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Magazine - Year 1950 - Version 2

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आत्मोन्नति के लिए परमार्थ की आवश्यकता।

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आत्मा को समुन्नत, सुविकसित बनाना, मानव जीवन का महत्वपूर्ण उद्देश्य है। कारण यह है कि निरन्तर सताते रहने वाले विविध प्रकार के अभाव, दुख, शोक, पाप, ताप, आत्मोन्नति के बिना मिट नहीं सकते। यदि सांसारिक और मानसिक क्षेत्र में सुख-शान्ति प्राप्त करनी है तो एक मात्र उपाय यही है कि आत्म-ज्ञान की, आत्म बल की अभिवृद्धि की जाय। महान बनने का, आनन्द के चरम लक्ष्य तक पहुँचने का और कोई मार्ग नहीं है।

आत्मोन्नति एकाँगी नहीं होती, केवल एक से ही वह पूरी नहीं हो सकती वरन् तत्संबन्धी सभी उपकरण जुटाने पड़ते हैं। पहलवान का इच्छुक व्यक्ति केवल मात्र व्यायाम पर जुटा रहे और पौष्टिक भोजन, तेल, मालिश, ब्रह्मचर्य, विश्राम आदि की उपेक्षा करे तो उसका सफल होना कठिन है। यदि दीवार ही बिनते जायं और पटाव, किवाड़, छत, फर्श आदि बनाने की ओर ध्यान न दिया जाय तो मकान बनकर तैयार नहीं हो सकता। डॉक्टर बनने का इच्छुक यदि व्यक्ति दवाएं बनाने में ही दिन-रात लगा रहे, और निदान परिचर्या, चीरफाड़, निघंटु आदि को व्यर्थ समझ कर उनसे विमुख रहे तो उसका सफल डॉक्टर बनना असंभव है। आत्मोन्नति के सुव्यवस्थित साधनों के संबंध में आध्यात्म विद्या के तत्वदर्शी आचार्य सदा से सावधान रहे हैं। उन्होंने अपने शिष्यों की सर्वांगीण उन्नति पर सदा से ही पूरा पूरा ध्यान रखा है और इस संबंध में बड़े नियमों प्रतिबंधों एवं उत्तरदायित्वों का शास्त्रों में अनेक प्रकार का वर्णन किया है। व्यवहारिक जीवन उदारता, कृतज्ञता, प्रत्युपकार, लोक सेवा एवं स्वार्थ त्याग से ओत-प्रोत आचरणों का अधिकाधिक अवसर आना उन अवसरों पर अपना उत्तरदायित्व सफलतापूर्वक पूरा किया जाना प्रत्येक साधके के लिए अत्यन्त आवश्यक है। इस प्रकार के आचरणों को “भूमि निर्माण” कहते हैं। अच्छी उपजाऊ, नरम, भली प्रकार जोती हुई जमीन में ही बीज बोने पर अच्छी फसल पैदा होती है। उपरोक्त प्रकार के आचरणों के अधिकाधिक अवसरों को बुलाना और उनके संबंध में अपना उत्तरदायित्व अधिक से अधिक तत्परता से पूरा करना यही आत्मिक भूमिका का निर्माण है। ऐसी भूमि में ही साधना के बीज जमते हैं और जीवन मुक्ति एवं परमानंद की कल्याणकारिणी फसल उपजती है।

मनुष्य में दैवी तत्वों की अपेक्षा साधारणतः पाशविक तत्वों की ही अधिकता होती है। इसलिए वह स्वयं दूसरों से अधिक लाभ उठाने और स्वयं दूसरों के लिए कुछ न करने की इच्छा रखता है। उसके अधिकाँश कार्य इसी दृष्टिकोण से होते है। अपनी कठिनाईयों दूर करने और समृद्धियों को बढ़ाने में वह दैवी तत्वों की सहायता चाहता है पर उन तत्वों के पोषण के लिए कुछ नहीं करना चाहता। इस पशुवृत्ति को गीता में भगवान कृष्ण ने बड़ी कड़ाई और सख्ती के साथ आड़े हाथों लिया है। ‘पहले दो, तब मिलेगा, के सिद्धान्त का वज्र समर्थन करते हुए गीता में कहा है कि -

सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः।

अनेन प्रसविष्यध्वमेष वो ऽस्तिवष्ट कामधुक्॥

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।

परस्परं भावयन्तः श्रेयः परम वाप्स्य थ॥

इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञ भाविताः।

तैर्दत्तान प्रदायैभ्यों यों भुँक्ते स्तेन एव सः॥

गीता 3/10/13/32

अर्थात्-भगवान ने मनुष्य के साथ-साथ देवी तत्व को भी उत्पन्न किया और घोषणा की कि इसके द्वारा तुम लोग उन्नति करोगे एवं अपनी सब मनोकामनाओं को पूर्ण करोगे। परन्तु स्मरण रखो इस देवी तत्व की उन्नति तुम्हें भी करनी है। तभी वह तुम्हारी सहायता करेगी। प्रत्युपकार के आधार पर ही कल्याण हो सकता है। जब मनुष्य देवत्व का पोषण करेंगे तब वे बदले में इष्ट योग प्रदान करेंगे। जो प्रत्युपकार से बचना चाहता है और दैवी सहायता की याचना करता है वह पक्का चोर है।

इससे आगे के श्लोकों में भी भगवान ने इस संबंध में और अधिक स्पष्टीकरण किया है वे कहते हैं, जैसे यज्ञ से वर्षा से अन्न उत्पन्न होता है। अन्न से प्राणियों के जीवन में स्थिरता होती है। वैसे ही दैवी तत्व (यज्ञ) के फलस्वरूप ही आत्मकल्याण हो सकता है। अपनी शक्तियाँ दैवत्व के पोषण में खर्च करो, बदले में जो मिले उसमें संतोष करो तो तुम सब पापों से छूट जाओगे। यदि अपने ही मतलब की फिराक में फिरोगे तो पाप खाओगे।

भगवान के उपरोक्त अभिवचनों में यह स्पष्ट कर दिया गया है कि पहले, किस ओर से होनी चाहिए। न तो मुफ्त में लेने की व्यवस्था है और न अमुक लाभ मिलने के उपरान्त अमुक बदला चुका देने वाली शर्त ही। सिद्ध बाबा को चरण स्पर्श मात्र से प्रसन्न करके अष्ट सिद्ध, नव निद्धि प्राप्त कर लेने की इच्छा करने वाले मुफ्त खोरों और “बेटा हो जाय तो नारियल चढ़ाने” की शर्त रखने वाले मुनाफाखोरों को गीता ने बुरी तरह लताड़ दिया है। ऐसे लोगों को अध्यात्मिक भाषा में “अनाधिकारी” कहते हैं। अनाधिकारी का तात्पर्य है स्वार्थी, अनुदान, अविश्वासी, अश्रद्धालु ऐसे लोगों के हाथ में यदि दैवी शक्ति चली जाय तो वे उसके द्वारा संसार में केवल अनर्थ ही उत्पन्न कर सकते हैं। इसलिए सृष्टि के आदि से ही यह सावधानी बरती जाती रही है कि अनाधिकारी लोगों के हाथ में ब्रह्म शक्ति न जाने पाये।

आत्मोन्नति की शिक्षा देने के साथ-साथ ऋषियों ने यह बराबर ध्यान रखा है कि अधिकारी बनते जावें उनकी पात्रता में अभिवृद्धि होती जावे। पात्रता और साधना इन दोनों पहियों को साथ-साथ बराबर रखने में धैर्य और सावधानी से काम लेते रहे हैं। जितनी पात्रता बढ़े उतनी ही साधना का स्तर ऊंचा उठाया जाता है। कुपात्रों को अति ऊँचे स्तर की साधना बताकर आध्यात्मिक असंतुलन उत्पन्न कर देने का परिणाम किसी के लिए भी अच्छा नहीं हो सकता।

प्राचीन इतिहास पर दृष्टिपात करने से ऐसा प्रतीत होता है कि आत्म-ज्ञान के शिक्षकों ने अपने छात्रों को परम उपयोगी अमृतमयी शिक्षा देने के साथ-साथ उनके सद्गुणों का विकास करने वाले कष्ट साध्य अवसर उत्पन्न करने में कभी झिझक नहीं की है। क्योंकि देवत्व का पोषण करके तब दिव्य लाभ प्राप्त करने की सनातन नीति का अवलम्बन किये बिना वे सफल हो नहीं सकते थे इसलिए वे कष्ट उनके लिए आवश्यक हैं। उद्दालक, धौम्य, अरुणि, उपमन्यु, कच, श्लीमुख, जरुत्कार, नचिकेता, शैण, विरोचन, जाबालि, सुमनस, अम्बरीष आदि अनेक शिष्यों की कथाएं सर्वविदित हैं, उन्होंने अपने गुरुओं के आदेशानुसार बड़े-बड़े कष्ट सहे और बताये हुए कार्यों को पूरा किया। दशरथ का अपने प्राणप्रिय बच्चों का दे देना, हरिश्चंद्र का असाधारण कष्ट सहना, मोरध्वज का अनोखा-आदर्श उपस्थित करना, गुरुओं के आदेशानुसार ही हुआ था। स्थूल दृष्टि से यह कार्य उनके गुरुओं की हृदयहीनता के परिचायक कहे जा सकते हैं पर सच्ची बात यह है कि उन कष्टसाध्य परीक्षाओं ने ही काल के चबेना, तुच्छ मानव प्राणियों को इतना महान बनाया था। इन कष्टों से वे एक अवज्ञा मात्र से ही आसानी से बच सकते थे पर वे ऐश आराम से दिन काटते हुए मर जाने वाले असंख्य कीट पतंगों की तरह विस्मृति के अंधकार में लुप्त हो जाते और चौरासी के चक्र में घूमते रहते। उन गुरुओं की हृदयहीनता में कितनी अपार दया भरी थी इसका अनुमान लगाना कठिन है।

राजा दलीप संतान रहित थे। गुरु के आश्रम में गये कि प्रभो, हमारा वंश डूबने से बचाया जाना चाहिए। वशिष्ठ जी ने आज्ञा दी दैवी सहायता प्राप्त करने के लिए दैवत्व का पोषण आवश्यक है। रानी सहित यहाँ आकर रहो और हमारी गौएं चराने के लिए ग्वाले का काम करो। दिलीप जानते थे कि स्वार्थपरता को बनी हुई सूक्ष्म मानसिक ग्रंथियां ही जीवन में अभाव और दुख उत्पन्न करती हैं उन ग्रन्थियों का शमन त्याग उदारता और परमार्थ का आचरण करने से ही हो सकता है। उन्होंने ऋषि की आज्ञा में अपना परम कल्याण समझा और राजपाट छोड़कर गौएं चराने लगे, एक दिन तो सिंह से गौ बचाने के लिए उन्हें अपना प्राण तक समाप्त करने का साहस दिखाना पड़ा। ऐसे ही साहसों से वे मनः ग्रन्थियाँ, संस्कार पिडिकाएं फूटती हैं जो संतान न होने से अभावों का मूल कारण होती हैं।

दलीप ने यथा समय संतान पाई। कोई आज का आध्यात्मिक साधक होता तो वशिष्ठ जी की चापलूसी करने में सारी चालाकी खर्चा कर देता पर त्याग के नाम पर घंटे भर का समय या कानी-कौड़ी का नुकसान उठाने को भी तैयार न होता। वह सीधी उंगली घी न निकलते देखता तो डराता, धमकाता, यजमान न रहने की धौंस जमाता, निन्दा करता या फिर यह शर्त पेश करता कि मेरा बेटा हो जाएगा तो उसके ब्याह में आपको कुछ न कुछ दक्षिणा अवश्य दूँगा। इस प्रकार के व्यक्ति दैवी सहायताओं तक कितने लाभान्वित हो सकते हैं इस संबंध में कुछ कहा नहीं जा सकता।

मनुष्य में पशुता, स्वार्थपरता अधिक होने के कारण, सद्गुरु इस बात के लिए प्रयत्नशील रहते हैं कि शिष्य को परमार्थ के लिए प्रेरित करने में अपने व्यक्तिगत प्रभाव का भी उपयोग किया जाय। त्याग और उदारता का छोटा सा बोझ भी नहीं उठाना चाहता धीरे-धीरे करके उसे कुछ न कुछ करने को अवश्य तत्पर किया जाय सभी जानते है कि अपरिग्रही ब्रह्मपरायण एवं अपनी आत्मशक्ति से संसार पर शासन करने वाले ऋषिकल्प ब्रह्मवेत्ता का भोजन उसकी झोंपड़ी पर पहुँच सकता है। पर वे इसे पसंद नहीं करते वरन् लोगों के घरों पर जाकर भिक्षा माँगते थे ताकि लोगों को अपनी दानवृत्ति चरितार्थ करने का अवसर मिले। गुरुदक्षिणा के नाम पर भी लोग अधिक से अधिक त्याग करते थे। निर्लोभ ऋषियों को स्वर्ण और मिट्टी बराबर है वे प्राप्त धन को चिकित्सा, यज्ञ, विद्याध्ययन आदि लोकहित के कार्यों में ही खर्च करते थे उनकी व्यक्तिगत आवश्यकताएं इतनी स्वल्प थी कि उसके लिए किसी के धन या दान की आवश्यकता नहीं पड़ती। दान का धन तो अमानत है जिसे सत्पुरुष एक हाथ से लेकर दूसरे हाथ से खर्च कर देते हैं। आज भिक्षा की पुण्य परम्परा अत्यन्त ही दूषित हो गई है। कुपात्र एवं हरामखाऊ लोगों ने इसे अपना व्यवसाय बना लिया है। ऐसे लोगों को दान देते समय बहुत सोच विचार करने की आवश्यकता है। वस्तुतः भिक्षा का मूल उद्देश्य अत्यन्त पवित्र था। जो स्वेच्छा से नहीं देना चाहता उसे कोई अवसर उपस्थित करने के लिए तत्पर करना यह भी तो आत्मोन्नति की एक साधना कराने का ही प्रयत्न है।

राम-लक्ष्मण की ही भाँति दान पुन्य की जोड़ी है। हिन्दू धर्म में कोई भी शुभकर्म, धार्मिक कृत्य ऐसा नहीं है जिसके साथ-साथ परमार्थ का प्रत्यक्ष उदाहरण उपस्थित न करना पड़ता हो। ब्राह्मण भोजन, गौ, अन्न, वस्त्र, पुस्तक आदि का दान प्रसाद वितरण आदि का किसी न किसी अंश में त्याग करना अनिवार्य माना गया है। कहा है कि बिना दक्षिणा का यज्ञ निष्फल होता है। कारण यही है कि साधनाओं का आध्यात्मिक व्यायाम करने के साथ साधक अपनी मनोभूमि को उपजाऊ बनाने के लिए देवत्व के पोषण के लिए उदारता एवं परमार्थ का अभ्यास डालने के लिए कुछ क्रियात्मक कार्य भी करता चले, इस कार्य प्रणाली को अपनाने से साधना में प्रगति द्विगुणित वेग से होती है। पात्रता तेजी से बढ़ती है फलस्वरूप आत्मकल्याण के आनन्दमय लक्ष्य को प्राप्त करना सुलभ हो जाता है। हमारी साधना उभयपक्षीय चलनी चाहिए। जप, व्रत, उपवास, ध्यान, पूजा, अर्चना, वन्दना हम नित्य श्रद्धा और भक्ति पूर्वक करें, साथ ही अपनी उदारता, कृतज्ञता, प्रत्युपकार, त्याग, परमार्थ एवं देवत्व के पोषण की भावना को समुन्नत करने के लिए भी कुछ न कुछ अवश्य करते रहें।

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