रहा है।
मेरे पूछने पर मुकदमे का विवरण बताते हुए उसने कहा- एक गरीब आदमी की जमीन मैंने दबा रखी थी, उसने अपनी जमीन वापिस छुड़ाने के लिए अदालत में अर्जी दी, पर वह कानून जानता न था और मुकदमें का खर्च भी न जुटा पाया। मैंने अच्छे वकील किए खर्च किया और हनुमान जी मनौती मनाई। जीत मेरी हुई। हनुमान जी की इस कृपा के लिए मुझे दीपक जलाना ही चाहिए था, सो जलाता भी हूँ।
मैंने उससे कहा-भोले आदमी, यह तो हनुमान जी की क...
दुष्प्रवृत्ति निरोध आन्दोलन (अन्तिम भाग)
इस समस्या का हल करने के लिए यह आवश्यक प्रतीत हुआ है कि विवाहोन्माद प्रतिरोध आन्दोलन के साथ-साथ एक छोटा सहायक आन्दोलन और भी चालू रखा जाय। जिससे जो लोग आदर्श विवाहों की पद्धति अपनाने के लिए तैयार न हो सकें उन्हें उस सहायक आन्दोलन के किसी अंश के साथ सहमत करने का प्रयत्न किया जाय। किसी न किसी बात पर यदि व्यक्ति को सहमत कर लिया जाय तो विदाई के समय मधुरता बनी रहती है और आगे के प्रेम सम्बन्धों में अन्तर नहीं आता। आज की थोड़ी सहमति आगे चलकर बड़ी सहमतियों के रूप में परिणत हो सकती है। अतएव एक सरल आन्दोलन भी साथ-साथ चलते रहने की आवश्यकता अनुभव की गई है।
इस सहायक आन्दोलन का नाम है—"दुष्प्रवृत्ति निरोध आन्दोलन" यों इसकी उपयोगिता, आवश्यकता एवं महत्ता भी किसी प्रकार कम...
सत्य के लिए सर्वस्व त्याग
यदि मेरी मित्रतायें मेरा साथ नहीं देतीं तो न दें। प्रेम मुझे छोड़ देता है तो छोड़ दे। मेरा तो एक ही आग्रह है कि मैं उस सत्य के प्रति सच्ची रह सकूँ, जिसकी सेवा और परिपालन के लिये, मैंने अपनी इच्छाओं का, वैभव विलास से परिपूर्ण पाश्चात्य जीव−पद्धति तक का बहिष्कार कर दिया है। जब तक मेरे शरीर में रक्त की अन्तिम बूँद और अन्तिम श्वास विद्यमान है, मैं एकमेव सत्य की प्राप्ति के हित तिल−तिल जलती रहूँगी। सत्य ही तो मनुष्य जीवन का सार है।
यदि वह सत्य मुझ से रेगिस्तान में चलने को कहेगा तो मैं उसके पीछे−पीछे जाऊँगी, मुझे उसे प्राप्त करने के लिये पर्वतों पर चढ़ना पड़ा, समुद्र की थाह लेनी पड़ी तो भी मैं पीछे नहीं हटूँगी। उसने माँग की मैं प्रेम से वंचित हो जाऊँ तो मुझे...
माँसाहार का पाप पूर्व को भी पश्चिम न बना दे। (भाग 1)
डॉ. बारमस रक्तचाप (ब्लडप्रेशर) की बीमारी पर एक शोध−कार्य चला रहे थे। अनेक रोगियों का अध्ययन करते समय उन्होंने जो एक सामान्य बात पाई वह यह थी कि रक्तचाप (ब्लडप्रेशर) के अधिकाँश बीमार लोग माँसाहारी थे। उनके मस्तिष्क में एक विचार उठा कि कहीं माँसाहार ही तो रक्तचाप का कारण नहीं है, यदि है तो किन परिस्थितियों में? इस प्रश्न के समाधान के लिये उन्होंने प्रयोग की दिशायें ही बदल दीं। अब वे माँसाहार से होने वाले शरीर पर प्रभाव का अध्ययन करने लगे। उनके प्रयोग और निष्कर्ष बहुत महत्वपूर्ण सिद्ध हुये दूसरे वैज्ञानिकों ने भी माना कि माँसाहार केवल शरीर ही नहीं, मानसिक स्थिति को भी प्रभावित करता है। दोनों पर उसकी प्रतिक्रिया दूषित और अस्वाभाविक होती है।
कई माँसाहारी जीवों को...
माँसाहार का पाप पूर्व को भी पश्चिम न बना दे। (भाग 2)
माँस मनुष्य का स्वाभाविक आहार नहीं हो सकता। हम इस संसार में सुख−शाँति और निर्द्वंद्वता का जीवन जीने के लिये आये हैं। आहार हमारे जीवन धारण की सामर्थ्य को बढ़ाता है, इसलिये पोषण और शक्ति प्रदान करने वाला आहार तो चुना जा सकता है, किन्तु जो आहार हमारी मानसिक, बौद्धिक एवं आत्मिक शक्तियों को नष्ट करता हो, वह पौष्टिक होकर भी स्वाभाविक नहीं हो सकता। हमारे जीवन की सुख−शाँति शरीर पर उतनी अवलम्बित नहीं, जितना इनका संबंध मन, बुद्धि और आत्मा की शुद्धता से है। इसलिये जो आहार इन तीनों को शुद्ध नहीं रख सकता, वह हमारा स्वाभाविक आहार कभी भी नहीं हो सकता।
बहुत स्पष्ट बात है। जंगल के शेर, चीते, भेड़िये भालू, लकड़बग्घे माँसाहार करते हैं, इन्हें देखकर लोग कहते हैं कि शक्तिशाली हो...
मुसीबत से डरकर भागो मत, उसका सामना करो
एक बार बनारस में स्वामी विवेकनन्द जी मां दुर्गा जी के मंदिर से निकल रहे थे कि तभी वहां मौजूद बहुत सारे बंदरों ने उन्हें घेर लिया। वे उनसे प्रसाद छिनने लगे वे उनके नज़दीक आने लगे और डराने भी लगे। स्वामी जी बहुत भयभीत हो गए और खुद को बचाने के लिए दौड़ कर भागने लगे। वो बन्दर तो मानो पीछे ही पड़ गए और वे भी उन्हें पीछे पीछे दौड़ाने लगे।
पास खड़े एक वृद्ध सन्यासी ये सब देख रहे थे, उन्होनें स्वामी जी को रोका और कहा – रुको! डरो मत, उनका सामना करो और देखो क्या होता है। वृद्ध सन्यासी की ये बात सुनकर स्वामी जी तुरंत पलटे और बंदरों के तरफ बढऩे लगे। उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा जब उनके ऐसा करते ही सभी बन्दर तुरंत भाग गए। उन्होनें वृद्ध सन्यासी को इस सलाह के लिए बहुत धन्यवा...
माँसाहार का पाप पूर्व को भी पश्चिम न बना दे। (भाग 3)
हाथी माँस नहीं खाता, बैल और भैंसे माँस नहीं खाते, साँभर नील गाय शाकाहारी जीव हैं, यह शक्ति में किसी से कम नहीं होते। भारतवर्ष संसार के देशों में एक ऐसा देश है जिसमें अधिकाँश लोग अभी भी शाकाहार करते हैं यह प्रत्यक्ष उदाहरण है कि भारतीयों जैसा शौर्य संसार की किसी भी जाति में नहीं है। यदि किसी में है भी तो वह चील−झपट्टे जैसा है। आकस्मिक प्रहार तो एक बच्चे का भी प्राण घातक हो सकता है, उसे शौर्य कभी नहीं कहा जा सकता। वीरता आत्मा की पवित्रता का गुण है और वह माँसाहार से कदापि विकसित नहीं हो सकता।
किन्हीं अंशों में ऐसा न भी हो तो भी मनुष्य का पाचन संस्थान माँसाहारी प्राणियों के पाचन संस्थान की तरह कठोर और बलवान् नहीं होता। वह कम अम्लीय प्रकृति (एसिडिक नेचर) का ही आह...
माँसाहार का पाप पूर्व को भी पश्चिम न बना दे। (भाग 4)
गाँवों में रहने वाले लोगों को प्रायः लकड़बग्घे, बाघ या भेड़ियों का सामना करना पड़ जाता है। शहरी लोग चिड़िया−घरों में इन जन्तुओं को देखते हैं, जो इनके समीप से गुजरे होंगे उन्हें मालूम होगा कि उनके पास पहुँचने के काफी दूर से कितनी भयंकर दुर्गन्ध आने लगती है, उनके पास तो अधिक देर खड़ा भी नहीं हुआ जाता। यह दुर्गन्ध दरअसल और कुछ नहीं माँसाहार से रक्त में बढ़े मूत्र (यूरिआ) और सार्कोलैक्टिक एसिड के कारण होती है। यह तत्त्व मनुष्य के रक्त में मिलकर मस्तिष्क में दुर्गन्ध भर देते हैं, उससे कई बार लोग अच्छी स्थिति में अशाँति, असन्तोष, उद्विग्नता और मानसिक कष्ट अनुभव करते हैं, यह तो स्थूल बुराइयाँ हैं, आत्मा पर पड़ने वाली मलिनता तो इससे अतिरिक्त और अधिक निम्नगामी स्थिति में पटकने वाली होती है।<...