
रोगों का नामकरण तथा भेद
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(डॉ. लक्ष्मीनारायण टंडन ‘प्रेमी’ एम.ए. एन.डी.)
संसार में रोगों का नाम भी भगवान के नामों की भाँति अनन्त हैं, किन्तु जैसे वास्तव में भगवान एक ही है। उसी प्रकार से रोगों का प्रमुख कारण तथा रोग एक ही है। विजातीय पदार्थों का भिन्न-भिन्न स्थानों में विभिन्न अवस्थाओं में, भिन्न-भिन्न मात्राओं में एकत्रित होना ही रोगों के विभिन्न नामों का कारण है। हमारे शरीर में मल, बलगम, श्लेष्मा, साँस आदि सब यहाँ विजातीय पदार्थ या विष हैं।
सब रोगों की जड़ पेट है यदि भोजन ठीक से हजम हो, उसका ठीक से रस, रुधिर, माँस, मज्जा, वीर्य, हड्डी आदि बने, व्यर्थ निस्सार भाग ठीक से नित्य पैखाने के रूप में निकल जाय तो फिर रोगी कैसा? पर ऐसा प्रायः नहीं होता, इसी से मलाधिकता के कारण गठिया, दर्द, क्षय, कैन्सर, फोड़ा, फुँसी, ज्वर, दमा, खाँसी आदि अनेक रोग होते हैं। इन रोगों को साधारणतया हम तीन भागों में विभाजित कर सकते हैं।
यह समझ कर कि हर रोग का कारण कब्ज है तथा जिस स्थान पर अधिक ‘मल’ एकत्रित हो जाता है वहीं विशेष रोग-चिन्ह प्रकट होते हैं, मल ही रोग का कोई नामकरण हो, अब हम यह समझने का प्रयत्न करेंगे कि कब्ज से ही सब रोग कैसे हो जाते हैं। यह जानकर हमें आश्चर्य है कि प्रत्येक मनुष्य 9-10 पौंड मल सदा अपनी आँतों में चिपकाये फिरता है जो खाये भोजनों के रसों और खून में जहरीला असर डालता है। दिव्य भोजन भी विष युक्त होकर अपना असली प्रभाव नहीं डाल पाता। अप्राकृतिक भोजनों से बचपन से मल जमा होता रहता है। शरीर से मल और रोगों के हटाने के प्रयत्न को ही रोग कहते हैं। एक डॉक्टर ने सत्य कहा है ‘मुझे ज्वर दे दो और मैं सब रोगों को भगा दूँगा।’ याद ना रहे हमें ‘रोग‘ को ठीक करना नहीं है, वरन् ‘शरीर’ को ठीक करना है। हमें जड़ काटना है, डालियाँ नहीं, अन्यथा आज की कटी डाली कल फिर निकल सकती है। वर्तमान सभ्यता और भोजन पकाने की कला के फेर में खाद्य-सामग्री ठीक से हजम होती ही नहीं और विजातीय पदार्थों से आँत ढकी रहती हैं अतः अक्सर तो वह भोजन के रस को भी ठीक से शोषण करने में असमर्थ होती है।
शरीर में श्लेष्मा तथा उसके विष के अतिरिक्त यूरिक एसिड, टाकसिन्स तथा खाई हुई दवाइयाँ भी रहती हैं। भोजनों के कुछ अस्वाभाविक अंश तथा दवाइयाँ कभी शरीर से नहीं निकलती और जमा होती रहती है। प्रत्येक स्वस्थ कहे जाने वाले या समझे जाने वाले व्यक्ति में यह भोजनों का व्यर्थ भाग विष तथा दवाइयाँ होती हैं। यह उसका छिपा तथा अप्रकट रोग है। इसे हम गुप्त रोग या रोग का बीज कह सकते हैं।
जब कभी यह एकत्रित विष आदि ज्वर, जुकाम या अन्य ढंगों से प्रकृति जीवन की रक्षा और शरीर की शुद्धि के लिए निकालने लगती है हम उसे ‘तीव्र रोग‘ कहते हैं।
पर हम प्रायः दवायें खाकर प्रकृति के इस निकालने के काम को रोक देते हैं। इसके कारण प्रकृति की चिपों आदि को निकाल फेंकने की शक्ति और योग्यता का ह्रास होता है। यदा-कदा दर्द, ज्वर आदि इसके चिन्ह है। ऐसी दशा में जब प्रकृति खुलकर योग्यतापूर्वक अपना काम नहीं कर पाती तो हम उसे “मन्द रोग“ कहते हैं।
जब मलभारों की, ताप, श्लेष्मा, विष आदि पराकाष्ठा हो जाती है और उनके प्रभाव से शरीर के अंग विकृत होने या नाश होने लगते हैं तथा क्षय या कैन्सर आदि होता है तो हम उसे “नाशात्मक रोग“ कहते है।
इस प्रकार से हमने देखा कि हमारे शरीर के अन्दर के विष ही हमारे रोग और अस्वास्थ्य का कारण हैं। रोग बाहर से हमारे अंदर नहीं घुसते। पहले जमाने में लोग रोगों का कारण भूत-प्रेम समझते थे और आज कल डॉक्टर लोग कीटाणुओं के सिद्धाँतों पर ही विश्वास करते हैं जो असत्य है। यदि हमारा शरीर विजातीय द्रव्यों से युक्त है तो बाहरी कीटाणुओं को पनपने का अवसर न मिलेगा। किसी पूर्ण स्वस्थ मनुष्य को हैजे, प्लेग या क्षय के कीड़े आप पिला दें तो उसका कुछ भी न होगा। पत्थर पर बीज डाल दो या बक्से में बंद कर दो तो उसका होना न होना बराबर है। बीज तो तभी उगेगा जब उसे उपजाऊ भूमि, खाद तथा पानी मिलेगा! न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी। हम भोजनों द्वारा न विजातीय पदार्थ एकत्रित होने दें, और एकत्रित मलों तथा विषों को खान-पान में संयम करके, फल और शाकों को खाकर, एनेमा लेकर, स्वाभाविक रहन-सहन अपनाकर आदि प्रयत्नों से निकाल फेंके तो कीटाणु हमारा कुछ न कर सकेंगे।