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Magazine - Year 1954 - Version 2

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यज्ञ में सहयोग करना कर्त्तव्य है।

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यज्ञ की उपेक्षा करना, निन्दा करना, असहयोग करना या उसमें विघ्न उत्पन्न करना बहुत ही निन्दनीय बात है। शास्त्रकारों ने ऐसे लोगों की निन्दा की है और उन्हें अधोगामी बताया है। ऐसी स्थिति से बचने का सभी को प्रयत्न करना चाहिए। यथासम्भव स्वयं यज्ञ करना उचित है, कम से कम दूसरों के प्रयत्न में उत्साह जनक सहयोग तो अवश्य ही करना चाहिए।

तामिस्त्रमन्धतामिस्र महा रौरव ररवौ।

असिपत्र वनं घोरं कालसूत्र भव चिकम्।

विनिन्दकाकाँ वेदस्य यज्ञ व्याघात कारिणाम्। स्थान मेतत् समाख्यातं स्वधर्म त्यागिनश्चवे।

-विष्णु पुराण 6।1।41-42

वेद की निन्दा करने वाले तथा यज्ञ में विघ्न पहुँचाने वाले धर्म घाती के लिए तामिस्र, अन्धतामिस्र, रौरव, महारौरव, असिपत्र तथा कालसूत्र नामक नरक बने हुए हैं जहाँ वह चिरकाल तक घोर कष्ट पाता है।

देवान ह चै यज्ञेन यजमानास्तानसुररक्षसानि ररक्षुर्न यक्ष्यध्वमिति। यद्यदरक्षं स्तस्माद्रक्षाँसि।

-शतपथ

एक समय देवगण यज्ञ कर रहे थे। राक्षसों ने उनके यज्ञ में अनेक प्रकार के विघ्न किये और कहा यज्ञ न करो। इसी कारण उनकी राक्षस संज्ञा हुई। राजा बेन ने घोषणा की थी।

न यष्टव्यं न दातव्यं न होतव्यं द्विजाः क्वचित।

-भागवत 4।14।6

अर्थात् उसके राज्य में यज्ञ और दान न हों, उनकी यह नीति ही उसे दुर्गति को ले गई।

गीता में भगवान ने यज्ञ रहित मनुष्य की भर्त्सना करते हुए कहा है कि ऐसे मनुष्यों के लोक और परलोक दोनों बिगड़ते हैं।

नायं लोकोऽस्त्य यज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम।

-गीता

हे अर्जुन, यज्ञ न करने वाले को इस लोक का भी सुख नहीं मिलता, फिर परलोक के सुख की तो बात ही क्या है।

नास्त्य यज्ञस्य लोको वै नायज्ञो विन्दते शुभम्।

अयज्ञो न च पूतात्मा नश्यतिच्छिन्न पर्णवत

-शंख

यज्ञ न करने वाला मनुष्य लौकिक और पारलौकिक सुखों से वंचित हो जाता है। यज्ञ न करने वाले की आत्मा पवित्र नहीं होती और वह पेड़ से टूटे हुए पत्ते की तरह नष्ट हो जाता है।

या वै प्रजायज्ञे अनन्वाभक्ताः पराभूता वै ताः। एवमेवैतद्या इमाः अपरा भूतास्ता यज्ञमुखं आभजति।

(कृष्ण यजु॰ 3। 1 20)

जो लोग यज्ञ में सहयोग नहीं करते वे निन्दनीय हैं। यज्ञ में सहयोग करने वाले लोग ही प्रशंसा के पात्र हैं।

अयज्ञियो हतवर्चा भवति। अथर्व 12 । 2 । 37

यज्ञ रहित मनुष्य का तेज नष्ट हो जाता है।

इसलिए यज्ञ की न तो उपेक्षा करनी चाहिए और न उसका कभी असहयोग करना चाहिए। वरन् जहाँ सुन पाये कि अमुक जगह यज्ञ हो रहा है वहाँ बिना बुलाये आ पहुँचे और श्रद्धा पूर्वक परमार्थ बुद्धि से उसमें सहयोग करें। कहा भी है-

अनाहूतोऽध्वरं व्रजेत्।

अर्थात्- बिना बुलाया भी यज्ञ में सम्मिलित हो।

जो लोग सार्वजनिक यज्ञों की व्यवस्था करते हैं उन्हें एक बात ध्यान में रखनी चाहिए कि यज्ञ के निमित्त संग्रह हुए व दान में आये हुए धन में से एक पाई भी स्वार्थ में न लगावें। यज्ञ के धन में से चुराया हुआ पैसा मनुष्य की घोर दुर्गति का कारण होता है। यथा-

यज्ञार्थमर्थभिक्षित्वा यो न सर्व प्रयच्छति।

स याति भासताँ विप्रः काकताँ वा शतं समाः।

-मनु

यज्ञ के निमित्त इकट्ठे किये समस्त धन को जो यज्ञ में ही नहीं लगाता, वह सौ वर्ष तक मुर्गे या कौए की योनि में दुख भोगता है।

यज्ञार्थ लब्धमददद् मासः को कोऽपि वा भवेत्।

-आचराब्याय 127

जो व्यक्ति यज्ञ के लिए एकत्रित धन को पूर्णतया यज्ञ में ही नहीं लगा देता वह कौए या मुर्गे की योनि में जाता है।

यज्ञ में रही हुई त्रुटियाँ

यज्ञ में जिन वस्तुओं की आवश्यकता है, कई बार वे सब उपलब्ध नहीं होती। कई बार यज्ञ आदि कर्म करने की इच्छा रखने वाले की परिस्थिति ऐसी नहीं होती कि उन सब वस्तुओं को जुटा सके। धनाभाव, समयाभाव अथवा जानकारी की कमी से सब वस्तुएं प्राप्त नहीं हो सकती, जिनका उस में विधान है। ऐसी दशा में कितने ही व्यक्ति निराश हो जाते हैं और उस शुभ कर्म को करने का विचार ही छोड़ देते हैं। कारण यह है कि कई अविवेकी मनुष्य इस प्रकार का भय लगा देते हैं कि पूर्ण विधान की सम्पूर्ण वस्त्र पूरी-पूरी मात्रा में न होंगी तो यज्ञ निष्फल हो जायगा या उसका विपरीत परिणाम होगा, कोई उल्टी हानि होगी। यथाशक्ति, सामर्थ्यानुसार या जितना भी बन पड़े उतना भी शुभ है। जो अशर्फी दान नहीं कर सकता, वह पैसा भी दान न करे यह कोई दलील नहीं हैं जो अशर्फी या रुपया दान नहीं कर सकता, वह पाई पैसा जो कुछ भी सत्कर्म में लगा दे उतना भी उत्तम ही है। अन्य शुभ कर्मों की भाँति यह बात यज्ञ पर भी लगा होती है। ऋषियों ने इस सम्बन्ध में भली प्रकार स्पष्टीकरण किया है और बताया है कि लिखी हुई वस्तुएं उपलब्ध न होने पर उनके स्थान पर अन्य वस्तुएं लेकर भी काम चलाया जा सकता है या कम वस्तुएं भी इस्तेमाल की जा सकती हैं। देखिये-

घृतार्थे गोघृतं ग्राह्यं तदभावे तु माहिषम्।

आजं वा तदभावे तु साक्षत्तैलमयीप्यते॥

तैलाभावे ग्रहीतव्यं तैलं जर्तिल सम्भवम्॥ तद्भावेऽतसीस्नेहः कौसुम्भः सर्पषोद्धवः॥ वृक्षास्नेहीऽथवा ग्राह्यः पूर्णलाभे परः परः।

तदभावे यव व्रीहि श्यामाकान्यतमोद्भवः।

-मण्डन।

यज्ञ में गाय का घी सर्वोत्तम है। वह न मिले तो भैंस का घी लें। उसके अभाव में बकरी का, वह भी न हो तो शुद्ध तेल-जर्तिल, तीसी, कुसुम या सरसों का लें। वह भी प्राप्त न हो तो गोंद या जौ, चावल, साँवा आदि की चिकनाई से काम चलाएं। ऐसा ही मत बोधायन का भी हैं-

यथोक्तवस्त्व संपतौ ग्राह्यं तदनुकारियेत्।

यवानाभिव गोधूमा ब्रीहीणामिव शालयः

आज्यंद्रव्य मनादेशे जुहोतिषु विधीयते।

दध्य लाभेपयः कार्य मघ्व लाभे तथा गुडः।

घृत प्रतिनिधिं कुर्यात्पयोवादधिवा बुधः।

आज्यहोमेषु सर्वेषु गव्य मेव घृतं भवेत।

तदभावेमहिष्यास्तु आजमाविकमेववा।

तदभावे तुतैलं स्यात्तदभावेतुजार्तिलम्॥

तद्भावेतु कौसुम्भं तदभावे तु सार्पषम्।

होमादि कर्म में विहित वस्तु प्राप्त न होने पर उसी के तुल्य अन्य पदार्थ से काम चलावे। जैसे जौ के न मिलने पर गेहूं, ब्रीहि (बढ़िया चावल) न मिलने पर शालि के चावल, सुतों के अभाव में काँस कर, दही के अभाव में दूध, मधु के अभाव में गुड़, घी के स्थान पर दूध या दही लेवे। घी से मतलब गौ घृत का है पर न मिले तो भैंस, बकरी या भेड़ का ले लें, वह भी न मिले तो तिल के, कसूम के, सरसों आदि के तेल से होम करें।

शतपथ ब्राह्मण 11। 2। 4 ।4 में याज्ञवलक्य जी आपातकालीन हवन के सम्बन्ध में इस प्रकार अपना अभिमत प्रकट करते हैं,

‘यत्पयोनस्यात् केन जुहुयात।’

प्रश्न- यदि दूध घी न हो तो किससे हवन करें?

‘ब्रीहियवाभ्यामिति।’

उत्तर- धान या जौ से करें।

“ब्रीहि यवौ न स्याताँ केन जुहुयात?”

प्रश्न- यदि धान और जौ भी न हों तो किससे हवन करें?

“या अन्या ओषधय इति,”

उत्तर- जो और औषधियाँ हों उनसे ही करें।

‘यदन्या ओषधयो न स्युः केन जुहुया इति?’

प्रश्न- यदि अन्य औषधियाँ भी न हों तो क्या होम करें?

‘या आरण्या औषधय इति-’

उत्तर- जंगली अनाज से करें।

‘यदि आरण्या औषधयों न स्युः केन जुहुयाँ इति?’

प्रश्न- यदि जंगली अनाज भी न हो तो क्या करें?

‘वानस्पत्येनेति’

उत्तर- वनस्पतियों का हवन करें।

यदि वानस्पत्यं न स्यात केन जुहुयात्?

प्रश्न- यदि वनस्पतियाँ भी न हो तो क्या करें?

‘अद्भिरिति’

उत्तर- जल से ही होम करें।

यदापोनस्युः केन जुहुया इति?

प्रश्न- यदि जल भी न हो तो क्या करें?

नवाऽइह तर्हि किंच ना सीदथैतद हुतैव सत्यं श्रद्धायामिति।

यदि कुछ न हो तो बिना आहुति दिये ही श्रद्धा रूपी अग्नि में सत्य रूपी हविष्य की आहुति दें।

कुछ भी हव्य वस्तु न मिलने पर केवल समिधाओं से भी हवन करने का वेदों में उल्लेख आता है। देखिए-

यदग्ने कानि कानि चिदाते दारुणि दध्मसि।

ताजुषस्वय विष्ठय।

नहि में अस्त्यध्यना न स्वधितिर्वनन्वति।

अथैता दृग् भरामिते। ऋग्वेद 8।102।19,20

हे अग्नि देव, मैं केवल छोटी-छोटी समिधाएँ लाया हूँ। इन्हें ही स्वीकार करो। मेरे पास न तो घी उत्पन्न करने वाला गौ है और पेड़ काट कर बड़ी समिधाएँ ला सकने लायक कुल्हाड़ी है। इसलिए जो कुछ लाया हूँ उसे ही स्वीकार करो।

गीता में भगवान ने स्पष्ट किया है कि शुभ कर्मों का कभी अशुभ परिणाम नहीं होता। “प्रत्यवायो न विद्यते” का आशय यही है कि सत्कर्म का अच्छा ही फल होता है बुरा नहीं। बुरा परिणाम तो कुविचारों या दुष्कर्मों से ही होना सम्भव है। सत्कर्मों में कोई त्रुटि रह भी जाय तो भगवान से सच्चे हृदय से क्षमा प्रार्थना कर लेने पर उसका दोष दूर होता है। यज्ञ के अन्त में ऐसी ही क्षमा प्रार्थना की भी जाती है जिससे उसमें रही हुई त्रुटियों का सहज ही परिमार्जन हो जाता है। कहा गया है कि-

प्रमादात् कुर्वताँ कर्म प्रच्यवेताध्वरेषुयत्। स्मरणादेव तद्विष्णोः सम्पूर्णं स्यादितिश्रुतिः॥

प्रमाद आदि कारणों से यदि कोई गलती यज्ञ कर्म में रह जाती है तो भगवान से स्मरण मात्र से ही उसकी पूर्णता हो जाती है। ऐसे ही अभावों की पूर्ति के लिए क्षमा याचना स्वरूप यज्ञ के अन्त में भगवान से प्रार्थना की जाती है-

यस्य स्मृत्या च नामोक्त्या तपो यज्ञक्रियादिषु। न्यून सम्पूर्णताँ याति सद्योवन्दे तमच्युतम॥

जिनके स्मरण एवं नामोच्चारण से तप यज्ञ आदि की न्यूनता तुरन्त पूर्ण हो जाती है उन भगवान को मैं भक्ति पूर्वक प्रणाम करता हूँ।

यज्ञ भावना भारतीय संस्कृति की मूलभूत भावना है। भारतीय जीवन यज्ञमय होता है। उसके आदर्श, उद्देश्य, विचार, भाव एवं कार्यों में यज्ञ भावना ओत-प्रोत रहनी चाहिए। यज्ञ का अर्थ है दान, संगतिकरण, देव पूजन। भारतीय संस्कृति की शिक्षा है कि हमारे जीवन में उदारता, लोक सेवा परमार्थ समाज हित एवं आत्म त्याग के लिए प्रमुख स्थान होना चाहिए यही दान है। एकता, मेल, संगठन, सद्भाव, शिष्टाचार, आत्मीयता, प्रेम, सहयोग आदि गुण संगतिकरण शब्द के अंतर्गत आते हैं। सत्पुरुषों का आदर, मर्यादाओं का अनुशासन सूक्ष्म अध्यात्मिक तत्वों के प्रति सुदृढ़ आस्था-यह देव पूजन है। इन अर्थों को जो जितना ही अपने व्यावहारिक जीवन में संमिश्रित करता है वह उतना ही बड़ा याज्ञिक है।

हर मन्त्र के साथ हम ‘स्वाहा’ बोलते हैं। स्वाहा का अर्थ है- मधुर भाषण। हमारे मुख से जब भी वाक् देवी-वाणी निकले तब वह कल्याण कारक, शान्ति दायक, एवं साधनाओं से परिपूर्ण हो। आहुतियों के अन्त में ‘इदमनमम’ कहते हैं। इसका तात्पर्य है कि शुभ कर्मों को भी यश आदि स्वार्थों की दृष्टि से नहीं परमार्थ के उद्देश्य से ही करना चाहिए। इदमनमम- यह मेरा नहीं है। जो कुछ भी अच्छा चाहिए अपने को नहीं। इसी प्रकार साँसारिक वस्तुओं-धन, सम्पदा, स्वास्थ्य समय आदि को अपना ही मानना अपने ही स्वार्थ के लिए प्रयुक्त करना अनुचित है। इदमनमम- यह मेरा नहीं है यह तो परमार्थ के निमित्त सौंपी हुई अमानत है। ऐसा ही अपने धन वैभव के बारे में सोचना चाहिए। यज्ञ भावना लोभ, मोह, स्वार्थ, मद आदि निकृष्ट वृत्तियों का परिमार्जन कर हमें सच्चा मनुष्य बनाती है। यज्ञ भावना ही संसार की समस्त गुत्थियों का एकमात्र हल है। इस भावना को जीवित जागृत रखने के लिए यज्ञ किए जाते हैं। अनेक भौतिक लाभों के अतिरिक्त यज्ञ का प्रधान लाभ और उद्देश्य यही है। यज्ञ भावना को सजीव रखना हमारा कर्त्तव्य है।

इस मास का सर्वश्रेष्ठ यज्ञ

कुम्भ के अवसर पर गायत्री परिवार की ओर से सवालक्ष व्यक्तियों को गायत्री विद्या का ज्ञान दान करने का संकल्प गत अंक में छपा था। वह एक अत्यन्त ही महत्वपूर्ण संकल्प है। क्योंकि गायत्री साधना बढ़ेगी तब जब उसके सम्बन्ध में समुचित जानकारी हो। आज तो लोग गायत्री विद्या का महत्व और विज्ञान जानना तो दूर, उसका नाम तक नहीं जानते। इसलिए यदि भारत भूमि में प्राचीन काल की भाँति गायत्री माता की पुनः प्रतिष्ठा करनी है, इस महाशक्ति से भारत माता को प्राचीन वैभव, गौरव एवं बल से सुसज्जित करना है तो निश्चय ही पहला कार्य गायत्री माता के महत्व से जनता को परिचित कराना ही होगा। इस कार्य को पूरा करने की जिम्मेदारी हम सब गायत्री उपासकों की है। यह कुम्भ पर्व 12 वर्ष बाद आता है। इसका एक मात्र उद्देश्य ज्ञान प्रसार है। प्राचीन काल में लम्बी यात्राएं करके अपनी साधनाएं छोड़कर महात्मा ज्ञानी, विद्वान कुम्भ पर पहुँचते थे और जनता को सद्ज्ञान की शिक्षा देते थे। आज सभी अव्यवस्थाओं की भाँति कुम्भ पर्व भी मेला ठेला बनता जा रहा है पर उसके मुख्य उद्देश्य में तनिक भी परिवर्तन नहीं होता। ज्ञान प्रसार ही उसका उद्देश्य है। इसको जो जितनी मात्रा में पूरा करता है वह उतना ही कुम्भ पर्व का फल प्राप्त करता है।

हम सब लोग इस पर्व पर ‘महा’ अभियान का आयोजन कर रहे हैं। यह एक अश्वमेध से अधिक पुण्य फलदायक है। इस यज्ञ में भाग लेने के लिए भावना, समय और श्रम की अधिक आवश्यकता है। अन्य होम यज्ञ केवल धन खर्च कर देने मात्र से भी हो सकते हैं। पर इस अभिज्ञान यज्ञ में शामिल होने वालों को उसी प्रकार भावना श्रम तथा समय लगाना आवश्यक है। जिस प्रकार सवा लक्ष अनुष्ठान में 40 दिन तक और 24 हजार अनुष्ठान में 9 दिन तक निष्ठापूर्वक नियमित समय लगाना पड़ता है। ‘अभिज्ञान’ तप नारद जी करते थे। अन्य कोई ऋषि इस तप को न कर सका और न नारद की भाँति भगवान का प्रिय बन सका। नारद जी कुछ घड़ी भी एक स्थान पर नहीं ठहरते थे और भगवद् भक्ति के प्रसार में ही सारा समय लगाते थे। यही उनकी एकमात्र साधना थी। इस अद्भुत साधना ने ही उन्हें भगवान का प्राणप्रिय आत्मीय बना दिया था।

हममें से अनेक लोग अपने-अपने आत्मिक या भौतिक स्वार्थों के लिए समय-समय पर जप अनुष्ठान, होम, दान, तप आदि करते हैं। माता हमारे रोने पर दवा करके चुप करने के लिए कुछ वस्तु कुछ दम-दिलासा देती भी है। पर रोने मात्र से माता का वात्सल्य कौन प्राप्त कर सका है? अपनी बात आगे न रखकर माता की प्रसन्नता के लिए जो बालक कुछ करता है वह रोने वाले की अपेक्षा माता के हृदय में अपना स्थान बना लेता है।

इस बार ऐसा ही अवसर है जबकि हमें अपने लाभों के लिए नहीं वरन् माता का गौरव बढ़ाने के लिए ही वह अभिज्ञान करें। 40 दिन 24 दिन या 9 दिन का पूरा समय इस महानुष्ठान के लिए देकर नारद ऋषि की साधना का एक छोटा अनुकरण करें, जिस प्रकार हम अपनी कन्या के विवाह में, मेम्बरी जीतने में, व्यापार में प्रियजनों की बीमारी में, भयंकर मुकदमे से जी-जान एक कर देते हैं, खाना-सोना भूल जाते हैं, हानि-लाभ की परवाह नहीं करते, इस प्रकार की तत्परता के साथ हम कुछ समय माता के निमित्त, उसका गौरव बढ़ाने के लिए लगावें तो निश्चय ही यह कार्य एक साधारण महत्व के अनुष्ठान एवं यज्ञ की अपेक्षा भी अधिक सत्परिणाम उत्पन्न करेगा, वह हमें माता के अधिक समीप जायेगा। ज्ञान प्रसार से बढ़कर और कोई पुण्य इस भूतल पर नहीं है। जिनने अभी तक इस दिशा में कुछ नहीं किया है। वे आज ही कुछ करने की योजना बनावें, जो कुछ कर चुके हैं उन्हें और अधिक करना चाहिए। अत्यन्त ही सुन्दर तिरंगे मुख पृष्ठों की बहुत सस्ती पुस्तिकाएँ केवल इसी उद्देश्य के लिए छापी गई हैं। (1) गायत्री की गुप्त शक्ति (2) सुख-शान्ति दायिनी गायत्री (3) गायत्री से बुद्धि विकास (4) गायत्री की दिव्य सिद्धियाँ (5) गायत्री का अर्थ सन्देश (6) स्त्रियों की गायत्री साधना (7) गायत्री उपासना कैसे करें? (8) गायत्री से यज्ञ का संबंध, आठों ही पुस्तकें गायत्री विद्या सम्बन्धी बहुत कुछ जानकारी उपस्थित करती है। इस पूरे सैट का मूल्य दस आना मात्र है, 14 जनवरी मकर संक्रान्ति से होकर 13 फरवरी कुम्भ संक्रान्ति तक इस साहित्य को बेचने या उपहार देने के लिए हम सब पूरा-पूरा प्रयत्न करें, प्रतिदिन 1 के हिसाब से 20 दिन में 30 सैट प्रसारित करने का प्रयत्न सफल होना बहुत सरल है। 1) की पुस्तकें बेच सकना या वितरण कर सकना कोई ऐसा कार्य नहीं हैं जिसे थोड़ी सी भी इच्छा, श्रद्धा, भावना और सामर्थ्य रखने वाला व्यक्ति न कर सके। जो इतना भी न कर सके वे 10 सैट) को तो प्रचारित कर ही सकते हैं।

यह तो एक साधारण ‘कोटा’ है जिसको पूरा करने की आशा उन सभी से की जानी चाहिए जो अपने को ‘गायत्री माता का भक्त’ कहते हैं। जो समय-समय पर अपने मतलब के लिए तो माता को पुकारते हैं पर उसकी प्रतिष्ठा एवं प्रसन्नता के लिए कुछ नहीं करना चाहते ऐसे लोगों की श्रद्धा संदिग्ध ही मानी जायगी। हम चाहते हैं कि कुछ ऐसे भी व्यक्ति निकलें जो इस पुण्य पर्व के अवसर पर अपना पूरा समय इसी कार्य में लगायें। पूर्व काल में अनेक उदाहरण ऐसे मिलते हैं जिनमें आध्यात्मिक मार्गों के साधनों की कष्ट सहिष्णुता, तप, त्याग, तथा सामर्थ्य से बहुत ऊँचे प्रण पूरे करने के चरित्र हैं। क्या आज कोई भी उदाहरण नहीं हो सकते? यह अवसर ऐसी ही परीक्षा का है, हम चाहते हैं कम से कम कुछ उदाहरण ऐसे अवश्य ही सामने आवें जिन पर गायत्री परिवार गर्व कर सके और उनसे प्रकाश लेकर अन्य व्यक्ति अपने पैरों की गति को तीव्र कर सकें। हमें ऐसी कुछ आत्माएँ दिखाई पड़ रही हैं उनके प्रयत्नों का सचित्र उल्लेख पाठक अगले अंकों में इन पंक्तियों में देखेंगे। कुम्भ पुण्य पर्व के लिए प्रकाशित हुए सस्ते सुन्दर गायत्री साहित्य का विस्तार करना अभिज्ञान की नारदीय योजना का प्रधान कार्यक्रम है। हम में से हर एक इसके लिए शक्ति भर प्रयत्न करे। अकेला या अपनी मण्डली समेत प्रचार के लिए निकले और अपने स्वजनों, मित्रों, परिचितों को गायत्री का महत्व बताते हुए इस साहित्य को दें। तथा उन्हें प्रभावित करे कि वे भी कुछ धन इस कार्य में खर्च करें। इस प्रकार अनेक व्यक्तियों का जो कोई सहयोग प्राप्त कर सकेगा वही अधिक कार्य कर पावेगा। यह ध्यान रखना चाहिए कि पुस्तकें साधुओं या ब्राह्मणों को ही देने के लिए नहीं है। उनमें तो बहुत कम अधिकारी मिलते हैं। इनका प्रचार तो साधारण धार्मिक जनता में करना हैं। इसलिए दवादारु के नोटिसों की तरह चाहे जहाँ इनको बाँट देना उचित नहीं। इसका प्रचार क्षेत्र मुख्य तथा धार्मिक वृत्ति के सद्गृहस्थों में होना चाहिए। अपने नगर में ही नहीं इन्हें तो डाक द्वारा परिचितों, मित्रों, स्वजन संबंधियों में भेजना चाहिए और हो सके तो उन्हें गायत्री उपासना की प्रेरणा के लिए एक-एक पत्र भी लिखना चाहिए।

इस पुण्य पर्व पर किया हुआ संकल्प अधूरा नहीं रहना चाहिए। सवालक्ष व्यक्तियों का गायत्री का ज्ञान देने के लिए हमें असाधारण श्रम तथा साहस का परिचय देना है। अपने लिए हम जीवन भर पुरुषार्थ करते रहे हैं। आइए, इस बारह वर्ष बाद आने वाले पुण्य पर्व पर माता का गौरव पुनः प्रतिष्ठित करने के लिए भी कुछ त्याग, परिश्रम एवं पुरुषार्थ करें।

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