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सादा जीवन-उच्च विचार
मानवी सत्ता शरीर और आत्मा का सम्मिश्रण है। शरीर प्रकृति पदार्थ है। उसका निर्वाह स्वास्थ्य, सौन्दर्य, अन्न-जल जैसे प्रकृति पदार्थों पर निर्भर है। आत्मा चेतन है। परमात्मा चेतना का भाण्डागार है। आत्मा और परमात्मा की जितनी निकटता, घनिष्टïता होगी, उतना ही अंतराल समर्थ होगा। व्यक्तित्व विकसित-परिष्कृत होगा। शरीरगत प्रखरता और चेतना क्षेत्र की पवित्रता जिस अनुपात में बढ़ती है, उतना ही आत्मा और परमात्मा के बीच आदान-प्रदान चल पड़ता है। महानता के अभिवर्धन का यही मार्ग है। इसी निर्धारण पर सच्ची प्रगति एवं समृद्धि अवलम्बित है।
दो तालाबों के बीच नाली का सम्पर्क-संबंध बना देने से ऊँचे तालाब का पानी नीचे तब तक आता रहता है, जब तक कि दोनों की सतह समान नहीं हो जाती। आत्मा और परमात्मा को आपस में जोडऩे वाली उप...
अपने आप का निर्माण
मित्रो ! आत्मा को, अपने आप का निर्माण कर लेना-नम्बर एक। अपने परिवार का निर्माण कर लेना-नम्बर दो। अपने समाज को प्रगतिशील बनाने के लिए, उन्नतिशील बनाने के लिए कुछ-न-कुछ योगदान देना-नम्बर तीन। तीन काम अगर आप कर पाएँगे, तो आपको समझना चाहिए कि आपने आत्मा की भूख को बुझाने के लिए और आत्मिक जीवन को समुन्नत बनाने के लिए कुछ कदम बढ़ाना शुरु कर दिया, अन्यथा यही कहा जाएगा कि आप शरीर के लिए मरे हैं और शरीर के लिए ही जिए हैं। शरीर ही आप का इष्टदेव है।
इन्द्रियों के सुख ही तो आपकी आकांक्षा है। वासना तृष्णा ही तो आपको सबसे प्यारे मालूम पड़ते है। शरीर ही सब कुछ नहीं है, शरीर की आकांक्षाएँ ही सब कुछ नहीं है, इन्द्रियाँ ही सब कुछ नहीं है, मन की लिप्सा और लालसा ही सब कुछ नहीं है। कहीं आत्मा भी आपके भीतर है औ...
कहिए कम-करिये ज्यादा (भाग 1)
मानव स्वभाव की एक बड़ी कमजोरी प्रदर्शन प्रियता है। बाहरी दिखावे को वह बहुत ज्यादा पसन्द करता है। यद्यपि वह जानता और मानता है कि मनुष्य की वास्तविक कीमत उसकी कर्मशीलता, कर्मठता है। ठोस और रचनात्मक कार्य ही स्थायी लाभ, प्रतिष्ठा का कारण होता है। दिखावा और वाक शूरता नहीं। यह जानते हुये भी उसे अपनाता नहीं। इसीलिये उसे एक कमजोरी के नाम से सम्बोधित करना पड़ता है।
प्रकृति ने मनुष्य को कई अंगोपाँग दिये हैं और उनसे उचित काम लेते रहने से ही मनुष्य एवं विश्व की स्थिति रह सकती है। पर मानव स्वभाव कुछ ऐसा बन गया है कि सब अंगों का उपयोग ठीक से न कर केवल वाक्शक्ति का ही अधिक उपयोग करता है। इससे बातें तो बहुत हो जाती हैं, पर तदनुसार कार्य कुछ भी नहीं हो पाता। हो भी कैसे वह करना भी नहीं चाहता और इसीलिये दिन...
कहिए कम-करिये ज्यादा (अन्तिम भाग)
इसे हम बराबर देखते हैं कि केवल बातें बनाने वाला व्यक्ति जनता की नजरों से गिर जाता है। पहले तो उसकी बात का कुछ असर ही नहीं होता। कदाचित उसकी ललित एवं आकर्षक कथन शैली से कोई प्रभावित भी हो जाय तो बाद में अनुभव होने पर वह सब प्रभाव जाता रहता है। वाकशूर के पीछे यदि कर्मवीरता का बल नहीं तो वह पंगु हैं। जो बात कहनी हो उसको पहिले तोलिए फिर बोलिए। शब्दों को बाण की उपमा दी गई। एक बार बाण के छूट जाने पर उसे रोकना बस की बात नहीं। लोहे का बाण तो एक ही जन्म और शरीर को नष्ट करता है पर शब्द बाण तो भविष्य की युग युगीन परम्परा को भी नष्ट कर देता है।
यह सब ठीक होते हुए भी प्रश्न उठता है कि विश्व में वाकशूर ही क्यों अधिक दिखाई देते हैं। उत्तर स्पष्ट है-बोलना सरल है। इसमें किसी तरह का कष्ट नहीं होता। कार्य कर...
दुष्कर्मों के दण्ड से प्रायश्चित्त ही छुड़ा सकेगा
यह ठीक है कि जिस व्यक्ति के साथ अनाचार बरता गया अब उस घटना को बिना हुई नहीं बनाया जा सकता। सम्भव है कि वह व्यक्ति अन्यत्र चला गया हो। ऐसी दशा में उसी आहत व्यक्ति की उसी रूप में क्षति पूर्ति करना सम्भव नहीं। किन्तु दूसरा मार्ग खुला है । हर व्यक्ति समाज का अंग है। व्यक्ति को पहुँचाई गई क्षति वस्तुत: प्रकारान्तर से समाज की ही क्षति है । उस व्यक्ति को हमने दुष्कर्मों से जितनी क्षति पहुँचाई है उसकी पूर्ति तभी होगी जब हम उतने ही वजन के सत्कर्म करके समाज को लाभ पहुँचाये। समाज को इस प्रकार हानि और लाभ का बैलेन्स जब बराबर हो जायेगा तभी यह कहा जायेगा कि पाप का प्रायश्चित हो गया और आत्मग्लानि एवं आत्मप्रताडऩा से छुटकारा पाने की स्थिति बन गई।
सस्ते मूल्य के कर्मकाण्ड करके पापों के फल से छुटकारा पा सकना...
प्राप्त का दुरूपयोग न होने दें
जन्मा, कुछ दिन खेला-कूदा, किशोरावस्था आने पर कल्पना की रंगीली उड़ानें भरना, युवा होते-होते विवाह बंधनों में बंधना, जो बोझ लादा उसे वहन करते रहने के लिए दिन-रात कमाने के लिए खटते रहना, बढाए हुए परिवार की बढती समस्याओं को जिस-तिस प्रकार किसी हद तक सुलझाना, ढलती आयु के साथ अशक्तता और रुग्णता का चढ़ दौड़ना, समर्थ संतानों द्वारा समस्त वैभव पर कब्ज़ा जमा लेना, स्वयं को असहाय, अपमानित स्थिति में दिन गुजारने के लिए बाधित होना और रोते-कलपते मौत द्वारा दबोच लिया जाना, क्या यही है आम लोगों की नियति?
अपने आस-पास की ही वास्तविकता से कोसों दूर, भ्रांतियों में उलझे रहकर, अधिकांश लोगों से तो आत्म-समीक्षा तक नहीं बन पड़ती। जिंदगी का बोझ तो किसी प्रकार वहन कर लिया जाता है, पर उसके साथ अपने को, विशाल विश्व को और ...
विचारणीय
मुफ्त में अनुदान-वरदान पाने की अपेक्षा, किसी को भी, किसी से भी नहीं करनी चाहिए। देवताओं से वरदान और धन-कुबेरों से अनुदान प्राप्त करने के लिए अपनी पात्रता का परिचय देना पड़ता है। मुफ्तखोरों के लिए तो वे भी गूँगे-बहरे बनकर बैठे रहते हैं। सौभाग्य अनायास ही कहीं से आ नहीं टपकते। उस उपलब्धि के लिए बहुत पहले से ही अपनी धारण कर सकने की क्षमता अर्जित करनी पड़ती है। अक्षमों, दुर्बलों के तो हाथ में आयी सम्पदा भी चोर-उचक्कों द्वारा ठग ली या झपट ली जाती है। उपलब्ध भविष्य, यों बनता तो स्रष्टा की इच्छा, निर्धारण और व्यवस्था के अनुरूप ही है, पर उससे लाभान्वित होने के लिए इच्छुकों और उत्सुकों को भी कुछ असाधारण बनना पड़ता है।
क्या लोक, क्या परलोक, क्या मनुष्य, क्या देवता, सर्वत्र सत्पात्रों को ही उपहार-वरदानो...
महान कैसे बनें?
मित्रो ! तुम्हें ऐसे व्यक्तियों का प्रेमपात्र बनने का सदैव प्रयत्न करते रहना चाहिए जो कष्ट पडऩे पर तुम्हारी सहायता कर सकते हैं और बुराइयों से बचाने की एवं निराशा में आशा का संचार करने की क्षमता रख्रते हैं।
खुशामदी और चापलूसों से घिर जाना आसान है। मतलबी दोस्त तो पल भर में इक्कठे हो सकते हैं, पर ऐसे व्यक्तियों का मिलना कठिन है, जो कड़वी समालोचना कर सकें, जो खरी सलाह दे सकें,फटकार सकें और खतरों से सावधान कर सकें । राजा और साहूकारों की मित्रता मूल्यवान् समझी जाती है, पर सबसे उत्तम मित्रता उन धार्मिक पुरूषों की है, जिनकी आत्मा महान् है। जिसके पास पूँजी नहीं है, वह कैसा व्यापारी? जिसके पास सच्चे मित्र नहीं हैं, वह कैसा बुद्धिमान? उन्नति के साधनों में इस बात का बड़ा मूल्य है, कि मनुष्य को श्रेष...
संघर्षों की विजयादशमी (Kavita)
संघर्षों की विजयादशमी चढ़ आई है,
तज कर तन्द्रा, आ पंचशील के राम, उठो!
तुम भटक चुके हो नाथ, बहुत दण्डक वन में,
तुम बिलख चुके हो हृदय-विदारक क्रन्दन में,
नीरव आँसू से शैल-शिलाएं पिघलाते-
तुम मौन रहे अत्याचारों के बन्धन में,
मिल गए तुम्हें सह-सत्ता के भालू-बन्दर-
करते जयकारे सद्भावों के नर-किन्नर-
पापों से दबी धरा की उठी दुहाई है-
नर के चोले में नारायण निष्काम, उठो! 1
सर उठा रही डायन-सी विज्ञानी लंका,
डम-डमा रहा संहार-नाश का फिर डंका,
सज रहा टैंक, पनडुब्बी, राकिट के संग-संग-
ऐटम का मेघनाद, असुरों का रणबंका,
है नाथ ‘मिजिल’ का बड़ा भयानक कुम्भकर्ण-
कर देंगे गैसों के शर सब के पीत वर्ण-
मानव के जग पर दानवता घहराई है,
बन एक बार संरक्षण के उपनाम, उठो! 2
ऋषि-मुनियों-से हैं उपनिवेश पीड़ित दिन-दिन,
हैं ...
साहस और संकल्प का महापर्व : विजयादशमी
शहरों, कस्बों और गाँवों में रावण के पुतलों को जलाने की तैयारियाँ देखकर दशहरा के आगमन का अनुमान होने लगा है। 12 अक्टूबर 2024 को विजयादशमी के मनाए जाने की खबर सभी को लग गयी है। इस दिन बाँसों की खपच्चियों से बने रावण के पुतले बड़ी धूम-धाम से जलेंगे। आतिशबाजियों की आँखों को चौंधिया देने वाली रोशनी होगी, कान फोड़ने वाला भारी शोर होगा और दशहरे की रस्में पूरी हो जाएँगी। दशहरे की सच्चाई क्या केवल इन रस्मों के पूरी होने तक है? अथवा फिर इस महापर्व के साथ कुछ विजय संकल्प भी जुड़े हैं? ये सवाल वैसे ही जलते-सुलगते रह जाएँगे। शायद ही किसी के मन इनका जवाब पाने के लिए विकल-बेचैन हो। अन्यथा ज्यादातर जनों की जिन्दगी दशहरा की रस्में जैसे-तैसे पूरी करके फिर से अपने उसी पुराने ढर्रे पर ढुलकने, लुढ़कने और फिसलने ...