
भक्ति का मर्म
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
(पं. प्रसादी लाल शर्मा ‘दिनेश’ कराहल)
एक बार नारदजी ईश्वर भक्ति का प्रचार करते हुए भूलोक मैं भ्रमण कर रहे थे। तो उन्होंने सर्वत्र अपनी भक्ति भावना की बहुत प्रशंसा सुनी। नारद जी ने समझा मैं ही सबसे बड़ा भक्त हूँ। अपने इस अभिमान की पुष्टि कराने के निमित्त वे बैकुण्ठ लोक में विष्णु भगवान के पास पहुँचे। भगवान् से उन्होंने कहा “प्रभो? मृत्युलोक में मुझे सबसे बड़ा ईश्वर भक्त समझा जा रहा है सो आप बताइये कि क्या मैं सचमुच सबसे बड़ा भक्त हूँ, यदि मुझसे भी बड़ा कोई और भक्त है तो उसका नाम बताइए जिससे मैं उसके पास जाकर भक्ति करना सीखूँ।
भगवान मुसकराये और बोले—महर्षि, वैसे तो आप श्रेष्ठ भक्त हैं, पर ऐसा मत समझिए कि आप से बढ़कर और कोई भक्त नहीं है। यदि भक्ति में और आगे बढ़ने की इच्छा है तो मैं बताता हूँ कि अमुक ग्राम में अमुक किसान के पास चले जाओ, वह आपसे भी बड़ा भक्त है और आपको बहुत कुछ शिक्षा प्रदान करेगा!
भगवान के वचन सुन कर नारद ने अपनी वीणा उठाई और ‘हे नाथ नारायण वासुदेव’ जपते हुए उस किसान के दरवाजे पर जा पहुँचे। किसान इसे जोत कर लौट रहा था। नारद ने उसे प्रणाम किया और भगवान के सारे वचन सुनाते हुए भक्ति योग की शिक्षा देने की प्रार्थना करने लगे।
किसान ने बैलों को यथास्थान बाँधा और हल को कन्धे पर से उतार कर कोने में रखा, तदुपरान्त देवर्षि को आसन देकर हाथ जोड़ कर कहा-भगवान! मैं सीधा सादा किसान हूँ। फूटा अक्षर पड़ा नहीं और संध्या, भजन भी कुछ नहीं जानता। मालूम होता है किसी ने आपको बहका दिया है। मैंने न तो कोई योग सीखा है न ज्ञान भक्ति के बारे में कुछ जानता हूँ। धर्मपूर्वक अपनी जीविका उपार्जन करता हूँ, और अपना कर्तव्य पालन करने में मैं सफाई के साथ लगा रहता हूँ।
नारद ने पहले तो यह समझा कि किसान बनावटी बात कह रहा है वह जरूर कोई पहुँचा हुआ सिद्ध होगा, पर अनेक प्रकार से जब उसने परीक्षा करली कि यह झूठ नहीं बोलता जो बात है उसे सत्य सत्य कह रहा है, तब नारद उठ खड़े हुए विष्णु भगवान के पास जा धमके।
भगवान में उनकी मनोभावनाएँ पहचान ली और हँसते हुए कहा—नारद! ऐसा मत समझो कि मैंने बहका दिया था और उस अपढ़ किसान के पास भक्ति सीखने के लिये भेज कर तुम्हारा उपहास किया था, देखो, सत्य बात यह है कि असल में वह किसान ही यथा भक्त है! नामधारी भक्तों की तरह वह तरह-तरह के आडम्बर बनाना नहीं जानता है तो भी वह अपने कर्तव्य धर्म का सच्चाई से पालन करता है। हे नारद! तुम जानते ही हो कि भक्त महलों में काम से जी चुराने वाले, सस्ती वाहवाही लूटने वाले, तथा लोग तप और कीर्तन की आड़ में अपने पाप छिपाने वाले ही अधिक होते हैं। यह ढोंगी मुझे जरा भी पसंद नहीं मैं तो धर्मपूर्वक आचरा करने वाले और सच्चाई से अपना कर्तव्य पालन करते रहने वाले लोगों को ही प्यार करता हूँ, और उन्हें ही सच्चा भक्त समझता हूँ! देवर्षि तुम्हारा कीर्तन, नाम जप, भक्ति प्रचार सराहनीय है पर अपने साधारण काम को सच्चाई और ईमानदारी से करते रहने वाले उस किसान को अपेक्षा तुम कुछ ऊंचे नहीं हो।
नारद जी की आंखें खुल गईं और उन्होंने भगवान का चरण वन्दन करते हुए कहा—आज मैंने भक्ति सच्चा मर्म समझा है और अब लोगों को कर्तव्य धर्म में सच्चाई के साथ लगे रहने का ही उपदेश किया करूंगा।
यह कह कर नारद जी वीणा बजाते, हरि गुण गाते, ज्ञान प्रसार के लिए भूलोक की ओर चल दिए।