Magazine - Year 1954 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
आध्यात्मिक यज्ञ
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
अथर्व वेद 7 ।103 । 1 में कहा गया है-
को यज्ञ कामः? क उ पर्ति कामः?
अर्थात्- यज्ञ की चिंता करने वाला कौन है? उस यज्ञ को पूरा करने की फिक्र किसे है?
वेद भगवान की यह चिंता स्वाभाविक है। मनुष्यों से वेद पूछता है- मनुष्यों, क्या तुममें कोई ऐसा है जो यज्ञ की कामना करे? यज्ञ की फिक्र रखे? यह चिंता अकारण नहीं है। कहीं कोई विरले ही मनुष्य ऐसे होते हैं जो सच्चे यज्ञ की चिंता करते हैं ।
साधारण अग्नि होत्र तो प्रायः होते ही रहते हैं, बड़े यज्ञों का भी लोप नहीं हुआ है, वे भी यदा-कदा कराये ही जाते हैं। फिर यह पूछना कि- हे मनुष्यों! क्या तुममें कोई ऐसा है जो यज्ञ की चिंता करता हो? उसे पूरा करने की चिंता करता हो? अवश्य ही रहस्यमय होना चाहिए। यहाँ साधारण अग्निहोत्र से वेद भगवान का अभिप्राय नहीं है। वे उस वास्तविक यज्ञ की ओर संकेत करते हैं जिसका यह अग्निहोत्र स्थूल रूप है।
हवन में विश्व कल्याण के लिए, देवों को प्रसन्न करने के लिए बहुमूल्य सामग्री होमी जाती है और कहा जाता है ‘इदं न मम्’ यह मेरा नहीं है। अपनी उत्तम से उत्तम वस्तुओं को, शक्तियों को, समय को, विश्व कल्याण के लिए लोक सेवा में लगा देना, भगवान की दी हुई वस्तुओं को विराट्-पुरुष, विश्व मानव के चरणों में अर्पित करते समय किसी प्रकार के अहसान का अहंकार का भाव न लाना ही यज्ञ है। ‘इदं न मम्’ यह मेरा नहीं है, मेरा तो इस संसार में कुछ भी नहीं है, जो कुछ है सब प्रभु का है। फिर प्रभु की वस्तु प्रभु के चरणों में अर्पण करते हुए लोभ एवं संकोच करने की भी क्या जरूरत? अभिमान और अहसान भी किस बात का? प्रभु ने जो शक्तियाँ हमें दी हैं वे इन्द्रिय भोगों के लिए नहीं है। जोड़-जोड़ कर जमा करना यह तो अमानत में खयानत है। परमात्मा ने बिना मूल्य बिना कोई बदला लिए हमें अनेक वस्तुएँ, शक्तियाँ, सुविधाएं, और साधन सामग्रियाँ इसलिए दी हैं कि हम भी उनका उपयोग उसके लिए उसी प्रकार करें। परमात्मा हमें देता है और हम परमात्मा को उसके विराट् रूप विश्व मानव को, समाज को सौंप दें यह आदान-प्रदान, परस्पर विनियम आनन्दप्रद एवं सद्भावों की वृद्धि करने वाला है। इसी प्रक्रिया का नाम यज्ञ है। यदि प्रभु की दी हुई वस्तुओं को अपनी संकुचित स्वार्थ पूर्ति के लिए ही सीमित रखें तो यह ईश्वर की इच्छा और व्यवस्था के प्रतिकूल आचरण है, परमात्मा चाहता है कि ऐसा न हो। मैं प्रजा के लिए योग करता हूँ प्रजा मेरे लिए त्याग करें। जिस प्रकार निस्वार्थ दान का आचरण मैं निरन्तर करता हूँ वैसा ही आचरण लोग भी करें और मेरे सच्चे अनुयायी बनें। शतपथ ब्राह्मण में यज्ञ के इस मूलभूत उद्देश्य को स्पष्ट कर दिया है-
प्रजापतिर्वाऽएत दगो कर्मा करोत्तत्तत देवा अकुर्वन्।
शत. 6।2।3।11
प्रजापति परमात्मा ने आरम्भ में जिस प्रकार महान यज्ञ किया, उसी प्रकार का यज्ञ हम भी करते हैं।
सृष्टि के आरम्भ में परमात्मा ने अनेक प्रकार की वस्तुएँ रचीं। वह अपने-अपने लाभ के लिए नहीं वरन् सुख सुविधा के लिए बनाई। उसका निर्माण कार्य केवल परमार्थ मय था। मनुष्य के जीवन आरम्भ को भी सृष्टि माना जाय तो भी परमात्मा गर्भस्थ बालक के लिए, नवजात शिशु के लिए जो-जो सुविधाएँ तथा सुख सामग्रियाँ बनाकर तैयार कर देता है उसे देखकर उसकी परमार्थ प्रियता का, यज्ञ भावना का सहज ही पता चल जाता है। इसी का अनुकरण हमें करना है। अपनी साँसारिक और आन्तरिक सामर्थ्यों को परमात्मा के निमित्त ही अर्पित करना है। हमारी भावना यही होनी चाहिए-
मेरा मुझको कुछ नहीं जो कुछ है सो तोर।
तेरा तुझको सोंपते क्या लागत है मोर॥
इस यज्ञ भावना का संसार से लोप सा होता देखकर वेद भगवान को चिंता हुई। परमात्मा ने यज्ञ किया- मनुष्य को सब कुछ दिया उसकी इच्छा थी कि यह लोग भी इस यज्ञ प्रक्रिया को जारी रखें। यह मुझे दें- मैं फिर इन्हें दूँ। इस प्रकार दान का अलौकिक सुख इन जीवों को मिलता रहे।
‘देहि में ददामिते।’
-यजु. 3 । 50
तुम मुझे दो- मैं तुमको दूँगा।
आज सर्वत्र यह क्रम टूटता दिखाई पड़ता है। लोग परमात्मा की दी हुई वस्तुओं को ले तो खुशी से लेते हैं, जो प्राप्त नहीं है, उसके लिए झगड़ते हैं, प्रार्थना करते हैं और यदि उनकी मनोवांछित अभिलाषा से कम मिलता है तो परमात्मा पर क्रोध भी करते हैं और उसे गालियाँ देने में भी नहीं चूकते। अपने स्वार्थ की तो उन्हें खूब फिक्र रहती है। पर इस बात की चिंता नहीं रहती कि परमात्मा ने जो कुछ हमें दिया था, यज्ञ भावना से, त्याग और परमार्थ की भावना से दिया था, और इसलिए दिया था कि इन वस्तुओं एवं शक्तियों का उपयोग हम भी वैसा ही करें और आरम्भ किये हुए यज्ञ को जारी रखें। इसके विपरीत सब लोग अपनी-अपनी ही आपापूती में लगे हैं। परमात्मा भी हमें खूब दें, संसार के अन्य समस्त जीव भी हमें सब कुछ दें, पर हम किसी को कुछ न दें। सबके दिये हुए को अपने पास समेट कर रखें, खुद ही उसका उपभोग करें। यह व्यापक रूप से छाई हुई स्वार्थपरता परमात्मा के यज्ञ उद्देश्य के प्रतिकूल है। हवन आदि भी लोग करते हैं पर उनमें भी स्वार्थ ही प्रधान होता है। अपने जीवन को, अपनी विचारधारा को, अपने लक्ष्य एवं कार्यक्रम को यज्ञमय बना लेने की सच्ची इच्छा आज किस में है? इसी अभाव से दुखी होकर वेद भगवान ने पूछा है ‘को यज्ञ कामः? क उ पूर्ति काम?’ यज्ञ की चिंता करने वाला कौन है? उसे पूरा करने की फिक्र रखने वाला कौन है? परमात्मा से जो अनन्त ऋण प्राप्त हो रहा है उसका प्रत्युपकार करने या उस भावना का प्रवाह संसार में जारी रखने वाली कार्य प्रणाली अपनाने की इच्छा की कमी देखकर ही परमात्मा पूछता है कि- कृतघ्नियों! मेरी सृष्टि रचना के महान उद्देश्य को नष्ट क्यों कर रहे हो? स्वार्थपरता से ऊँचे उठकर परमार्थमयी यज्ञ भावना को क्यों नहीं अपनाते? विश्व हित लोक सेवा और प्रभु पूजा की चिन्ता क्यों नहीं करते?
अग्निहोत्र के स्थूल लाभ पिछले पृष्ठों पर बताये जा चुके हैं, पर उनका वास्तविक स्वरूप है- स्वार्थपरता का त्याग और त्याग संयम, सेवा, सदाचार, परोपकार, उदारता, सहृदयता, आत्म निर्माण आदि सद्भावनाओं को चरितार्थ करना। इसी वास्तविक यज्ञ का बाहरी प्रदर्शन एवं स्थूल रूप हवन है। हवन को आध्यात्मिक यज्ञ का नाटक भी कह सकते हैं। जैसे नाटक देखकर उस नाटक में दिखाई हुई भावना जागृत होती है। उसी प्रकार अग्निहोत्र को देखकर हम आत्माहुति देने, आत्मत्याग एवं अपनेपन-स्वार्थपरता को छोड़ना सीखते हैं। हवन से यही प्रवृत्ति सर्वत्र नाचती दीखती है।
हवन कराने वाले पण्डितों और विद्वानों की कमी नहीं। दक्षिणा हो तो वे आसानी से कहीं भी उपलब्ध हो सकते हैं, पर ऐसे आचार्यों की आज भारी कमी है जो स्वयं मन से अपने आचरण से ऐसा ही यज्ञ करें और यजमान को भी ऐसा ही आत्म त्याग का हवन करना सिखावें। यह भी इस संसार में एक बड़ा भारी अभाव है। इस अभाव को पूरा करने के लिए प्रार्थना की गई है-
य इमं यज्ञं मनसा चिकेत प्रणोवोच स्तमि हेहे व्रवः।
-अथर्व
हे प्रभो, ऐसा गुरु भेजो, जो हमें मन से यज्ञ करना सिखावे।
जब तक मन से यज्ञ करना न आवे तब तक हवन मात्र से यज्ञ का वास्तविक उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता। यज्ञ का वास्तविक उद्देश्य अपने आपको परमात्मा के चरणों में सौंप देना है। मन बुद्धि, चित्त, अहंकार का अन्तःकरण चतुष्टय, दसों इन्द्रियाँ, दसों प्राण आदि आन्तरिक सम्पदाओं को भी जब जीव-परमात्मा को सौंपता है, इनका आहुति, भगवान में लगा देने का होम करता है तभी सच्चा यज्ञोद्देश्य प्राप्त होता है। इस यज्ञ की चर्चा उपनिषदों में इस प्रकार है।
च्च्तस्यैवं विदुषो यज्ञस्यात्माः यजमानः श्रद्धा पत्नीः उरो वेदी वेद शिखा वाग्होता, प्राण उदगाता, चक्षुरर्ध्वयः मनो ब्रह्मा, श्रोते मग्नीत यन्यु रवं तदाहिवनीयः उदगाता।”
इस आध्यात्मिक यज्ञ में आत्मा यजमान श्रद्धा यजमान की पत्नी, हृदय वेदी, वेद शिखा, वाणी होता, प्राण उद्गाता, चक्षु अध्वर्यु, मन ब्रह्मा, कान आग्नीध्र मुख आह्वानीय अग्नि है।
इसी प्रकार का वर्णन और भी है-
वाग्वै यज्ञस्य होता।
चक्षुर्वै यज्ञस्यार्ध्वयुः।
प्राणों वै यज्ञस्योद्गाता।
मनो वे यज्ञस्य ब्रह्मा।
वृहदारण्यक 3 । 1। 3।-9
वाणी यज्ञ की होता, चक्षु यज्ञ का अध्वर्यु, प्राण यज्ञ का उद्गाता और मन यज्ञ का ब्रह्मा है।
यज्ञ पुरुष परमात्मा ही है। उसके चरणों में अपने को समिधा की भाँति समर्पित कर देने से अपना स्वरूप भी वैसे ही यज्ञमय हो जाता है जैसे हवन की अग्नि में पड़ी हुई समिधा तथा सामग्री अग्नि रूप हो जाती है। परमात्मा की आज्ञाएं, प्रेरणाएं तथा सतोगुणी प्रवृत्तियाँ अपने अन्तःकरण में धारण करना, अभ्यास, वैराग्य, स्वाध्याय, भक्ति आदि साधनों में ईश्वरीय प्रकाश को अपनी अन्तः भूमिका में अधिकाधिक धारणा करना भी यज्ञ है। सर्वव्यापक परमात्मा को सब में समाया हुआ देख कर गुप्त से गुप्त दुष्कर्मों से बचना चाहिए। कोतवाल को सामने खड़ा देखकर चोर जिस प्रकार ठीक उसके सामने ही चोरी करने का साहस नहीं करता, उसी प्रकार परमात्मा को सर्वव्यापक समझने वाला व्यक्ति भी कोई कुविचार एवं कुकर्म नहीं कर सकता क्योंकि जब से अपने अन्तःकरण में परमात्मा दिखाई पड़ता है, तब उसके सामने कुविचार कैसे रहें? इसी प्रकार विश्व के कण-कण में जब प्रभु दिखाई पड़ता है तो कौन सा गुप्त स्थान ऐसा हो सकता है जहाँ वह अपनी चोरी को छिपा ले? इसी प्रकार जो सर्वत्र प्रभु की विद्यमानता अनुभव करेगा। वह सभी जड़ चेतनों के साथ सद्व्यवहार के अतिरिक्त और कुछ नहीं कर सकता। इसलिए यज्ञ पुरुष भगवान को सर्वव्यापी मान अन्तरात्मा में धारण करना ही आध्यात्मिक यज्ञ समझता है। इस यज्ञ निष्ठा को सर्वत्र यज्ञ पुरुष का ही रूप देखने की ब्रह्म दृष्टि को योगीजन सदैव अपनाते रहते हैं, शास्त्रों में भी इसका समर्थन है-
तस्मार्त्सवगतं ब्रह्म, नित्यं यज्ञो प्रतिष्ठितम्।
गीता 3।15
सर्वःव्यापक ब्रह्म, सदैव यज्ञ में रहता है।
ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणाहुतम्॥
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्म कर्म समाधिना॥
9 गीता 4 । 24
अर्पण (हवन क्रिया) ब्रह्म है, हवि ब्रह्म है, ब्रह्मरूप अग्नि में हवन किया जाता है और ब्रह्म ही हवन करता है। इस प्रकार जिसकी बुद्धि में सभी कर्म ब्रह्म रूप हो जाते हैं वह ब्रह्म को ही प्राप्त होता है।
अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम्।
मन्त्रोऽहममेवाज्यमहमग्निरहं हुतम्॥
गीता 9 । 26
मैं क्रतु हूँ, मैं यज्ञ हूँ, मैं स्वधा हूँ, मैं औषधि हूँ और मैं ही मंत्र, घृत, अग्नि और हवन हूँ। गीता ने आध्यात्मिक यज्ञ को भली प्रकार समझाने के लिए उसके छोटे विभाग भी किए हैं। दैव या ब्रह्म यज्ञ, आत्म यज्ञ, तप यज्ञ, योग यज्ञ, स्वाध्याय यज्ञ, ज्ञान यज्ञ, प्राण यज्ञ, संयम यज्ञ आदि की चर्चा करते हुए यह बताया है कि आत्म कल्याण के, प्रभु प्राप्ति के मार्ग पर चलते हुए जो भी सत्साधन कार्य में लाये जाते हैं वे सब यज्ञ रूप ही हैं-
दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते।
ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्रति। श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमास्निषु जुह्रति। शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्रति। सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे। आत्मसंयमयोगाग्नौं जुव्हति ज्ञानदीपिते॥ द्रव्ययज्ञानस्तपोयज्ञ योगयज्ञास्तथापरे॥ स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः॥
अपाने जुव्हति प्राणं प्राणेऽफनं तथापरे।
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः।
अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुव्हति।
सर्वेऽप्येते यज्ञविदोयज्ञक्षपितकल्मषाः।
गीता 4। 25-30 ॥
उपरोक्त श्लोकों में जिन यज्ञों की चर्चा है उनका वर्गीकरण इस प्रकार किया जा सकता है।
(1) योगियों का दैव यज्ञ- सूर्य अग्नि आदि देवताओं से अपनी इन्द्रियों का सम्बन्ध अनुभव करते हुए, उस सम्बन्ध की शक्ति को बढ़ाना।
(2) ब्रह्म यज्ञ- ज्ञान रूपी ब्रह्म अग्नि में अपने कर्म बन्धनों को होमना।
(3) संयम यज्ञ- संयम के तप रूपी अग्नि में
इन्द्रियों की वासना को जलाना।
(4) इन्द्रिय यज्ञ- इन्द्रिय शक्ति का मर्यादित सीमा में प्रयुक्त करके उनकी शक्ति का सदुपयोग करना।
(5) आत्म यज्ञ- आत्मा रूपी अग्नि में प्राणों की गति-विधि का उत्सर्ग करना।
(6) द्रव्य यज्ञ- अपनी भौतिक सम्पदा को सत्कर्मों में लगाना।
(7) तप यज्ञ- शारीरिक कष्ट सहिष्णुता तितीक्षा एवं द्वन्द्वों को सहन करने का उपार्जन।
(8) योग यज्ञ- योगाभ्यास द्वारा आत्मा विकास।
(9) स्वाध्याय यज्ञ- सद्ग्रन्थों द्वारा, सत्संग द्वारा एवं चिंतन-मनन द्वारा आत्म ज्ञान का सम्पादन।
(10) ज्ञान यज्ञ- सद्ज्ञान की अभिवृद्धि।
(11) प्राण यज्ञ- अपान में प्राण का लय, प्राण में अपान का समर्पण, इनकी गतियों का सन्तुलन करने के लिए कुम्भक का अभ्यास।
(12) आहार यज्ञ- भोजन की पवित्रता एवं उत्कृष्टता का साधन।
इस सब यज्ञ साधनों से मनुष्यों के सब पाप नष्ट होते हैं और ब्रह्म की प्राप्ति की दिशा में उसके कदम तेजी से बढ़ते जाते हैं।
यह आध्यात्मिक यज्ञ अन्तिम लक्ष है, स्थूल यज्ञ इसकी प्रथम सीढ़ी है। जैसे साकार मूर्ति पूजा से अभ्यास बढ़ाकर निराकार ब्रह्म की उपासना की जाती है। वैसे ही अग्नि होत्र के द्वारा यज्ञ भावनाओं का विकास कर अपने आपको ब्रर्ह्मपण करते हुए स्वयं या यज्ञ रूप बनना होता है। यही यज्ञ का परम रहस्य है। यह परमार्थ प्रियता, परस्पर सहयोग, सद्भावना की वृत्ति, संयम, त्याग उदारता, धर्म प्रियता, आस्तिकता एवं ईश्वर उपासना की भावना ही यज्ञ का वास्तविक रहस्य है।
एक बार ब्रह्म ज्ञानी राजा जनक ने सब ऋषियों से यज्ञ का वास्तविक रहस्य पूछा था और कहा था जो कोई उस रहस्य को बतावेगा उसे सौ गौएँ दान दी जाएंगी। अन्य ऋषियों ने स्थूल यज्ञों का वर्णन तो बहुत किया पर उसका अन्तिम लक्ष्य, प्रधान उद्देश्य कोई न बता सका। तब महर्षि याज्ञवलक्य ने यज्ञ का मर्म बताते हुए आत्म संयम और प्रभु परायणता का प्रतिपादन किया। इससे सन्तुष्ट होकर जनक ने याज्ञवलक्य को निर्धारित दान, देते हुए कहा-
वेत्थागिनहोत्रं याज्ञवल्क्य धेनु शतं ददामीति,
हे याज्ञवलक्य-आप अग्नि होत्र के रहस्य को जानते हैं, इसलिए आपको सौ गौएं भेंट करता हूँ।
गीता ने इस तथ्य का भली प्रकार स्पष्टीकरण किया है-
श्रेयान्द्रव्य मयाद्यज्ञाज्ज्ञान यज्ञः परंतप।
गीता 4 । 33
हे अर्जुन- द्रव्यमय-वस्तुओं से होने वाले यज्ञ की अपेक्षा ज्ञान यज्ञ श्रेष्ठ है।
यज्ञार्थातकर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः।
गीता 3 । 9
यज्ञ के निमित्त किये हुए कर्मों के अतिरिक्त और सब कर्म बन्धन रूप हैं।
यहाँ यज्ञ का अर्थ परमार्थ पूर्ण एवं अनासक्त साधना से किये हुए सत्कर्म से ही है। हवन तो मनुष्य हर घड़ी कर नहीं सकता, हवन के अतिरिक्त भी उसे बहुत से काम करने पड़ते हैं। यहाँ तो परमार्थ की कर्त्तव्यमयी स्वार्थ रहित भावना द्वारा जीवन का प्रत्येक कार्य करने का आदेश है। जो कर्म इस भावना से नहीं किये जाते अर्थात् स्वार्थ की संकुचित बुद्धि से किये जाते हैं वे जीवन को जन्म मरण की फाँसी में बाँधने वाले सिद्ध होते हैं।
इस यज्ञ भावना से रहित व्यक्ति को उसकी स्वार्थ परता के कारण सर्वत्र निन्दा, घृणा, दण्ड, द्वेष एवं दुर्भावना का शिकार बनना पड़ता है। सच्चे मन से उसे कोई नहीं चाहता, उसका कोई सच्चा मित्र भी नहीं होता, फलस्वरूप साँसारिक दृष्टि से भी वह उन्नति नहीं कर पाता और न सच्चे सहयोग से मिलने वाला सुख ही उसे प्राप्त होता है। ऐसा स्वार्थी मनुष्य चाहे कितना ही धनी हो जाय लोक निन्दा, सन्मित्रों के अभाव एवं अपनी दूषित मनोवृत्ति के कारण उत्पन्न होते रहने वाली नाना प्रकार की कठिनाइयों से सदा चिन्तित, भयभीत एवं दुखी रहता है। कहा भी है-
नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यःकुरुसत्ताम।
गीता 4 । 31
हे अर्जुन, यज्ञ (भावना) रहित मनुष्य को इस लोक में भी सुख नहीं, फिर परलोक का सुख होगा ही कैसे?
इसलिए भगवान ने यही कहा है कि परमार्थ को प्रधान और स्वार्थ को गौण रखो। कर्त्तव्य कर्म करते हुए जितना कुछ मिल सके, उसी से सन्तुष्ट रहो। अनीति की मिठाई से नीति की सूखी रोटी का अधिक मान करो। क्योंकि ईमानदार और कर्त्तव्य परायण व्यक्ति को भले ही स्वल्प साधन एवं थोड़ी वस्तुएं प्राप्त हों पर वह उस थोड़े से ही पूर्ण स्वास्थ्य, सद्भावपूर्ण परिवार एवं आनन्दमय जीवन का अधिकारी बन सकता है। जब कि अनीतिवान् व्यक्ति प्रचुर साधन सामग्री के स्वामी होते हुए भी बीमारी, गृह कलह, राज दण्ड, शत्रुता, वासना, आदि के उपद्रवों से घिरे हुए नाना प्रकार के दुख पाते रहते हैं और अपना धन इन्हीं नालियों में हो बहाते रहते हैं।
धर्म कर्त्तव्यों को यज्ञ मानना और उसी के प्रसाद स्वरूप जो यज्ञाशिष्ट (पुरोडास) प्राप्त हो उससे सन्तुष्ट रहना जीवन निर्वाह का एक परम पुनीत मार्ग है। गीता में इस जीवन नीति की बड़ी प्रशंसा की है-
यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्
गीता 4।31
यज्ञ से बचे हुए अमृत को खाने-पीने वाले व्यक्ति सनातन ब्रह्म को प्राप्त करते हैं।
यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्विषैः।
भुँयन्ते ते त्वधं पापा ये रचन्त्यात्मकारणात्॥
गीता 3।13
यज्ञ से बना हुआ अवशिष्ट खाने वाला सर्व पाप से छूट जाता है। जो केवल अपने लिए ही बनाता है वह पाप खाता है।
यह यज्ञ भावना ही संसार के पारस्परिक सहयोग को कायम रखे हुए है। इसे त्यागकर तो मनुष्य असुर हो जाता है और हिंसक पशुओं की तरह एक दूसरे को लूट खाने में जुट पड़ता है। ऐसी स्थिति में तो मनुष्य जाति का तथा संसार का नाश ही हो सकता है।
इस संसार का ही नहीं, समस्त लोकों, नक्षत्रों मण्डलों, ब्रह्माण्डों, अणु-परमाणुओं का कार्यक्रम भी पारस्परिक सहयोग, त्याग एवं आदान-प्रदान से ही चल रहा है। यही भावना सबको परस्पर जोड़े हुए है। वेद से तथ्य का प्रतिपादन करते हैं-
अयं यज्ञो विश्वस्य भुवनस्य नाभिः।
ऋग् 1।164।36
यह यज्ञ सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की नाभि है- बाँधने वाला है।
यज्ञो विश्वस्य भुवनस्य नाभिः।
अथर्व 9।10।14
यज्ञ ही समस्त विश्व ब्रह्माण्ड का केन्द्र मूल है।
इस यज्ञ की रक्षा करना और बढ़ाना हम सबका परम पावन आध्यात्मिक कर्त्तव्य है। इसी कर्त्तव्य की ओर ध्यान दिलाने के लिए वेद भगवान हम सबसे पूछते हैं-
को यज्ञ कामः? क उ पूर्ति कामः?
यज्ञ की चिंता कौन रखेगा? उसकी पूर्ति कौन करेगा? इसका उत्तर हमें अपने को इसके लिए उपस्थित करके देना चाहिए।