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Magazine - Year 1952 - Version 2

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सहयोग और सहिष्णुता

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गोप्याः स्वायाँ मनोवृत्तीर्नासहिष्णुर्नरो भवेत्।

स्थिति मज्यस्य वै वीक्ष्य तदनुरुप माचरेत्॥

अर्थ—अपने मनोभावों को छिपाना नहीं चाहिए। मनुष्य को असहिष्णु नहीं होना चाहिए। दूसरों की परिस्थिति का भी ध्यान रखना चाहिए।

अपने मनोभाव और मनोवृत्ति को छिपाना ही छल, कपट और पाप है। जैसा भाव भीतर है वैसा ही बाहर प्रकट कर दिया जाय तो वह पाप निवृत्ति का सबसे बड़ा राजमार्ग है। स्पष्ट और खरी कहने वाले, पेट में जैसा है वैसा ही मुँह से कह देने वाले लोग चाहे किसी को कितने ही बुरे लगें पर वे ईश्वर और आत्मा के आगे अपराधी नहीं ठहरते।

जो आत्मा पर असत्य का आवरण चढ़ाते रहते हैं, वे एक प्रकार के आत्म हत्यारे हैं। कोई व्यक्ति यदि अधिक रहस्यवादी हो, अधिक अपराधी कार्य करता हो तो भी उसके अपने कुछ ऐसे विश्वासी मित्र अवश्य होने चाहिए जिसके आगे अपने सब रहस्य प्रकट करके मन को हलका कर लिया करे। और उनकी सलाह से अपनी बुराइयों का निवारण कर सके ।

प्रत्येक मनुष्य का दृष्टिकोण, विचार, अनुभव अभ्यास, ज्ञान, स्वार्थ, रुचि एवं संस्कार अलग-अलग होते हैं। इसलिए सबका सोचना एक प्रकार से नहीं हो सकता। इस तथ्य को समझते हुए हर व्यक्ति को दूसरों के प्रति सहिष्णु एवं उदार होना चाहिए। अपने से किसी भी अंश में मतभेद रखने वाले को मूर्ख, अज्ञानी, दुराग्रही, दुष्ट या विरोधी मान लेना उचित नहीं। ऐसी असहिष्णुता ही बहुधा झगड़ों की जड़ होती है। एक दूसरे के दृष्टिकोण के अन्तर को समझते हुए यथासंभव समझौते का मार्ग निकालना चाहिए। फिर जो मतभेद रह जायँ, उन्हें पीछे धीरे-धीरे सुलझाते रहने के लिए छोड़ देना चाहिए।

संसार में सभी प्रकार के मनुष्य हैं। मूर्ख-विद्वान, रोगी-स्वस्थ, पापी-पुण्यात्मा, कायर-वीर, कटुवादी नम्र, चोर-ईमानदार, निन्दनीय-आदरास्पद, स्वधर्मी-विधर्मी, दया पात्र-दंडनीय, शुष्क-सरस, भोगी-त्यागी आदि परस्पर विरोधी स्थितियों के मनुष्य भरे पड़े हैं। उनकी स्थिति को देखकर तदनुसार उनसे भाषण, व्यवहार एवं सहयोग करें। उनकी स्थिति के आधार पर ही उन के साथ अपना सम्बन्ध स्थापित करें।

कपट और असहिष्णुता यह दो बहुत बड़े पातक हैं। इन दोनों से बचने के लिए गायत्री के ‘गो’ अक्षर में निर्देश किया गया है। धोखा, विश्वासघात, छल, ढोंग, पाखण्ड यह मनुष्यता को कलंकित करने वाली सबसे निकृष्ट कोटि की कायरता एवं कमजोरी है। जिसको हम बुरा समझते हैं उससे लड़ाई रखें तो इतना हर्ज नहीं, परन्तु मित्र बनकर, मिले रहकर, मीठी-मीठी बातों से धोखे में रखकर उसका अनर्थ कर डालने में जो पाप है वह निष्कृष्ट कोटि का है। अनेक व्यक्ति ऊपर से मिले रहते हैं, हितैषी बनते हैं और भीतर ही भीतर छुरी चलाते हैं। बाहर से मित्र बनते हैं भीतर से शत्रु का काम करते हैं। विश्वास देते हैं कि हम तुम्हारे प्रति इस प्रकार का व्यवहार करेंगे परन्तु पीछे अपने वचन को भंग करके उसके विपरीत कार्य कर डालते हैं।

आजकल मनुष्य बड़ा कायर हो गया है। उसकी दुष्टता अब मैदानी लड़ाई में दृष्टिगोचर नहीं होती। प्राचीन काल में लोग जिनसे द्वेष करते थे, जिसका अहित करना चाहते थे, उसे पूर्व चेतावनी देकर मैदान में लड़ते निपटते थे। पर आज तो वीरता का दर्शन दुर्लभ हो रहा है। विश्वास दिलाकर, मित्र बनकर, बहका-फुसलाकर, किसी को अपने चंगुल में फँसा लेना और अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए उसके प्राणों तक का ग्राहक बन जाना, आज का एक व्यापक रिवाज हो गया है। जिधर दृष्टि उठाकर देखिए उधर ही छल, कपट, धोखा, विश्वासघात का बोल बाला दीखता है। गायत्री कहती है कि यह आत्मिक कायरता, मनुष्यता के पतन का निकृष्टतम चिन्ह है। इससे ऊपर उठे बिना कोई व्यक्ति ‘सच्चा मनुष्य’ नहीं कहला सकता।

किसी की धरोहर मार लेना, विष खिला देना, पहले से कोई वचन देकर समय पर उसे तोड़ देना, असली बताकर नकली चीज देना, मित्र बनकर शत्रुता के काम करना, यह बातें मनुष्यता के नाम पर कलंक हैं।

विवाह के समय देवता और पंचों को साक्षी देकर लोग यह धर्म प्रतिज्ञा करते हैं कि हम इस नारी के जीवन का सारा उत्तरदायित्व अपने ऊपर लेते हैं। जैसे बालक का सारा उत्तरदायित्व उसकी माता पर होता है, माता अपने बच्चे से काम लेती है, डाँटती-फटकारती भी हैं परन्तु उससे भी पहले उसके हृदय में अनन्त करुणा, आत्मीयता, ममता और क्षमा का समुद्र लहराता होता है। जिस माता के हृदय में वात्सल्य, क्षमा, ममता और करुणा की भावना न हो केवल बच्चे से अपना फायदा उठाने की, उसे गुलाम की तरह वशवर्ती रखने की वृत्ति हो वह माता शब्द को अलंकित ही करेगी। इसी प्रकार जो लोग देवताओं और मन्त्रों की साक्षी में अपनी धर्मपत्नी को माता, पिता, भाई बहिन सबसे छुड़ाकर उनके स्नेह एवं उत्तरदायित्वों की पूर्ति अपने ऊपर लेते हैं उन्हें उचित है कि जीवन भर उस विवाह की प्रतिज्ञा को निबाहें, परन्तु देखा जाता है कि स्त्री को थोड़ी सी नासमझी का उसे इतना भारी दण्ड दिया जाता है जिसे देखकर न्याय की आत्मा भी काँप जाती है। पतियों द्वारा पत्नी की हत्या या परित्याग में प्रायः ऐसा ही कायर विश्वासघात भरा होता है।

वासना और धन का लोभी मनुष्य न्याय मार्ग से जब अपनी लोलुपता को पूरा नहीं कर पाता तो अनेक अनैतिक, छल पूर्ण मार्ग अपना कर अपना स्वार्थ साधन करता है। गायत्री माता इस कुमार्ग पर चलने से अपने प्रिय पुत्रों को रोकती है। ‘गो’ अक्षर का संदेश है कि हम विश्वासघाती न बनें। अपने धर्म, कर्तव्य और उत्तरदायित्व को निबाहें। सचाई के मार्ग पर चलने से यदि कुछ असुविधाएं भी सहनी पड़ें तो उन्हें प्रसन्नतापूर्वक सहना चाहिए। इस प्रकार जो सत्य के मार्ग पर चलने में असुविधाओं का स्वागत करने को भी तैयार रहते हैं वे ही गायत्री माता के सच्चे प्रेम पात्र बन सकते हैं।

‘गो’ शब्द के अंतर्गत गायत्री माता की दूसरी शिक्षा यह है कि—हम सहिष्णु बनें। किसी की जरा सी गलती पर आग बबूला हो जाना या किसी से थोड़ा सा मतभेद होने पर उसे जानी दुश्मन मान लेना बहुत संकुचित विचार है। संसार में कोई भी पूर्णतया निर्दोष, या निष्पाप नहीं है, हर मनुष्य अपूर्ण है उसमें कुछ न कुछ दोष बुराई या कमी अवश्य रहती है। थोड़ी सी कमी के लिए उसे पूर्ण त्याज्य समझ लेना ठीक नहीं। दूसरों ही अच्छाइयों का समुचित उपयोग करना चाहिए, उन्हें बढ़ाना चाहिए, त्रुटियों को सुधारने या घटाने का प्रयत्न करना चाहिए, परन्तु इसके लिए अधीर नहीं होना चाहिए। सहिष्णुता और धैर्यपूर्वक कामचलाऊ सहयोग का मार्ग निकाल लेना चाहिए और आततायी रीति से नहीं वरन् मधुर, सुव्यवस्थित एवं न्यायोचित मार्ग से प्रतिकूलता को अनुकूल बनाने का प्रयत्न करना चाहिए।

यह आवश्यक नहीं कि हमारे सभी विचार ठीक ही हों, हमारी मान्यता, धारणा, एवं आकांक्षा हमारे लिए ठीक हो सकती है पर यह आवश्यक नहीं कि दूसरों को भी उन्हें मानने के लिए बाध्य किया जाय। अनेक दार्शनिक, धार्मिक, सामाजिक एवं राजनैतिक मतभेद प्रायः ऐसे होते हैं जिनमें दोनों ही पथ भ्रान्त पाये जाते है। इनके सम्बन्ध में हमें अधिक सहिष्णुता का परिचय देना चाहिए। कुछ विरोध ऐसे हैं जिन्हें अपराध कहते हैं, जिनके लिए राजदंड की व्यवस्था है। चोरी, हत्या, लूट, छल, दुराचार आदि अनैतिक कर्मों के लिए अवश्य ही प्रबल विरोध किया जाना चाहिए, उसमें जरा भी सहिष्णुता की जरूरत नहीं है परन्तु स्मरण रहे वह ‘प्रबल विरोध’ ऐसा नहीं जो उलटे हमें ही अपराधी बना दे। दण्ड देने योग्य विवेक हर एक में नहीं होता, खास तौर से जिसका अपराध किया है उसमें तो बिलकुल ही नहीं होता, इसलिए दण्ड के लिए उदार, विवेकवान न्यायप्रिय एवं निष्पक्ष व्यक्ति को ही पंच चुनना चाहिए। न्यायालयों और न्यायाधीशों की स्थापना इसी आधार पर हुई है।

संसार में कोई भी दो मनुष्य एक सी आकृति के नहीं मिलते। प्रभु की रचना ऐसी ही है कि हर मनुष्य की आकृति में कुछ न कुछ अन्तर रखा गया है। आकृति की भाँति विचारों, विश्वासों और स्वभावों में भी अन्तर होता है। जैसे विभिन्न आकृतियों के मनुष्य एक साथ प्रेमपूर्वक रह सकते हैं वैसे ही विभिन्न मनोभूमियों के मनुष्यों को भी एक साथ रहने में, प्रेम पूर्वक सुसम्बन्ध बनाये रहने में कोई अड़चन न होनी चाहिए। समाज की सुख-शान्ति, एकता और उन्नति इसी सहिष्णुता पर निर्भर है। असहिष्णुता लोगों का समाज, सदा कलह और संघर्षों से जर्जर होता रहता है वह किसी भी दृष्टि से कोई उन्नति नहीं कर पाता।

गायत्री माता की गोद में चढ़ना, उसका प्रिय पुत्र बनना निश्चय ही हमारे लिए अतीव आनन्ददायक एवं कल्याणकारक सिद्ध होता है। माता उन्हीं लोगों को अपना स्नेह भाजन बनाती है जो उसकी आज्ञा मानते है उसकी व्यवस्था पर आस्था रखते हैं। गायत्री की जो 24 आज्ञाएँ हमारे लिए निर्धारित हैं वे इस महामन्त्र के 24 अक्षरों में सन्निहित है। ‘गो’ शब्द द्वारा माता की आज्ञा यह है कि हम छल की कायरता का परित्याग करें और सहिष्णुता एवं उदारता के साथ जनसमाज में मधुर सम्बन्ध स्थापित करते हुए शान्तिमय जीवन का निर्माण करें।

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