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Magazine - Year 1954 - Version 2

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यज्ञ और पशुबलि

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यज्ञों की अनेक कोटियों में एक कोटि ‘पशु यज्ञ’ की भी आती है। एक ही शब्द के कई अर्थ होते हैं। पशु शब्द के भी अनेक अर्थ हैं पर कुछ संकुचित विचार के व्यक्ति वेद और यज्ञ की मूलभूत भावना के विपरीत उसका अर्थ पशु हिंसा करने लगे। अर्थ का अनर्थ हुआ। मध्यकालीन युग में लोगों ने सचमुच ही पशु यज्ञ का वास्तविक रूप न समझ कर पशु हत्या आरम्भ कर दी और घोड़े, गाय, बकरे, सर्प एवं मनुष्य तक मार-2 कर होमने शुरू कर दिये।

यह हत्याकाण्ड जब फैला तो उसके विरुद्ध जनता में घोर घृणा उत्पन्न हुई। यज्ञों की निन्दा हुई लोग यज्ञों का विरोध करने लगे। बौद्ध धर्म और जैन धर्म ने इस प्रकार की हिंसा का डट कर विरोध किया और धीरे-धीरे वह अनर्थ बन्द होता गया। अब जीवों को मारकर हवन तो नहीं होता पर ‘दुर्गा’ आदि पर भैंसे, बकरे काटने की प्रथा अब भी विद्यमान है। इन अज्ञान मूलक बातों का जितना विरोध हो उतना ही उत्तम है और हमारे पवित्र धर्म को कलंकित करने वाली यह घृणित प्रथाएं जितनी जल्दी बन्द हो जायें उतना ही उत्तम है।

वैदिक पशु यज्ञ का वास्तविक तात्पर्य क्या है, नीचे की पंक्तियों में इस पर कुछ प्रकाश डाला जाता है।

उपनिषद् का वचन है-

‘काम क्रोध लोभादयः पशवः’

अर्थात् काम, क्रोध, लोभ, मोह यह पशु हैं। इन्हीं को मारकर यज्ञ में हवन करना चाहिए। आलंकारिक रूप से यह आत्म शुद्धि की, कुविचारों, पाप-तापों, कषाय कल्मषों से बचने की शिक्षा है।

यज्ञ को ‘अध्वर’ भी कहते हैं। अध्वर का अर्थ है- ‘वह कार्य जिसमें हिंसा न होती हो।’ यज्ञ के ऋत्विजों में एक सदस्य तो विशेष रूप से ऐसा नियुक्त होता है जो देखे कि कहीं कोई हिंसा तो इस पुण्य कार्य में नहीं हो रही है। इस निरीक्षक हो अध्वर्यु कहते हैं। विचार करने की बात है कि जिस यज्ञ में हिंसा न होने का इतना ध्यान रखा गया है पंच भू-संस्कार की क्रिया में छोटे-छोटे जीव जन्तुओं की प्राण रक्षा के लिए पहले से ही पूरी सावधानी बरतने की व्यवस्था है। उस कार्य में पशु सरीखे बड़े-बड़े जीवों की निर्दय हत्या करने का विधान कैसे हो सकता है?

जिन ब्राह्मण ग्रन्थों में पशु यज्ञ का वर्णन है वह केवल अलंकार रूप है। उसमें एक कथानक बना कर किसी सूक्ष्म विज्ञान पर प्रकाश डाला गया है। लोग उस आर्ध शैली के वास्तविक तात्पर्य को भूल कर अर्थ का अनर्थ करने लगे। शतपथ ब्राह्मण में पशु यज्ञ का वर्णन इस प्रकार मिलता है-

पुरुषं हवै देवा अग्रे पशुमाले भिरे।

तस्यालब्धस्य मेघोऽपचक्राम।

सोऽश्वं प्रविवेश। तेऽश्वमालभन्त। तस्यालब्धस्य मेघोपचक्राम। स गा प्रविवेश। ते गामा लभन्त। तस्या लब्धाया मेघोपचक्राम। सोऽवि प्रविवेश। तेऽविभालभन्त। तस्यालब्धस्य मेघोऽपचक्राम। सोऽजं प्रविवेश। तेऽजभालभन्त। तस्यालब्धस्य मेघोऽपचक्राम। स इमाँ पृथ्वीं प्रविवेश। तंखनन्त। इवान्वीषुः। त अन्वविंदन्। तौ इमौ ब्रीहियवा। स यावद्वीर्यवद्ध। ह वा अस्य एते सर्वे पशु आलब्धाः स्युः तावद्वीर्यवद्धास्य हविरेव भवति। य एवमेतद्वेद। अन्नो सा संपद्यदाहुः पंक्ति पशुरिति।

-शतपथ ब्रा. 1।2।3।6-9

अर्थात्- आरम्भ में देवों ने पुरुष का बलिदान किया। उसी समय उससे पवित्र भाग चला गया और वह घोड़े में प्रविष्ट हुआ। उन्होंने घोड़े को मारा। मारते ही उससे पवित्र भाग चला गया और वह गौ में प्रविष्ट हुआ। उन्होंने गौ की बलि की, उसी समय उससे से भी वह पवित्र भाग चला गया और वह मेढ़े में चला गया। उन्होंने मेढ़े की बलि की, उसी समय उससे पवित्र भाग चला गया और बकरे में प्रविष्ट हुआ। उन्होंने बकरे को मारा उसी समय उससे पवित्र भाग चला गया और वह इस पृथ्वी में प्रविष्ट हुआ। तब देव उस पृथ्वी को खोदने लगे। भूमि खोदने से उनको चावल और जौ प्राप्त हुए। इन चावल और जौ से जो हवि किया जाता है, उसका वीर्य और बल उतना ही होता है कि जितनी वीर्य पूर्वोक्त हवियों का होता है।

उपरोक्त कथानक का तात्पर्य यह है कि पुरुष, घोड़ा, गौ मेंढ़ा, बकरा आदि से तो देव काल में ही पवित्र भाग तिरोहित हो चुका है। इनकी पवित्रता पहले ही समाप्त हो गई है, इसलिए वेदों के आरम्भ काल में ही ब्राह्मण ग्रन्थों ने यह घोषित कर दिया था कि अब केवल आदि पृथ्वी से उत्पन्न होने वाले पदार्थों में ही हवि के योग्य पवित्र तत्व हैं, पशुओं में वह पवित्र तत्व नहीं है कि वे हवि के काम आ सकें। इस कथानक में पशु वध का समर्थन नहीं वरन् अलंकारिक रूप से निषेध किया गया है। इनमें तो अन्नादि पृथ्वी के गर्भ से उत्पन्न वनस्पतियों को ही पवित्र हवि माना है। ऐसी ही मान्यता ऐतरेय ब्राह्मण में भी प्रकट की गई है।

पशुभ्यो वै मेघ उदक्रामंस्तौ ब्रीहि श्चैव यवश्च भूतावर्जयाताम्।

ऐतरेय 2। 2। 21

पशुओं में से हवनीय तत्व पृथ्वी में चला गया जो चावल और जौ के रूप में ऊपर आया है।

मेध शब्द का मेधा और मेधावी अर्थ है। मेधा को अंग्रेजी में कलचर कहते हैं। किसी वस्तु को सुव्यवस्थिति ढंग से बनाना, सुधारना या उन्नति करना, मेध शब्द का वास्तविक अर्थ है। गौमेध, अश्वमेध, नरमेध आदि शब्दों का अर्थ गाय घोड़े या मनुष्य मारकर हवन करना नहीं वरन् गौ-पृथ्वी, मेध-उन्नत करना है। भूमि को कृषि के लिए भली प्रकार तैयार करना ही गौमेध है। अश्व-राष्ट्र, मेघ-करना। राष्ट्र की उन्नति समृद्धि एवं सुरक्षा के प्रयत्न करना एवं एक विश्व राष्ट्र (लीग आफ नेशनल) की स्थापना ही अश्वमेध है। इसी प्रकार मनुष्य को सुसंस्कृत बनाना, दोष दुर्गुणों से मुक्त करना नरमेध है।

मनुस्मृति में नर यज्ञ शब्द अतिथि पूजन के लिए आया है।

‘नृ यज्ञों अतिथि पूजनम्’

यदि कोई व्यक्ति अतिथि पूजन न करके मनुष्यों को मारना आरम्भ कर दे तो इसे मनु का दोष नहीं वरन् उसकी बुद्धि का ही दोष कहा जायगा।

चरक संहिता में ‘अजा’ औषधि का वर्णन है-

अजानामौषधि रज श्रृंगीति विज्ञायते।

-चरक. चिकित्सा प्र. 1

क्या कोई उपरोक्त वाक्य में वर्णित अजा बूटी के स्थान पर बकरी की औषधि बनावेगा?

महाभारत में भी अजा का अर्थ औषधि और बीज ही किया गया है-

बीजैर्यज्ञेषु यष्टव्य मिति वा वैदिकी श्रुतिः। अज संज्ञानि बीजानि, छागं नो हन्तुमर्हष॥ नैष धर्मः सताँ देवा यत्र वध्यते वै पशु।

महाभारत शान्ति 337

अर्थात् बीजों का यज्ञ में हवन करना चाहिए। ऐसी ही वेद की श्रुति है। ‘अज’ संज्ञक बीज होते हैं, इसलिए बकरे का हनन करना उचित नहीं। जिस कर्म में पशु की हत्या होती है वह सज्जनों का धर्म नहीं।

ऐतरेय ब्राह्मण 1। 2। 10 में “पशवो वा इला” इस पृथ्वी को ही पशु कहा गया है। अन्य स्थानों पर जीवात्मा में भी पशु कहा गया है। क्या इन सब को काट कर होमा जायगा?

अन्न से बनी हुई वस्तु तथा (रोटी पूरी आदि) खाद्य पदार्थों को भी पशु माना गया है और उसके विभिन्न अंगों की पशु अंगों से तुलना की गई है देखिए-

यदा पिष्ठान्यथलोमानि भवन्ति। यदाप आनयति अथ त्वग्भवन्ति यदासंयोत्थय माँसं भवति। संतत इव हि तर्हि भवति संततमिव हि माँसं यदाशृतोऽथास्ति भवति। दारुण इव हि तर्हि भवति। दारुणमित्यास्थि।

अथ यदुद्वासयन्नभिधारयति तं मज्जानं ददाति ऐसो सा सम्पद्यदाहुः पंक्तिः पशुरिति।

- शत 1।2।3।9

अन्न का पिसा हुआ आटा ही रोम (बाल) है। जब उस पिसे हुए आटे में जल मिलाते हैं तो वह चमड़ा हो जाता है (क्योंकि चमड़े के समान कोमल होता है जब वह आटा गूंथा जाता है तो माँस कहलाता है क्योंकि तब वह माँस के समान चिकना होता है।) जब वह सेका जाता है तब अस्थि कहलाता है (क्योंकि अस्थि कड़ी होती है) जब उसमें घी डाला जाता है तो उसका नाम मज्जा होता है।

प्राचीन आर्य ग्रन्थों में- पशुओं को मारकर हवन करने का कोई विधान नहीं है। पशुओं के नाम से मिलते-जुलते शब्दों का अर्थ ठीक प्रकार न समझकर अन्धकार युग में अज्ञानी लोगों ने हवन में पशुवध करने का अनर्थ भी किया है। इस अनर्थ मूलक प्रथा को प्रचलित कराने में ब्राह्मणों की स्वार्थपरता भी कारण रही हो तो कोई आश्चर्य नहीं। भगवान बुद्ध ने पशुबलि आरम्भ होने के इतिहास पर कुछ प्रकाश डाला है। पाली के प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘सुत्त निपात’ के ‘ब्राह्मण धार्मिक सुत्त’ भाग से कुछ उदाहरण नीचे उपस्थित करते हैं-

भगवान बुद्ध जब श्रीबस्ती नगरी के जेतवन बिहार में थे तब एक कौशल देशीय वृद्ध ब्राह्मण उनके पास आये और भगवान से पूछा-क्या इस काल में प्राचीन ब्राह्मणों का धर्म पालन करने वाला कोई ब्राह्मण हैं? बुद्ध ने उत्तर दिया-इस काल में ऐसा कोई ब्राह्मण नहीं दीखता। क्योंकि ब्राह्मणों के जो धर्म एवं गुण हैं वे उनमें दिखाई नहीं पड़ते। उन्होंने ब्राह्मणत्व के इस पतन का दुख पूर्ण इतिहास बताते हुए कहा-

सुखुमाला महाकाया वण्णवन्तो यप्तस्सिनो।

ब्राह्मणा सेहि धम्मेहि किच्चाकिच्चेसु उत्सुका। यावलो के अबत्तिसु सुखमेधित्थ यम्पजा ॥15॥

जब तक ब्राह्मण कोमल भावनाओं वाले, स्वस्थ, सुकर्मी, यशस्वी व उत्साही रहे तब तक संसार में प्रजा के सुख की वृद्धि होती रही।

तेसं आसीविपल्लासो दिखान अणुतो अणुँ।

राजनो च वियाकारं नारियो समलंकता ॥16॥

रथेचाजंज संयुक्ते सुकतेचित्त सिव्वने।

निवेसने निवेसेच विभत्ते भाग सोभिते ॥17॥

गोमण्डलपख्वूल्हं नारीवरगणायुतं। उलारं मानुसं भोगं अभिज्झायिंसु ब्राह्मणा ।18॥

उन ब्राह्मणों की गतिविधि उल्टी हो गई। धीरे-धीरे वे तब त्याग छोड़कर राजकीय ठाठ बाटों, सुन्दर-सुन्दर स्त्रियों, बढ़िया घोड़ों वाले रथों, चित्र-विचित्र परिधानों, अनेक कमरों वाले महलों, गौओं तथा रमणियों के भोग विलास में ललचा कर वे लोभ में फँस गये।

ते तत्थ मन्ते गन्थेत्वा ओकाकं तदुषागमुँ।

पभूत धनासिधंजो यजस्सु बहु ते धनं ॥19॥

तब वे मन्त्रों के संग्रह से एक यज्ञ पद्धति बनाकर राजा इच्वाकु के पास गये और कहा तेरे पास बड़ा धन-धान्य है तू यज्ञ कर।

ततो च राजा संञतौ ब्राह्मणेहि रथेसभो।

अस्समेधं पुरिसमेधं सम्मपासं वाजपेप्यं निरगगलं

एते यागे यजित्वान ब्राह्मणानं अदाघम् ॥20॥

तब ब्राह्मणों की आज्ञानुसार राजा ने अश्वमेध, पुरुषमेध, शम्याप्रास (सत्रयज्ञ) वाजपेय, निरर्गल (सर्वमेध) यज्ञों को करके ब्राह्मणों को धन दिया।

गावो सयनञ्च वत्थंच नारियो समलंकता। रथेचाजञ्जसंयुत्ते सुकते चित्त सिव्वने ॥21॥

निवेसनानि सम्मनि सुविभत्तानि भागसो।

नानाधञ्जस्य पूरेत्वा ब्राह्मणानं अदाधनं ॥22॥

गौएँ, गलीचे, कीमती पोशाकें, रूपवती स्त्रियाँ, बढ़िया रथ, रंगीन चित्र, विशाल भवन तथा नाना प्रकार के धान्यों से पूरित धन ब्राह्मणों को दिया।

ते च तत्थ धनं लद्धा सन्निधिंसमरोचयुँ।

तेसं इच्छावतिण्णानं भीय्योतण्हा पवड्ढथ।

ते तत्थ मन्ते गन्थेत्वा ओक्काकं पुनुवागमुँ ॥23॥

उन ब्राह्मणों ने राजा से धन प्राप्त करके अमीर होना चाहा। उनकी तृष्णा और अधिक बढ़ी। तब ये उस समय के मन्त्रों का संग्रह करके पुनः इच्वाकु राजा के पास गये और बोले-

यथा आपाचं पठवी हिरञ्जं धन धानियं।

एवं गावों मनुस्सानं परिक्खारों सोहि पाणिने।

यजस्सु बहु से वित्तं यजस्सु बहु ते धनं ॥24॥

जैसे जल, पृथ्वी, स्वर्ण और धन धान्य हैं वैसे ही गाय भी आवश्यक वस्तु है। तू इनका यज्ञ कर। तेरे पास बहुत धन है तू यज्ञ कर।

ततो च राजा सञ्ञत्तो ब्राह्मणे हि रधे सभो।

नेकसत सहस्सियो गावो अञ्ञे अधातयि ॥25॥

तब ब्राह्मणों से प्रेरणा पाकर राजा ने सैकड़ों हजारों गौओं का यज्ञ में वध किया।

न पादा न विसाणेन नारसुहिंयान्ति केनचि।

गावो एलक समाना सोरता कुम्भ दूहना॥

ता विसाणे गहत्वान राजा सत्येम घातयि ॥26॥

भेड़ के समान ही गौएँ- जो न पैर से न सींग से न किसी अन्य अंग से किसी को दुख देती हैं, वरन् घड़े भर कर दूध देती हैं उनके सींगों को पकड़ कर राजा ने वध किया।

ततो च देवता पितरो इन्दो असुर रक्खसा।

अधम्मो इति पक्कन्दुँ यं सत्यं निपती गवे ॥27॥

तब देवता, पितर, इन्द्र, असुर और राक्षस सब एक स्वर से चिल्लाये कि यह गौ पर शस्त्र चलाना घोर अधर्म है।

तयो रोगा पुरे आसु इच्छा अनसनं जरा।

पसृनञ्च समारम्भा अट्टान वुतिमागभुँ ॥28॥

प्राचीन काल में केवल तीन रोग थे- तृष्णा, भूख, बुढ़ापा। पर यज्ञों में पशु वध करने से 98 प्रकार के रोग फैल गये।

एसो अधम्यो ओक्कन्तो पुराणो अहु।

अदूसिकायो इञ्ञन्ति धम्मा धंसेन्ति याजका 29

इस प्रकार यह पापकर्म (पशु यज्ञ) आरम्भ हुआ। और इस अधर्म से यज्ञ कराने वाले ब्राह्मण धर्म से पतित हो गये।

एवं धम्मे वियापन्ने विभिन्ना सुद्दवेसिका।

पुथु विन्ना खत्तिया पतिं भरिया अवमञ्ञय ॥30॥

“ब्राह्मणों के पतित होने पर क्षत्रिय भी धर्म च्युत हुए, वैश्य और शुद्र भी अपनी मर्यादा छोड़कर छिन्न-भिन्न हो गये। स्त्रियाँ पतियों का अपमान करने लगी।”

उपरोक्त उदाहरण में पशुबलि का प्रचलन ब्राह्मणों की स्वार्थपरता से हुआ मालूम होता है। शास्त्र का मर्म ठीक प्रकार से न समझना और एक शब्द के जो कई अर्थ होते हैं। उनको ठीक प्रकार न समझकर अर्थ को अनर्थ कर बैठने का अज्ञान भी इसका कारण हो सकता है। जो भी हो पशुवध- सो भी यज्ञ जैसे पवित्र कार्य के सम्बन्ध में करना, कभी भी उचित नहीं ठहराया जा सकता।

विचार करने की बात यह है कि नित्यप्रति की अनिवार्य हिंसा के दुख से दुखित होकर उसका प्रायश्चित करने के निमित्त जिस संस्कृति में नित्य पाँच यज्ञ करने का विधान है उससे जानबूझ कर बड़े-बड़े पशु मारकर होमने की बात हो सकती है इसकी कल्पना करना भी कठिन है देखिए-

पंचसूना गृहस्थस्य चुल्ली पेषण्युपस्करः।

कण्डिनी चादकुम्भश्च बध्यते यास्तु वाहयन्।

तासाँक्रमेण सर्वांसाँ निष्कृर्त्यथं महर्षि भिः।

पंच क्लृप्ता महायज्ञा प्रत्यहं गृहमेधिनाम्।

- मनु॰ 3।68,69

प्रत्येक गृहस्थ के यहाँ चूल्हा, चक्की, झाडू ओखली और जलपात्र यह पाँच हिंसा के स्थान हैं। इनको काम में लाने से गृहस्थ पाप में बँधता है। इनसे छूटने के लिए पाँच महायज्ञ ऋषियों ने कहे हैं।

इतिहास में ऐसे वर्णन उपलब्ध हैं जिसमें घोड़ा तो क्या चींटी तक की भी हत्या नहीं की गई देखिए-

तस्य यज्ञो महानासीदश्वमेधो महात्मनः। वृहस्पतिरूपाध्यायस्तत्र होता वभूवह॥

प्रजापति सुताश्चात्र सदस्याश्चा भवंसस्त्रयः।

ऋषिर्मेधातिथिश्चैव तण्ड्यचश्चैव महानृषिः॥

ऋषिः शान्तिर्महाभागस्तथा वेद शिराश्चयः।

ऋषि श्रेष्ठश्च कपिलः शालिहोत्र पितास्मृताः॥

आद्यः कठस्तैरिश्च एते पोडस ऋत्विजः

संभूताः सर्व सम्भारास्तोस्मिन् राजन्महाक्रतौ।

न तत्र पशुघातीऽभूत स राजै-रास्थितोऽभवत्।

महा. शान्ति 33-38

उस राजा का बहुत विशाल अश्वमेध हुआ। उसमें बृहस्पति उपाध्याय थे। प्रजापति के पुत्र सदस्य बने। मेधा तिथि, ताण्ड्य, शान्ति, वेदशिरा, कपिल, कठ, तैत्रिदि और बड़े-बड़े ऋषि उसी यज्ञ में ऋत्विज् थे। उस यज्ञ में सामग्री तो विपुल थी पर एक भी पशु का वध न हुआ।

कोई निर्दोष जीव चाहे यज्ञ में मारा जाय, देवी के ऊपर चढ़ाया जाय, चाहे वह कसाई खाने में काटा जाए परिणाम वही प्राप्त होता है जो हत्यारों को होना चाहिये। भागवत में ऐसे ही हत्यारे एक राजा के सम्बन्ध में वर्णन आया है-

भो भोः प्रजापते राजन्य शून्यश्य त्वयाध्वरे।

संज्ञापितान् जीव संघान्निघृणेन सहस्त्रशः।

एते ता सम्प्रतीक्षन्ते स्मरन्तो वैशसं तव।

सम्परेतमयः कुटैश्छिन्दन्त्युत्थितमन्यवः।

भागवत 4। 25।7-8

हे राजन्- तेरे यज्ञ में सहस्रों पशु निर्दयता पूर्वक मारे गये। वे तेरी क्रूरता को याद करते हुए क्रोध में भरे हुए तीक्ष्ण हथियारों से तुझे काटने को बैठे हैं।

यज्ञ में मारा हुआ पशु स्वर्ग जाता है इस मनगढ़ंत कहानी की मसखरी उड़ाते हुए एक तार्किक ने बहुत अच्छा प्रश्न उपस्थित किया है-

पशुश्चेन्निहतः स्वर्गं ज्योतिष्टोमे गमिष्यति।

स्वपिता यजमानेन तत्र कस्मान्न हिंस्यते।

यदि ज्योतिष्टोम में मरा हुआ पशु स्वर्ग चला जाता है तो यजमान अपने बाप को यज्ञ में क्यों नहीं हवन कर देता, ताकि वह स्वर्ग को चला जाय।

यज्ञों के सम्बन्ध में यह कलंक लगाना किसी भी प्रकार उचित नहीं कि उनमें हिंसा का विधान है। मध्यकाल में कुछ लोगों ने ऐसे कुत्सित कर्म करके यज्ञ को बदनाम अवश्य कराया है। पर उनके कृत्यों से यज्ञ की शाश्वत मूल भावना में वस्तुतः कोई परिवर्तन नहीं होता। यज्ञ का उद्देश्य महान है। वह सम्पूर्ण संसार को प्राणदान करने वाला है। गंगा में कोई व्यक्ति गन्दगी फेंके तो उससे गंगा कलंकित नहीं होता। इसी प्रकार पशु हिंसा का अनर्थ उनके नाम पर किसी समय किया भी गया हो तो भी यज्ञ भगवान का विशुद्ध रूप सदा पवित्र ही रहेगा।

‘दक्षिणा वाद’ का निंदनीय रूप

ब्राह्मण को भू सुर भी कहते हैं। भूसुर का अर्थ है पृथ्वी का देवता। अन्य मनुष्य तो मानवता के साधारण नियमों का पालन करते हुए अपने कर्त्तव्य धर्म की रक्षा ही कर पाते हैं। पर ब्राह्मण इससे बहुत आगे बढ़ा होता है वह अपने ऊपर संयम, त्याग, तपस्या के कठोर नियमों का पालन करके अपनी व्यक्तिगत आवश्यकताएं न्यूनतम बना लेता है, यहाँ तक कि भोजन वस्त्र में भी इतनी कमी करता है कि उसका जीवन निर्वाह अत्यन्त ही सरल हो जाय। कारण यह है ब्राह्मण को अपनी शक्तियों का अधिकतम भाग परमार्थ में, लोक सेवा में, भगवत् आराधना में लगाना होता है। यदि वह अपनी व्यक्तिगत इच्छाओं और आवश्यकताओं को बढ़ा ले तो फिर वह अपने अभीष्ट उद्देश्यों को पूरा नहीं कर सकता। ब्राह्मण सदा से इस तथ्य को भली प्रकार समझते रहे हैं और साँसारिक प्रलोभनों से बचते रहे हैं। उनकी इस त्याग वृत्ति ने ही उन्हें भूसुर बनाया। समस्त समाज में वे श्रेष्ठ गिने गये। संसार ने उनके त्याग का प्रत्युपकार अपने अन्तःकरण की सच्ची श्रद्धा उनके चरणों पर उड़ेल कर चुकाया। इस गये-गुजरे जमाने में भी सच्चे ब्राह्मणों के वंशजों का मान इसलिए होता है कि इनके पूर्वज किसी समय में भूसुर थे। आज ये अपने पूर्वजों जैसे श्रेष्ठ नहीं रहे तो यदि उन भूसुरों की महानता का एक कण भी इनमें शेष होगा तो भी ये प्रणाम करने योग्य हैं। आज भी ब्राह्मण को अपने पूर्वजों की विशेषताओं के कारण मान प्राप्त होता है और उन्हें सब लोग झुककर प्रणाम करते हैं। ब्राह्मणत्व की माता गायत्री और पिता यज्ञ हैं। भगवान मनु ने कहा है कि कोई व्यक्ति जन्म से ही अलग नहीं होता वरन् स्वाध्याय, व्रत, होम, वेद, ज्ञान, तप, यज्ञ आदि द्वारा उसे ब्राह्मण बनाया जाता है। यथा :-

स्वाध्यायेन व्रतैर्होमैस्त्रैविद्येनज्ययासुतैः

महायज्ञैश्च यज्ञश्च ब्राह्मी यं क्रियते तनुः॥

स्वाध्याय, व्रत, होम, त्रियै विद्या के ज्ञान, धार्मिक सन्तानोत्पादन, यज्ञ तथा महायज्ञों से यह शरीर ब्राह्मण किया जाता है।

वेद जननी गायत्री की उपासना से स्वाध्याय, व्रत, वेदज्ञान आदि का आरम्भ होता है और यज्ञ का ताश्चर्या से सम्बन्ध है। इस प्रकार गायत्री माता और यज्ञ पिता से ही ब्राह्मणत्व का जन्म होता है। माता-पिता की महिमा बढ़ाना, उनके महत्व को उज्ज्वल एवं प्रकाशवान करना सत्पुत्र का कर्त्तव्य है। पूर्व काल में ब्राह्मण लोग बड़े प्रयत्न, उत्साह, लगन एवं श्रम से स्वयं गायत्री उपासना करते थे और सभी द्विजों को इस कल्याण कारक मार्ग पर प्रवृत्त करके उन्हें सुख शान्ति के परमलक्ष्य तक पहुँचाने का पुण्य लाभ करते थे। इसी प्रकार स्वयं यज्ञ करते थे और अन्य अधिकारियों को प्रेरणा पूर्वक यज्ञ करके विश्व कल्याण के एक महान परमार्थ का आयोजन करते थे। उन्हें यज्ञादिक में कोई दान दक्षिणा मिलती थी तो उसके एक कण का उपयोग भी व्यक्तिगत भोग ऐश्वर्य में नहीं करते थे वरन् इस हाथ लेकर उसे यज्ञ, गुरुकुल, ग्रन्थ निर्माण, सत्संग आयोजन, चिकित्सा, आदि कार्यों में लगा देते थे। ब्राह्मण का कर्त्तव्य ही यह था (1) विद्या पढ़ना-विद्या (2) दान लेना-दान देना (3) यज्ञ करना-यज्ञ कराना। स्पष्ट है कि ब्राह्मण जीवन की गतिविधि परमार्थ मय ही होती थी। वह वेद विद्या (गायत्री) यज्ञ और परमार्थ (दान) में निरन्तर संलग्न रहता था।

समय के कुचक्र ने ब्राह्मण का भी पतन कर दिया। वह अपने कर्त्तव्य धर्म को भुलाकर लोभ में फँसने लगा। कष्ट साध्य तपश्चर्याओं और लोक सेवा की प्रवृत्तियों से आँख चुराकर-पैर पुजाने और दक्षिणा बटोरने के लालच में फिसलने लगा। धीरे-धीरे जब यह प्रवृत्ति अधिक बढ़ी तो उसने दक्षिणा बटोरना ही अपना लक्ष्य बना लिया। जिस कार्य में उन्हें अधिक दक्षिणा मिल उसे ही करना उनने लक्ष्य बनाया। लोगों से कहने लगे स्वाध्याय, उपासना, तप, यज्ञ आदि में समय और धन खर्च करने की अपेक्षा भरपूर दक्षिणा हमें दो और स्वर्ग के अधिकारी बन जाओ। ऐसे अनेक श्लोक उनने पुस्तकों में सम्मिलित कर लिए और दक्षिणावाद का झण्डा गाड़ दिया। सारे धर्म कर्म की धुरी दक्षिणा बन गई।

ब्राह्मण को उसकी शारीरिक आवश्यकता की वस्तुएं अन्न, वस्त्र, दूध (गौ) यज्ञ में दी जाती थी ऐसा प्राचीन ग्रन्थों में उल्लेख है।

गौ दद्यात यज्ञवानन्ते ब्रह्मणे वासमी तथा।

-कात्यायन

यज्ञ के अन्त में ब्राह्मण को गौ और वस्त्र देना चाहिए। गौ, अन्न, वस्त्र जैसी सस्ती और अधिक संख्या में जमा करने में असुविधाजनक वस्तुओं को लेने के स्थान पर उसने सोना-चाँदी आदि कीमती और अधिक मात्रा में आसानी से संग्रह हो सकने वाली वस्तुओं के विधान बनाये। यथा-

सुवर्णं परमं दानं सुवर्णं दक्षिणा परा।

सर्वेषामेव दानानाँ सुवर्णं दक्षिणेष्यते।

सोने का दान ही परम दान है। सोने की दक्षिणा ही विशेष दक्षिणा है। दानों में स्वर्ण का दान ही प्रशंसनीय है।

एकादश स्वर्ण निष्काः प्रदातव्या सदक्षिणाः।

पलान्येकादश तथा दद्याद्वित्तानुसारतः

अन्येभ्योऽपि यथाशक्ति द्विजेभ्यो दक्षिणें दिशेत्

यज्ञ कराने वाले को 15 अशर्फी देनी चाहिए। अपनी सामर्थ्य ठीक हो तो 44 तोले सोना देना चाहिए। अन्य ब्राह्मणों को भी शक्ति भर दक्षिणा देनी चाहिए।

‘दक्षिणा च फलप्रदा।’ दक्षिणा ही फल देने वाली है। ‘सर्वेषा कर्मणं देवि सारभूता च दक्षिणाँ।’ सब कर्मों में दक्षिणा ही सार है। ‘दक्षिणा दक्षतेः समर्धयात कर्मणः व्यद्ध सलर्धयतीति।’ यदि यज्ञ कर्म में कुछ न्यूनता रह जाती है तो दक्षिणा बढ़ा देने से उसकी पूर्ति हो जाती है।

माषाणं षोडशादूर्ध्व कुर्याद्धेम पवित्रकम।

तेभ्यः स्वल्पतरं न्यूनं न कुर्वीत् कदाचन॥

सोलह मासे से अधिक भारी सोने की पवित्री बनावे। इससे जरा भी कम वजन न हो।

वस्त्र युग्मं महावस्त्रं केयूरं कर्णभूषणम।

अंगुलिभूषणश्चैव मणि बन्धस्य भूषणम।

कण्ठाभरण युक्तानि प्रारम्भे धर्म कर्मणः।

पुरोहिताय दत्वाऽय ऋत्विग्भ्यश्चापि दाप्येत्॥

- लिंग पुराण

धोती, दुपट्टा, दुशाला, कानों के आभूषण, कर्ण फूल, अंगूठी कंगण, गले का हार यह वस्तुएँ धर्म कर्म आरम्भ करते ही पुरोहित और ऋषित्वों को दान करें।

दक्षिणात्द्युत्तमा मध्यमाचाधमेति त्रिधामता।

तत्र सौवर्ण निष्काणि दस साहस्त्रिकोत्तमा।

तदर्धं मध्यमा प्रोक्ता तृतीया त्रिसहाका॥ -महार्णवे

दक्षिणा तीन प्रकार की कही गई है। उत्तम 10 हजार निष्क (36250 रुपया) मध्यमा 5 हजार निष्क (18125 रुपया) अधम दक्षिणा 3 हजार निष्क (10875 रुपया) होती है।

कभी-कभी ऐसा भी होता था कि मन चाही दक्षिणा न दे सकने पर यजमान लोग दक्षिणा उधार कर देते थे। उधार पटाने की जब उनमें सामर्थ्य न होती थी, ब्राह्मण तकाजा करते थे, फिर भी वह वसूल न हो पाता था, ऐसी दशा में यजमान को नरक जाने का भय दिखाया गया। देखिए-

कर्ताकमणि पूर्णोऽपि तत्क्षणात यदि दक्षिणाम्।

न दद्यात् ब्राह्मणेभ्यश्च दैवेनाज्ञानतोऽथवा।

मुहूर्ते समतीते च द्विगुणा सा भवेद् ध्रुवम्॥

एकरात्रे व्यतीते तू भवेद्दस गुणा च सा।

त्रिरात्रेवै दशगुणं सप्ताहे द्विगुणा ततः।

मासे लक्षगुणा प्रोक्ता ब्राह्मणानाँ व वर्द्धते।

सम्वत्सरे व्यतीते तु सा त्रिकोटि गुणा भवेत्।

कर्म तद् जमानानाँ सर्व वै निष्फलं भवेत।

स च ब्रह्मस्वापहारी न कर्मार्होऽशुचिर्नेरः।

दरिद्री व्याधि युक्तश्च तेन पापेन पातकी।

तद्गृहाधाति लक्ष्मी च शापं दत्वा सुदारुणम्।

पितरो नैव गृह्णन्ति तद्दतं श्राद्ध तर्पणम्।

एवं सुराश्च तत्पूजाँ तद्दत्रं पावका हुतम्।

-ब्रह्मवैवर्त

यज्ञ आदि कार्य पूरा हो जाने पर भी जो दैव योग से अज्ञानवश दक्षिणा नहीं देता तो प्रति क्षण वह दक्षिणा दूनी होती जाती है। एक रात बीत जाने पर छः गुनी, तीन रात बीत जाने पर दस गुनी, सात दिन बीत जाने पर बीस गुनी, एक महीना बीत जाने पर लाख गुनी, एक वर्ष बीत जाने पर करोड़ गुनी हो जाती है। और यजमान का वह सब कर्म निष्फल हो जाता है। वह यजमान ब्रह्मधन का चोर, सत्कर्मों के अयोग्य, और अपवित्र हो जाता है। तथा उस भयंकर पाप के कारण दरिद्री एवं व्याधि ग्रस्त हो जाता है। लक्ष्मी उसके घर से कठिन श्राप देकर अन्यत्र चली जाती है। पितृगण उसके हाथ का श्राद्ध तर्पण ग्रहण नहीं करते। देवता उसकी आहुति तथा पूजा को स्वीकार नहीं करते।

नार्ययेद् यजमानश्च्ौद् याचितारं च दक्षिणाम्।

भवेद् ब्रह्म स्वापहारी कुम्भी पाकं व्रजेद् ध्रुवम्।

ततो भवेत् स चाण्डालो व्याधि युक्ते दरिद्रकः।

पातयेत् पुरुषान सप्त पूर्वकान् वे पूर्व जन्मनः।

उधार की हुई दक्षिणा का तकाजा करने पर भी यदि यजमान दक्षिणा नहीं देता तो वह ब्रह्म धनहारी निश्चय ही कुम्भी पाक नरक में पड़ता है वहाँ एक लक्ष वर्ष रहता है और यम दूतों द्वारा कुटता-पिटता है। इसके बाद वह चाण्डाल, व्याधि ग्रस्त, दरिद्री बनता है। उसकी सात पीढ़ी के पूर्वज नरक में चले जाते हैं।

यत्कर्म दक्षाणाहीनं कुरुते मूढ़धीशठः।

सपापी पुण्य हीनश्च.......॥

जो दक्षिणा रहित कर्म करता है वह मूढ़ बुद्धि शठ, पापी, पुण्य हीन है।

यों यज्ञ कराने वाले ब्राह्मणों को दक्षिणा देना उचित और आवश्यक है, शास्त्रों में इसका उल्लेख भी है। साधारण विवेक बुद्धि से सभी यज्ञ कराने वाले यथा शक्ति देते भी है पर दक्षिणावाद को-ऐसे निकृष्ट रूप में उपस्थित करने से यज्ञ कराने वालों का मान बढ़ा नहीं, वरन् घटा ही। दक्षिणा और ब्रह्मभोज का बहुत बोझ होने पर यजमान लोगों के लिए यज्ञादि करना कठिन हो गया। उनकी उपेक्षा होने लगी और धीरे-धीरे उनकी प्रथा ही घट गई। उसकी हानि सभी को हुई, ब्राह्मणों को सोने का अण्डा देने वाली मुर्गी का पेट चीरने की कोशिश से केवल पछताना हाथ लगा। यजमान यज्ञ से प्राप्त होने वाले लाभों से वंचित हो गये। संसार में अवाँछनीय वातावरण बड़ा और उसकी शुद्धि न होने से जनता दैवी कृपाओं से वंचित होकर सुख शान्ति से वंचित हो गई। इस प्रकार दक्षिणावाद किसी के पक्ष में भी हितकर सिद्ध न हुआ, वरन् सभी की हानि हुई। यज्ञ रहित ब्राह्मण अपने ब्राह्मणत्व से च्युत हुए और उनने अपनी वेदमाता तथा यज्ञपिता को उपेक्षित, लाँछित एवं अस्त-व्यस्त दशा में डाल दिया। अब ऐसे विद्वान याज्ञिकों की आवश्यकता है जो यज्ञ विद्या का प्रसार करने के लिए निर्लोभ एवं निःस्वार्थ भाव से उद्यत हों। तभी यज्ञ विद्या का समुचित विकास होना सम्भव है।

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