दान में विवेक की आवश्यकता
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
दान लेने और देने वाले के मन में यह प्रश्न पूरी सतर्कता के साथ उपस्थित रहना चाहिए कि इस पैसे का उपयोग (1) यज्ञार्थय (2) विपद्, निवारणाय, इन दो कार्यों के अतिरिक्त और किसी तीसरे काम में तो नहीं होगा। जब यह पूर्ण निश्चय हो जाय तभी दान देना और लेना चाहिए। संसार में शारीरिक, मानसिक नैतिक, सामाजिक, आर्थिक आध्यात्मिक विभूतियों की संवृद्धि के लिए पंच पाप तापों को हटाने के लिए जो प्रयत्न होते हैं वे यज्ञ हैं और विपद् ग्रस्तों को अपने पैरों पर खड़ा कर देने के लिए एवं असमर्थों की जीवन रक्षा के लिए जो कार्य किये जाते हैं वे विपद् निवारण की श्रेणी में आते हैं। इन कार्यों में पैसा, समय, बल बुद्धि और आवश्यकता होने पर प्राण तक दे देने चाहिए। यह दान की शास्त्रीय मर्यादा है।
उपरोक्त शास्त्रीय मर्यादा के अतिरिक्त अन्य प्रयोजनों के लिए जो दान लिया या दिया जाता है वह सब प्रकार अनिष्ट कर, घातक, भयंकर परिणाम उत्पन्न करने वाला तथा पाप कर्म है। अशास्त्रीय भिक्षा-पाप, अनाचार, दुख, दुर्गुण एवं नरक की सृष्टि करती है। भिक्षा सचमुच एक लज्जा की चीज है। सर्वत्र भिक्षा माँगने को मृत्यु के समान कष्टदायक-अपमान जनक-कहा है। सचमुच अशास्त्रीय भिक्षा अत्यन्त ही गर्हित है। वह नीचता, हीनता, निर्लज्जता एवं पशुता को प्रकट करती है।
हमारे देश एवं धर्म का यह दुर्भाग्य है कि आज अशास्त्रीय भिक्षा पर जीविका निर्भर करने वाले मनुष्यों की संख्या लाखों तक पहुँच गई है, पिछली सरकारी जनगणना के अनुसार भारत वर्ष में भिखारियों की संख्या 56 लाख के लगभग पहुँच गई है। इनमें से भिक्षा के वास्तविक अधिकारी उंगलियों पर गिनने लायक निकलेंगे। लोक कल्याणकारी, जन सेवा के कार्यों में सर्वतोभावेन लगे हुए विद्वान निस्पृह ब्राह्मणों की संख्या अत्यन्त ही न्यून निकलेगी, सब कुछ त्याग कर संन्यासी होकर जनता जनार्दन की आराधना में प्रवृत्त साधु संन्यासी चिराग लेकर खोजने पड़ेंगे। आकस्मिक, घोर अनिवार्य विपत्ति से पीड़ितों एवं असमर्थ, असहाय दरिद्रों की संख्या भी बहुत ही कम निकलेगी। इन छप्पन लाख भिक्षुकों में पाँच हजार भिक्षुक भी कठिनाई से ऐसे निकलेंगे जो शास्त्रीय भिक्षा के अधिकारी हैं शेष साढ़े पचपन लाख तो ऐसे मिलेंगे जिन्होंने भिक्षा को एक लाभदायक व्यवसाय बना लिया है।
ब्रह्मणत्व के समस्त गुणों से रहित व्यक्ति भी अपने को इस आधार पर भिक्षा का अधिकारी बताते है कि हम ब्राह्मणों के वंशज हैं। यह झूठा दावा है। ब्राह्मणत्व कोई जागीर नहीं है जो पुश्त दर पुश्त विरासत में मिलती चली जाय। जो व्यक्ति ब्राह्मणत्व के गुण कर्म स्वभाव से युक्त है उसे भिक्षा जीविका करनी चाहिए पर यदि उसके बेटे में वे गुण न रहें तो उसे ब्राह्मणत्व के लिए मिलनी वाली भिक्षा ग्रहण करने का अधिकार नहीं है। इसी प्रकार संसार को मुक्ति दिलाने के प्रयत्न में अपनी मुक्ति तक को त्यागे हुए जो संन्यासी हैं वे ही अपनी सेवा के बदले में संसार से भिक्षा ले सकते हैं। जो केवल मात्र अपनी निज की मुक्ति के लिए प्रयत्नशील हैं, दुनिया को झूठा कहते हैं, लोक सेवा से दूर रहते हैं वे पक्के स्वार्थी हैं। वे अपने निज के लाभ में ही तो प्रवृत्त हैं, चाहे वह लाभ धन का हो, स्वर्ग का हो या मुक्ति का हो। जैसे धन कमाने के लिए ही सदा अपने व्यापार में प्रवृत्त कोई व्यापारी भिक्षा का अधिकारी नहीं, वैसे ही अपनी निज की मुक्ति में तल्लीन योगी संन्यासी भी भिक्षा के अधिकारी नहीं। जब संसार झूठा है तो भिक्षा भी झूठी है। जब संसार की सेवा से उपेक्षा करते हैं और अपने को उससे अलग मानते हैं तो फिर भिक्षा से भी अलग रहना चाहिए, उसकी भी उपेक्षा करनी चाहिए। भजन करना व्यक्तिगत नित्य कर्म है, स्नान, भोजन, व्यायाम की भाँति भजन भी एक अत्यन्त लाभप्रद नित्यकर्म है। भजन भी एक अत्यन्त लाभप्रद नित्यकर्म है। भजन करना किसी दूसरे पर अहसान करना नहीं है। न इसके करने से किसी को भिक्षा लेने का अधिकार मिलता है।
देखा जाता है कि धर्म के नाम पर या दीनता के नाम पर नाना प्रकार के आडम्बरों, घृणित मायाचारों से भिक्षा उपार्जन की जाती है। इन मायाचारों से जहाँ जनता का पैसा बर्बाद होता है वहाँ उसके मस्तिष्क में अन्धविश्वास, भ्रम, भय, अज्ञान एवं अविचार का विष भी प्रवेश होता है। पुरुषार्थ, प्रयत्न, कर्म और साहस को छोड़ कर लोग आकाश में से देवताओं द्वारा स्वर्ण पुष्प बरसाये जाने की आशा करने लगते हैं। अनेकों व्यक्ति अपने कार्यों में दोष ढूंढ़ कर उन्हें सुधारने की अपेक्षा दैव कोप की अनिष्ट कल्पना करके हतोत्साह हो जाते हैं। धर्म का आडम्बर करके जीविका कमाने वालों के पास विद्या-बल, विवेक, ज्ञान, अनुभव, तप आदि महत्ताएं तो होती नहीं, इनके न होने पर वे झूठा आधार ग्रहण करते हैं। अपने आपको देवताओं का प्रतिनिधि, कृपापात्र या एजेन्ट साबित करते हैं जिससे भोली जनता उन्हें देव कृपा प्राप्त करने के लिए पूजे। यह मायाचार जनता में ऐसे विषैले अन्धविश्वास पैदा करता है, जो संसार में भयंकर अनिष्ट उत्पन्न करते हैं।
गरीबी का आडम्बर बना कर भिक्षा माँगने वाले अधिकाँश ऐसे व्यक्ति होते हैं, जिनके शरीर में श्रम करने की, जीविका उपार्जन करने की पर्याप्त क्षमता होती है, वे चाहें तो मेहनत मजदूरी करके आसानी से अपना गुजारा कर सकते हैं। पर उन्हें बिना परिश्रम किये, आसानी से जब भिक्षा मिल जाती तो पसीने बहाने के लिए क्यों तैयार हों? वे गरीबी के, बीमारी के, विपत्ति के झूठे बहाने बनाकर भिक्षा माँगते रहते हैं। कुछ अत्यन्त घृणित कोटि के भिक्षुक तो अधिक जीविका कमाने के लिए बड़े लोमहर्षक कार्य करते हैं। वे अपने शरीर में स्वेच्छापूर्वक घाव बनाते हैं, घावों को अच्छा नहीं होने देते, अपने बालकों के नेत्र हाथ, पैर, आदि तोड़ देते हैं, इस घृणित काम को वे इसलिए करते हैं कि दर्शक लोग दया द्रवित होकर उन्हें अधिक पैसा दें। गायों या बछड़ों को पाँच पैर का या अधिक अंग का बनाने के लिए कसाइयों द्वारा कलम लगवाई जाती है। एक बछड़े का पैर काट कर और दूसरे बछड़े की पीठ का माँस काट कर इन दोनों को कसाई लोग सी देते हैं। जब तक वह घाव अच्छा नहीं होता तब तक बछड़े को इस प्रकार जकड़ा रहने देते है कि वह जरा भी हिल न सकें। जब जुड़ जाता है तो इसे शिवजी का वाहन नन्दी बता कर भिखारी लोग भीख माँगते है। बहुत से बछड़ों के पैर की जगह माँस का लोथड़ा भी जोड़ देते हैं। इस क्रिया में एक बछड़ा तो आरम्भ में ही मार डाला जाता है, दूसरा जिसमें कलम लगाई गयी थी या तो मर जाता है या बड़ी मुश्किल से मृत्यु तुल्य कष्ट सह कर जी पाता है। ऐसे निर्दय हिंसा पूर्ण कार्य करते हुए उन्हें तनिक भी दया नहीं आती। धर्म जीवी भिक्षुकों में से भी अनेक ऐसे ही निर्दय हो जाते हैं। देवी-भैरव, भवानी, पीर, मसान आदि के नाम पर बकरा, भेड़ों, भैंसा, मुर्गा आदि पशु पक्षियों का गला काटते और कटवाते हैं।
अशास्त्रीय भिक्षा, पाप रूप है। ऐसा अन्न खाने वालों के रोम रोम में दुर्गुणों का समावेश हो जाता है। वे झूठ, चोरी, छल, व्यभिचार, मद्यपान, नशेबाजी, ढोंग, पाखण्ड, आलस्य, प्रभाव, हिंसा असहिष्णुता, अनुदारता आदि असंख्यों दोषों से ग्रसित हो जाते है। स्वाभिमान एवं स्वावलम्बन नष्ट होने के साथ साथ आत्मा की भव्य ज्योति झुक जाती है और उनसे मन मरघट में पैशाचिक कुविचार नंगा नृत्य करने लगते हैं। अशास्त्रीय भिक्षा का अन्न सद्बुद्धि पर बड़ा घातक आक्रमण करता है और ऐसा अन्न, खाने वाले को तो शीघ्र ही एक घृणित दयनीय नारकीय प्राणी के रूप में परिणत कर देता है। ऐसे प्राणियों की वृद्धि होना किसी भी देश या जाति के लिए एक भारी खतरा है क्योंकि वे प्राणी संक्रामक रोगों के कीटाणुओं की भाँति जहाँ भी फिरते हैं वहीं अनिष्ट उत्पन्न करते हैं।
सच्चे यज्ञार्थी भिक्षकों की अभिवृद्धि किसी भी समाज के लिए गौरव की बात है। त्यागी, परोपकारी, विद्वान, विशेषज्ञ, अपने सम्पूर्ण निजी स्वार्थों को तिलाँजलि देकर जन कल्याण के कार्य में जुटे रहें यह बड़ा ही ऊँचा आदर्श है। जहाँ थोड़ी सी योग्यता वाले मनुष्य अपनी योग्यता के बदले में प्रचुर धन कमा कर ऐश्वर्यवान् बन जाते हैं। वहाँ महान तप योग्यताओं को जनता जनार्दन के चरणों में अर्पित करके केवल मात्र भिक्षा के दानों पर निर्वाह करना दैवी त्याग है, ऐसे त्यागियों की वृद्धि होना गौरव की बात है। परन्तु खेद पूर्वक कहना पड़ता है कि ऐसे भिक्षा जीवी अब प्रायः विलुप्त हो चले हैं। अब तो व्यवसायी लोग इस यज्ञ सामग्री की भिक्षा की-लूट कर रहे हैं। यह शर्म की, कलंक की और दुःख की बात है।
भिक्षा वृत्ति का सदुपयोग हो सच्चे भिक्षुओं का हक, चोर लुटेरे न लूटने पावें इसके लिए भिक्षा देने वालों की जिम्मेदारी अब बहुत बढ़ गई है। उन्हें देखना चाहिए कि माँगने वाला यज्ञार्थाय या विपद् वारणाय ही माँगता है न? यदि इन दोनों में से कोई प्रयोजन न हो और वह मुफ्त माल पाने की वृत्ति से माँग रहा हो तो उसे एक तिनका भी देने से मनाकर देना चाहिए अविवेकपूर्वक, कुपात्रों को दिया हुआ दान, उस दान दाता को नरक में ले जाता है क्योंकि उन निठल्ले भिक्षुओं द्वारा फैलने वाली अनैतिकता का उत्तरदायित्व उन अविवेकी दानदाताओं पर ही पड़ता है। यदि उन्हें भिक्षा न मिले तो सीधे रास्ते पर आने के लिए स्वयं ही मजबूर होंगे परन्तु यदि अविवेकी दाता उनका घड़ा भरते रहेंगे तो उनके सुधारने की, सीधे रास्ते पर आने की कोई आशा नहीं करनी चाहिए।
दान में विवेक आवश्यक है। जो दान के अधिकारी हैं उन्हें जी खोलकर मुक्त हस्त होकर देना चाहिए। संसार में सात्विकता, सद्भावना, ज्ञान विवेक तथा सुख शान्ति बढ़ाने के लिए एवं विपत्ति ग्रस्तों को संकट से बचाने के लिए हर समय सहायता दी जानी चाहिए। शरीर से, बुद्धि से, पैसे से, यहाँ तक कि प्राण देकर विश्व के कष्ट मिटाने और सुख बढ़ाने के लिए प्रयत्न करना चाहिए। सच्चे ब्राह्मणों को, सच्चे साधुओं को, सच्चे ब्रह्म साधकों को, सच्ची संस्थाओं को ढूंढ़ कर उन्हें भिक्षा देनी चाहिये उनके पुष्ट होने से धर्म की, वैभव की, सुख शान्ति की पुष्टि होती है। विपद् ग्रस्तों को उठाकर छाती से लगाना चाहिए। परन्तु सावधान गौ का ग्रास शृंगाल न छीनने पावें, भिक्षा का हवन शाकल्य यज्ञ कुँड में पड़ने की जगह अपवित्र नाली में न बह जाय। यज्ञार्थाय और विपद् वारणाय प्रयुक्त न होकर वही आपका दान कुपात्रों द्वारा न लूट लिया जाय।
----***----

