• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • VigyapanSuchana
    • तेरा स्वरूप
    • तेरा स्वरूप (Kavita)
    • नारी का समुचित सम्मान
    • Quotation
    • शास्त्र क्या है?
    • सत्य और असत्य के परिणाम
    • चित्त को सत् में ही लगाओ।
    • विचारों की अद्भुत शक्ति
    • Quotation
    • पुस्तक कैसे पढ़ें?
    • Quotation
    • सुख कैसे प्राप्त करें?
    • तपश्चर्या का उद्देश्य
    • भस्रिका प्राणायाम
    • दीर्घ जीवन का रहस्य
    • VigyapanSuchana
    • गायत्री-उपनिषद्
    • नारी की महानता
    • नारी की महानता (Kavita)
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Magazine - Year 1952 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT SCAN


तपश्चर्या का उद्देश्य

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 13 15 Last
यों स्वाध्याय,सत्संग, कथा, कीर्तन,दान, पुण्य, होम, यज्ञ, पूजा, अर्चा आदि सभी धार्मिक कृत्यों का अपना-अपना महत्व और लाभ है। इन सभी से आत्मिक उन्नति, पवित्रता, एवं पुण्य परमार्थ की वृद्धि होती है पर “आत्म शक्ति” की वृद्धि का प्रयोजन ‘तप’ के अतिरिक्त और किसी मार्ग से पूरा नहीं हो सकता। घर्षण से उष्णता पैदा होती है, जहाँ अग्नि न होगी वहाँ गर्मी भी न होगी। इसी प्रकार आत्मशक्ति वहीं मिलेगी जहाँ तपस्या का आधार होगा। विलासी मनुष्य, विद्वान और उपदेशक तो हो सकता है पर उनका अन्तस्तल खोखला होता है, इसलिये उनकी निष्प्राण विद्वता एवं वाचालता न उनके अपने लिए कुछ लाभदायक होती है और न दूसरों के लिए। पहलवान बनने के लिए कसरत करने का कष्ट सहना पड़ता है, आत्म बल प्राप्त करने के लिए भी तपस्या की अग्नि में अपने को तपाना पड़ता है।

आत्म बल एक प्रकार की सम्पत्ति है जिसके बदले में भौतिक और आत्मिक दोनों ही प्रकार के लाभ प्राप्त किये जा सकते हैं। अपना या दूसरों का हित साधन किया जा सकता है। पूर्व काल में तपस्वियों में अनेक प्रकार की चमत्कारी विशेषताएँ होने के प्रमाण और उदाहरण पुराणों में भरे पड़े हैं। आज तप की ओर लोगों का ध्यान नहीं है। आराम पसन्द स्वभाव हो जाने के कारण लोग कष्ट साध्य मार्ग पर चलना पसन्द नहीं करते। तत्क्षण लाभ लोगों का उद्देश्य हो रहा है। चाहे कुमार्ग से ही हो पर तुरन्त और अधिक होना चाहिए। देर तक जिस कार्य के लिए प्रतीक्षा करनी पड़े और आरम्भ में ही जिसके लिए कठिनाई उठानी पड़े उसे पसन्द करने की अभिरुचि लोगों में नहीं है। यही कारण है कि आज तप की प्रवृत्ति बहुत कम दिखाई पड़ती है। कोई साधु-सन्त एकान्त स्थान में भले ही तपस्या करते हों पर सर्व साधारण के नित्य प्रति के व्यवहारिक जीवन में तपश्चर्या के लिए स्थान नहीं रह गया है। उपार्जन और विलास, काँचन और कामिनी के अतिरिक्त और किसी बात की ओर लोगों का ध्यान नहीं जाता।

जन प्रवृत्ति अनुकूल हो चाहे प्रतिकूल पर सत्य तो सदा सत्य ही रहता है। आजकल बहुत कम लोग सच बोलते हैं, कोई विरले ही ब्रह्मचारी रहते हैं, अधिकाँश लोग असत्यवादी और विलासी हैं फिर भी सत्य और ब्रह्मचर्य की महिमा और महानता वैसी ही है जैसी कि सदा से थी। तप से जिस प्रकार पूर्व काल के लोगों का आत्मकल्याण होता था वैसा ही आज भी होता है और आगे हो सकता है।

हाँ, एक बात अवश्य है कि युग परिवर्तन के प्रभाव से वस्तुओं, प्राणियों तत्वों तथा परिस्थितियों में जो अन्तर आ गया है उसके अनुरूप तप के बाह्य परिणामों में भी परिवर्तन होना स्वाभाविक है। प्राचीन काल में तपस्वियों में जो बाह्य विशेषताएँ सहज ही उत्पन्न हो जाती थीं वे अब नहीं होती। सतयुग में आकाश तत्व प्रधान था अन्य तत्व बहुत ही अविकसित थे। जीवों के शरीर भी आकाश तत्वों से भरे पूरे थे, उस जमाने में थोड़ी सी ही साधना से ‘ईश्वर’ तत्व पर अधिकार हो जाता था और लोग सहज ही आकाश में उड़ना, लोक-लोकाँतरों की यात्रा, दूर दृष्टि, दूर श्रवण दूरस्थ लोगों से बातचीत, आदि सिद्धियाँ प्राप्त कर लेते थे। आकाश का गुण शब्द है। उस समय शब्द ही एक प्रचण्ड शक्ति था। मन्त्र बल से बड़े-बड़े काम होते थे। विमान, अस्त्र, शस्त्र, वर्षा, अग्निकाण्ड, शाप, वरदान जीवन दान, मृत्यु आदि बातें शब्द की (मन्त्र) की शक्ति से सुगमता पूर्वक होती रहती थी।

पीछे त्रेता युग आया। उसमें अग्नि तत्व प्रधान था। लोगों के शरीर अग्नि प्रधान होते थे। सीता जी का अग्नि में प्रवेश कर जाना, साध्वी स्त्रियों का अग्नि परीक्षा देना, महात्मा योगाग्नि में अपने शरीर को भस्म कर देते थे। पति का स्वर्गवास हो जाने पर स्त्रियाँ संकल्प मात्र से अग्नि उत्पन्न कर लेती थी और बिना किसी पीड़ा के उनके अग्नि तत्व प्रधान शरीर नष्ट हो जाते थे। यज्ञों में भी अग्नि मन्त्र बल से ही प्रकट हो जाती थी।

द्वापर में वायु प्रधान युग था। शरीर और वस्तुएं बड़ी हलकी होती थीं। इसलिए उनकी गति तीव्र थी। एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचने में देर नहीं लगती थी। भारी-भारी बोझ भी आसानी से उठा लिए जाते थे। महाभारत में ऐसी अनेक घटनाओं का वर्णन है जो आज असंभव दिखाई पड़ती हैं। वायु के आधार पर मनुष्य दीर्घ काल तक बिना अन्न जल सेवन किये जीवित रह जाते थे। पवन पुत्र हनुमान जी जैसे अनेक व्यक्ति वायु प्रधान गुण वाले थे। त्रेता की अपेक्षा द्वापर में उनकी संख्या अधिक रही है। उड़ने वाले घोड़ों की भी एक जाति उस समय मौजूद थी।

वर्तमान युग में जल और पृथ्वी तत्व की प्रधानता है। जल में कोमलता और पृथ्वी में जड़ता अधिक है। जैसे कोमल पौधे बिना जल के जल्दी ही सूख जाते हैं वैसे ही लोग थोड़ी सी आपत्ति आने पर मुर्झा जाते हैं। जड़ता का आलस्य-प्रमाद अदूरदर्शिता, अज्ञान का अंश देह में अधिक भरा रहता है। इसलिए जो बातें पूर्व युगों में बहुत साधारण थीं वे आज के युग में कष्ट साध्य एवं असंभव हैं। इसलिए पूर्व युगों का अनुकरण इस युग में नहीं किया जाता। स्त्री का पति के साथ जलना इस युग में वर्जित है क्योंकि अब न तो संकल्प मात्र से अग्नि प्रकट होती है और न बिना पीड़ा के शरीर जल सकता है। पिछले युग में इष्ट देव के प्रत्यक्ष दर्शन करने लायक जो दिव्य दृष्टि हर किसी में आसानी से उत्पन्न हो जाती थी वह अब सुसाध्याय नहीं रहीं। इसलिए अब किसी को इष्ट देव की प्रत्यक्ष झाँकी नहीं हो सकती। सूरदास को ग्वाल बन कर और तुलसीदास की घुड़सवार बनकर अप्रत्यक्ष दर्शन हुए थे। जब ऐसे महात्मा प्रत्यक्ष दर्शन से वंचित रहे तो साधारण साधकों की तो गणना ही क्या है।

कई तपस्वी, अपनी तपस्या का कोई चमत्कारी परिणाम सामने आते नहीं देखते तो निराश हो जाते हैं। वे सोचते हैं कि पूर्वकाल के तपस्वियों की भाँति जब उनमें कोई, विलक्षण चमत्कारी विशेषताएं उत्पन्न हों तो वे अपनी साधना को सफल समझें। इस प्रकार अधिकाँश प्रचंड साधक भी अपने को असफल समझने लगते हैं तो साधारण साधकों की निराशा के बारे में तो कोई आश्चर्य की बात है ही नहीं।

तपश्चर्या के मार्ग पर चलने वालों को युग प्रभाव उत्पन्न देश, काल, वस्तु और व्यक्ति की मर्यादाओं को समझना चाहिए। एक समय युग प्रभाव के कारण जो बातें बालकों के हँसी खेल के समान अत्यन्त साधारण थीं और जिन्हें हर कोई थोड़ी सी साधना से प्राप्त कर लेता था वे आज के लिए असम्भव हैं। जो बातें आज बड़ी भारी सिद्धियाँ मालूम होती हैं वे किसी समय साधारण और सरल थीं। अणिमा, लघिमा, महिमा, आदि ऋद्धि-सिद्धियाँ आकाश तत्व प्रधान युग में मामूली सी बातें थीं, आज वे बातें अत्यन्त उच्च कोटि के तपस्वियों के लिए भी कठिन हैं। युग परिवर्तन के साँसारिक प्रभाव का हेर-फेर होना प्रकृति के नियमों के ऊपर निर्भर हैं। युग प्रभाव तो परिवर्तन शील है पर सत्य में कभी परिवर्तन नहीं होता। “तपस्या से अत्यन्त कल्याण की प्राप्ति” यह एक स्थिर तथ्य है इसमें कभी भी परिवर्तन नहीं होता।

गायत्री द्वारा तप करके मनुष्य निश्चित रूप से ऐसा आत्म बल प्राप्त कर सकता है, जिससे उसका जीवन, शुद्ध, पवित्र, सात्विक, महान, सुखी एवं शान्तिमय हो। अपने प्रभाव से वह दूसरों के जीवन में भी इन महानताओं को विकसित कर सकता है। अपने कर्म बन्धनों को काट सकता है। प्रभु की कृपा का अधिकारी बन सकता है और जीवन के परम लक्ष को प्राप्त करता हुआ अक्षय आनन्द का उपभोग कर सकता है। उसके अन्तःकरण में से निकले हुए शाप वरदान भी सफल हो सकते हैं। परन्तु किसी तपस्वी से यह आशा नहीं करनी चाहिए कि जो विशेषताएँ आकाश, अग्नि, वायु तत्व प्रधान युगों में तपस्वी के शरीर में उत्पन्न होती थीं वे अब इस जल और मृतिका प्रधान युग में भी सरलता पूर्वक प्राप्त हो जायेंगी। वे न तो आवश्यक हैं और न महत्वपूर्ण। बाजीगरों जैसे अचरज भरे कौतूहल उत्पन्न करने की ओर नहीं हमें तो आत्म शक्ति बढ़ाने और आत्म कल्याण प्राप्त करने की ओर ध्यान देना है और उसका प्राप्त करना सच्चे तपस्वी के लिए आज भी उतना ही सरल है जितना कि प्राचीन काल में कभी भी रहा है।

First 13 15 Last


Other Version of this book



Version 2
Type: TEXT
Language: HINDI
...

Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
...


Releted Books


Articles of Books

  • VigyapanSuchana
  • तेरा स्वरूप
  • तेरा स्वरूप (Kavita)
  • नारी का समुचित सम्मान
  • Quotation
  • शास्त्र क्या है?
  • सत्य और असत्य के परिणाम
  • चित्त को सत् में ही लगाओ।
  • विचारों की अद्भुत शक्ति
  • Quotation
  • पुस्तक कैसे पढ़ें?
  • Quotation
  • सुख कैसे प्राप्त करें?
  • तपश्चर्या का उद्देश्य
  • भस्रिका प्राणायाम
  • दीर्घ जीवन का रहस्य
  • VigyapanSuchana
  • गायत्री-उपनिषद्
  • नारी की महानता
  • नारी की महानता (Kavita)
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj