Magazine - Year 1943 - Version 2
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Language: HINDI
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बाहुबल और ब्रह्मबल
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द्वापर के आरम्भ में ब्रह्मावर्त देश में दंभोद्भव नामक एक प्रतापी राजा हुआ। वह बड़ा ही बलवान और तेजस्वी था। शारीरिक बल में वह ऐसा अद्वितीय था कि दूर-दूर उसके समान योद्धा दिखाई न पड़ता, जिसे लड़ने के लिये ललकारता वही भयभीत हो जाता और गिड़गिड़ा कर क्षमा माँग लेता।
जब तक ऊँट पहाड़ के नीचे होकर नहीं निकलता तब तक उसे पता नहीं चलता कि मुझसे भी कोई बड़ी चीज इस दुनिया में मौजूद है। बाहुबल के अभिमान में उन्मत्त होकर दंभोद्भव चारों दिशाओं में बिगड़े हुए हाथी की तरह दौड़ने लगा। जहाँ जाता वही यह घोषणा करता कि यदि पृथ्वी पर कोई योद्धा शेष है तो मुझसे लड़ने के लिये आगे आवें।
एक नगर में वह ऐसी ही विज्ञप्ति कर रहा था, कि एक वृद्ध विद्वान अपने श्वेत केशों को बिखेरे हुए राजा के सन्मुख पहुँचा। उसने नम्रतापूर्वक कहा- राजन! आपको पराक्रम प्राप्त हुआ है, इसके लिये ईश्वर को धन्यवाद कीजिये, पर ऐसे अभिमान भरे वचन मत बोलिये, कि मेरे समान इस पृथ्वी पर कोई नहीं है। आप नहीं जानते तो भी यह वसुन्धरा वीर विहीन नहीं है, इस पर एक से एक प्रतापी और शक्तिशाली मनुष्य पड़े हुए है।
वृद्ध की बातें सुनकर राजा को बड़ा क्रोध आया। उसने तड़क कर कहा- यदि कोई मेरे समान योद्धा है तो बताओ वह कहाँ है, यदि न बताओगे तो तुम्हें ही मुझसे लड़ना पड़ेगा और अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ेगा।
राजा के दर्प पर हँसते हुए उस वृद्ध विद्वान ने कहा- मरने की तो मुझे कुछ चिन्ता नहीं है, पर तुम्हारी इच्छा पूर्ण करने के लिये मैं एक व्यक्ति को बताये देता हूँ, वह तुमसे युद्ध कर लेगा। गंध मादन पर्वत पर चले जाओ वहाँ नर-नारायण ऋषि तपस्या कर रहे हैं, वे तुम्हारी युद्ध की मनोकामना पूर्ण कर देंगे।
राजा गन्ध मादन पर्वत की ओर चल दिया। बहुत ढूँढ़ने पर वहाँ एक अस्थि-पिंजर मनुष्य तप करता हुआ पाया। राजा ने पूछा- आप ही नर-नारायण हैं क्या? यदि हैं तो मैं आपसे लड़ने आया हूँ। ऋषि ने दम्भोद्भव को स्नेह पूर्वक पास बिठाया और सिर पर हाथ फिराते हुए कहा- बेटा! तू निःसन्देह अजेय है। शरीर में कितना बल है, यह तो एक मामूली सी बीमारी में नष्ट हो सकता है। इसलिये बाहु-बल के लिये गर्व करना र्व्यथ है। तू हमारा उपदेश मान और अपने नगर को लौट जा। शारीरिक बल को आजमाने की मूर्खता करने से क्या लाभ?
ऋषि ने बहुत उपदेश दिया पर राजा की समझ में एक भी बात न आई। वह घमंड में चूर होकर बार-बार लड़ने के लिये ही ललकारने लगा। जब किसी तरह न माना तो नर-नारायण ने कहा- अच्छा राजा! अब तू लड़ने को तैयार हो जा। राजा उठकर खड़ा हो गया। ऋषि ने पास में पड़े हुए एक तिनके को उठाया और उसमें प्राण शक्ति फूँक कर उसे योद्धा बना दिया। राजा उस मंत्र प्रेरित तिनके से लड़ने लगा, परन्तु कुछ ही देर में उसका दम फूल गया और परास्त होकर जमीन पर गिर पड़ा। पागल बनाने वाला अभिमान क्षण भर में कपूर की तरह उड़ गया।
वही वृद्ध विद्वान इस अवसर पर पुनः आ उपस्थित हुआ, उसने कहा- बेटा दम्भोद्भव! तुमने देखा कि बाहुबल और ब्रह्मबल में कौन अधिक बलवान् हैं? शरीर, धन आदि के भौतिक बल बहुत ही अपूर्ण अस्थिर और नाशवान है, किन्तु ब्रह्मबल की तो थोड़ी सी किरणें पाकर भी एक तिनका अद्वत शक्तिशाली बन सकता है। इस लिए ही राजन! यदि तुम सच्चा बल प्राप्त करना चाहते हो तो बाहुबल का अभिमान छोड़कर ब्रह्मबल संचय करो।
राजा को अपनी मूर्खता समझ में आ गई। वह अभिमान छोड़कर नारायण शिष्यता में ब्रह्मबल प्राप्त करने के लिए तप करने लगा।