मठा पिया कीजिए।
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न तक्र सेवी व्यथते कदाचित्-
न तक्र दग्या प्रभवन्ति रोगा।
यथा सुराणाममृतं सुखाया,
तथा नराणाम् भुवितक्रमाहुः।।
अर्थात्-तक्र यानी मट्ठा सेवन करने वाला मनुष्य कभी रोगों के जाल में नहीं फँसता और रोगी मनुष्य का तक्र सेवन से रोग जल जाता है और तक्र से जला हुआ रोग पुनः उत्पन्न नहीं होता। जिस प्रकार से देवलोक में अमृत हितकर है। ठीक उसी प्रकार भूमिलोक में मट्ठा मनुष्यों का हितकारक है।
मटठा पाँच प्रकार से बनाया जाता है (1) घोल (2) मथित (3) तक्र (4) उदश्वित और (5) लच्छिका।
(1) घोल-मलाई के सहित बिना जल डाले जो दही को मथा जाता है,ऐसे मट्ठे को घोल कहते हैं। इसमें शक्कर मिलाकर खाने से वात पित्त का नाश करता तथा आनन्द देता है।
(2) मथित- मथित और घोल में इतना ही अन्तर है कि मथित में से मलाई अलग कर देते हैं। यह कफ और पित्त का नाश करता है।
(3) तक्र- जिसमें मथते समय दही को चौथाई भाग पानी डाल दिया जाय। यह मल को रोकने वाला, कसैला, खट्टा, पाक में मधुर है और हल्का है। उष्णवीर्य (गरम) अग्नि दीपक, वीर्य, वर्धक, पुष्टिकारक और वातनाशक है।
(4) उदश्वित- जिसमें दही का आधा भाग जल मिले। यह कफ कारक बल बढ़ाने वाला और आम का नाश करता है।
(5) लच्छिका- (छाछ) जिससे मलाई निकाल ली गई हो और मथ कर वे हिसाब जल मिलाया जाय। यह शीतल, हल्का, पित्त, प्यास, और थकावट को दूर करता है। सेंधा नमक और वायुनाशक है।
अब दुग्धभेद से मट्ठे के गुणों को भी देखिये। दुग्धभेद से मट्ठा अनेक प्रकार का हो सकता है। यथा गाय, भैंस, बकरी, भेड़, घोड़ी, ऊँटनी आदि के दूध से भी मट्ठा बन सकता है परन्तु हम यहाँ केवल गाय, भैंस तथा बकरी के मट्ठे के गुणों की ही चर्चा करेंगे। गाय का मट्ठा बवासीर और उदर विकार का नाश करता है। तीनों दोषों को शान्त करता है। यह दीपन, रुचि कारक और बुद्धिवर्धक है। शरीर में बलवर्धक और हृदय को शक्ति देने वाला है। गाय का मट्ठा सब मट्ठों से विशेष गुणकारी है।
बकरी की मट्ठा- संग्रहणी, वायुगोला, बवासीर, शूल और पाँडु रोग को नष्ट करता है। यह हलका और चिकना होता है। तीनों दोषों को शान्त करता है और श्वाँस, कास में बड़ा गुणकारी है। भैंस का मट्ठा, अतिसार, बवासीर, संग्रहणी और प्लीहा नाशक है। यह कफकारी है तथा वात पित्त को शान्त करता है।
चरक में लिखा है कि तक्र दीपन, ग्राही और हलका होने के कारण ग्रहणी रोग में हितकर है। पाक में मधुर होने के कारण पित्त प्रकोष से बचाना है। मधुर, अम्ल, और चिकना होने से वायुनाशक है। कषाय और उष्ण होने से कफ में हितकर है।
प्रो. ड्यूकले और मैशिनी काफ आदि प्रसिद्ध जन्तु शास्त्र विशेषज्ञों का मत है कि मट्ठे में लैक्टिक जन्तु रहते हैं जो शरीर के विषैले कीड़ों का नाश करके हमारे शरीर के लिये विशेष उपकारी होते हैं।
ऋतुओं के अनुसार मट्ठे का सेवन निम्नलिखित वस्तुओं के साथ करना अधिक लाभदायक होता है।-
हेमन्त, शिविर और वर्षा ऋतु में मट्ठा या दही खाना उत्तम है, किन्तु शरद बसंत और ग्रीष्म में प्रायः यह हानिकारक है। दही या मट्ठा कफ कारक है। साथ ही पित्त को भी बढ़ाता है इस कारण बसन्त में हानिकारक होता है। क्योंकि इस ऋतु में तो कफ स्वयं ही बढ़ जाता है और रोग उत्पन्न करता है। ग्रीष्म ऋतु और शरद् ऋतु में पित्त कुपित हो जाता है इस कारण पित्त गुण वाला दही इन ऋतुओं में हानिकारक है। इसलिये भिन्न-भिन्न ऋतु में मट्ठा भिन्न -भिन्न प्रकार से सेवन करना चाहिये।
वर्षा ऋतु में सैंधा नमक, ग्रीष्म और शरद् में चीनी तथा शिशिर और बसन्त में सोंठ, पीपल, मिर्च और जवाखार मिलाकर मट्ठा सेवन करना चाहिये। इस प्रकार ऋतु अनुसार तक सेवन से विशेष उपकार होता है।
मट्ठे में निम्न गुण विशेष पाये जाते हैं। क्षुधा को बढ़ाता है। आँखों की पीड़ा को शान्त करता है और जीवनी शक्ति को बढ़ाता है। शरीर में माँस और रक्त की कमी को दूर करता है। आम को नष्ट करता तथा कफ और वायु को शान्त करता है।
इन्हीं गुणों को ध्यान में रखते हुए आयुर्वेद में स्वस्थ रहने के उपायों का निरूपण करते हुए लिखा है कि -
भोजनान्ते पिवेत्तक्रम्,
निशान्ते च पिबेज्जलम्।
निशा मध्ये पिवेद्दुग्धम्,
किं वैद्यस्य प्रयोजनम्।।
अर्थात्-जो मनुष्य प्रातः काल उठते हो जल पीता है और भोजन के अनन्तर मट्ठे को व्यवहार करता है तथा शयन समय में दूध पीकर सोता है। उसे कभी किसी वैद्य या डॉक्टर की आवश्यकता नहीं होती है। यानी मट्ठे में अनेकों ऐसी विशेषतायें भरी पड़ी हैं। जिनका सर्वाशतः कह देना बड़ा दुष्कर है। मट्ठे से कायाकल्प तक किया जाता है।

