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Magazine - Year 1954 - Version 2

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इस शिक्षा प्रणाली में परिवर्तन होना चाहिए।

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(श्री राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद)

पटना विश्वविद्यालय के समावर्तन में दीक्षान्त भाषण करते हुए राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने वर्तमान शिक्षा पद्धति पर महत्वपूर्ण प्रकाश डाला था। उसका एक अंश नीचे उपस्थित है-

विवेक बुद्धि और विचार शक्ति

मेरा यह मत है कि शिक्षा के तीन उद्देश्य होते हैं। जिनमें से दो उद्देश्य तो व्यक्ति के अपने निजी जीवन से सम्बन्ध रखते हैं और तीसरा व्यक्ति के सामूहिक जीवन से सम्बन्धित है। प्रथमतः शिक्षा का प्रयोजन है कि व्यक्ति की ईश्वर प्रदत्त यह सहज विवेक बुद्धि मानव को जन्म से ही प्रकृति या ईश्वर से मिली हुई होती है किन्तु अपनी नैसर्गिक अवस्था में इसकी सामर्थ्य और सक्षमता अत्यन्त सीमित होती है। यदि कोई व्यक्ति केवल उसी के सहारे छोड़ दिया जाय तो अपनी देश काल की सीमाओं के कारण वह उससे न तो अपना ही कोई लाभ उठा सकेगा और न अपने अन्य भाइयों का कोई भला कर सकेगा। किन्तु यदि उसकी विवेक बुद्धि को पिछली पीढ़ियों की संचित अनुभूति से सम्पन्न कर दिया जाता है तो उसकी शक्ति ओर सक्षमता बहुत बढ़ जाती है। क्योंकि उस अवस्था में उसे अपने और बाह्य चराचर जगत के बारे में ऐसी अनेक उपयोगी और आवश्यक बातें ज्ञात हो जाती हैं जिन्हें वह केवल अपनी विवेक या विचार शक्ति से न जान सकता था। दूसरे शब्दों में इस प्रक्रिया द्वारा उसकी विवेक बुद्धि इतनी सक्षम और सामर्थ्यवान हो जाती है कि उसके सहारे वह अपने को और अपने चारों ओर के जड़ और सजीव को समझने और उसमें रहकर अपने जीवन को ठीक दशा में चलाने के योग्य होता है। यह कहना अनुचित न होगा कि हर नई सीढ़ी को पिछली सीढ़ी की अनुभूति से परिचित और सम्पन्न करना और ऐसा करके नई सीढ़ी की विवेक बुद्धि को और विचार शक्ति को और अधिक सामर्थ्यवान बनाना इसी प्रक्रिया को शिक्षा कहा जाता है।

कर्मेन्द्रिय का प्रशिक्षण

शिक्षा का दूसरा प्रयोजन यह है कि प्रत्येक मानव को अपनी कर्मेन्द्रियों का ऐसा प्रयोग सिखाये जो उसे अपनी शारीरिक और अन्य प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए योग्य बना सके। इन कर्मेन्द्रियों के उचित प्रयोग के लिये ज्ञान की तो आवश्यकता होती है साथ ही सभ्यता की भी आवश्यकता होती है। कितना ही सबल व्यक्ति क्यों न हो, कितना ही स्फूर्तिमय क्यों न हो, वह तब तक कुछ अधिक फलमय कार्य नहीं कर सकता जब तक कि उस कार्य के सम्पादन के लिए उसकी कर्मेन्द्रिय को आवश्यक प्रशिक्षा न मिली हो अथवा उन्हें उसका अभ्यास न कराया गया हो।

साथ रहने की कला

शिक्षा का तीसरा प्रयोजन मेरे विचार में यह है कि अपने जैसे ही सब व्यक्तियों के साथ रहने और उनके साथ काम करने के लिए आवश्यक गुणों का व्यक्ति में उदय हो जाना। इच्छा से अथवा अनिच्छा से प्रत्येक व्यक्ति को अपने ही जैसे अन्य व्यक्तियों के साथ तो रहना ही पड़ता है। कोई भी दुनिया से दूर अपनी-अलग कुटिया नहीं बना सकता और न बना पाता है। एकाकी जीवन कवि की सुन्दर कल्पना के अतिरिक्त वास्तविक तथ्य न तो है और न हो सकता है। कुछ क्षण के लिए चाहे व्यक्ति एकाकी रह सके किन्तु सर्वदा वह एकाकी रह ही नहीं सकता। अतः जब सामूहिक जीवन-मानव जीवन का अनिवार्य तथ्य है तब यह आवश्यक है कि प्रत्येक व्यक्ति को साथ रहने की कला आ जाए।

पिछली शताब्दियों में जब सामूहिक जीवन का क्षेत्र सीमित था और जब आर्थिक क्रियाएँ इतनी संकेंद्रित न हुईं थीं। इन तीनों प्रयोजनों के लिए संगठित प्रयास करने तथा उनमें प्रतिक्षण संतुलन बनाये रखने की विशेष आवश्यकता न थी किन्तु आज तो सामूहिक जीवन का क्षेत्र भूमण्डल व्यापी है और आर्थिक क्रियाओं का सीमातिरेक संकेन्द्रण हो गया है। अतः आज इस बात की अत्यन्त आवश्यकता पैदा हो गई है कि प्रत्येक व्यक्ति का विशेष प्रक्रिया द्वारा इन तीनों बातों से पूर्ण परिचित ही न कराया जाय बल्कि उसको कार्यरूप में अपनाने के योग्य भी बना दिया जाय।

शैक्षणिक क्रान्ति का अभाव

अतः पिछली कुछ शताब्दियों में सार जगत भर में अतीत से दाय में मिली शिक्षा व्यवस्था में मूलभूत परिवर्तन की आवश्यकता लोगों को महसूस होती रहती है और उसमें विभिन्न प्रकार के परिवर्तन भी होते रहे हैं। यह कहना अनुचित न होगा कि जगत भर में शिक्षा-क्षेत्र में भी एक ऐसी क्राँति पिछले दिनों होती रही हैं जैसी कि आर्थिक और राजनैतिक जगत में हुई है। किन्तु दुर्भाग्यवश हमारे देश में शिक्षा के बारे में वैसी व्यापक क्रान्ति नहीं हुई है। इस दिशा में लोगों का ध्यान तो गया है किन्तु कार्यक्षेत्र में उसका कोई उल्लेखनीय फल दिखाई नहीं पड़ता।

यह ठीक है कि किसी सीमा तक हमारी शिक्षा संस्थाएँ शिक्षा के प्रथम प्रयोजन को पूरा करती है। इन संस्थाओं को पिछली पीढ़ियों की संचित अनुभूति से किसी सीमा तक परिचित अवश्य कराया जाता है। किन्तु इस परिचय कराने का जो उद्देश्य है अर्थात् विवेक बुद्धि को सजग, सक्षम और सामर्थ्यवान बताता, वह पूरा नहीं हो रहा है। हमारी नई पीढ़ी के युवक-युवती विचारपुँज नहीं हो पाते। यह ठीक है कि इन शिक्षा-संस्थाओं से भी यदाकदा कुछ विरले व्यक्ति निकलते हैं, जिनकी विवेक-बुद्धि और विचार-शक्ति पूर्ण रूपेण सजग और सामर्थ्यवान होती हैं किन्तु इन इने-गिने व्यक्तियों के नाम पर ही यह कहना ठीक न होगा कि ये शिक्षा-संस्थाएँ मानव के मानसपटल को खोल रही हैं और उसे ज्योतिर्मय कर रही है। मेरा यह विचार है कि इस दशा में उसकी असफलता के अनेक कारण हैं, जिनमें से कुछ प्रमुख कारणों की ओर संकेत कर देना अनुचित न होगा।

जिनमें से एक अत्यन्त महत्वपूर्ण कारण तो यह लगता है कि पिछली पीढ़ियों की जिस अनुभूति से हमारी शिक्षा-संस्थाएँ हमारे युवक-युवतियों का परिचय करा रही हैं। उसके बहुत बड़े भाग का इन युवक-युवतियों के अपने निजी दैनिक जीवन अथवा अपने चारों ओर के जगत और अपने सामूहिक जीवन से कोई विशेष सम्बन्ध नहीं है। अतः अतीत की वे बातें इन युवक-युवतियों को कुछ अन-पहचानी, कुछ अनुपयोगी, कुछ अछूती सी लगती हैं और वे उनके मस्तिष्क का भार बनकर रह जाती हैं, जिन्हें वे संस्था के निकलने के पश्चात बहुत जल्दी ही भूल जाते हैं। दूसरा कारण यह भी है कि जिस भाषा माध्यम द्वारा इस अतीत की अनुभूति से उनका परिचय कराया जाता है वह भी उनके दैनिक और सामूहिक जीवन की वस्तु नहीं है और इस लिए पूरा प्रयास करने पर भी उनके लिए कुछ अपरिचित ही बनी रहती है। अतः अतीत की अनुभूति उनके विवेक-दीप को ज्योतिर्मय करने के लिये दियासलाई न होकर उस दीपक के तेल को सोखने वाला सोखता ही रहता है। जहाँ अतीत की अनुभूति उनकी बुद्धि की सामर्थ्य को सहस्रगुनी शक्ति प्रदान करने वाला लीवर होनी चाहिये। वह हमारी बुद्धि को पंगु और अपाहिज करने वाली कोढ़ बन गई है।

किन्तु बात इतनी ही नहीं है। शिक्षा के अन्य दो प्रयोजनों को पूरा करने का कार्य तो हमारी शिक्षा संस्थाएँ लगभग कर ही नहीं रही हैं। हमारे यहाँ सम्भवतः ऐसी कोई विरली ही संस्था हो जहाँ इस बात का प्रयास किया जाता हो कि व्यक्ति को इतना कार्य कुशल बना दिया जाय कि वह अपने हाथ के परिश्रम से अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए आवश्यक धन सामग्री पैदा कर ले। व्यवसाय, कृषि, उद्योग इत्यादि के व्यावहारिक प्रशिक्षण का प्रबन्ध तो हमारे यहाँ लगभग नहीं के बराबर हैं। हमारे प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों का तो इस व्यावहारिक अभ्यास से कोई वास्ता है ही नहीं। हमारे उच्च शिक्षालयों में से ही इने-गिने को छोड़कर अन्यों का उस बात से कोई सम्बन्ध नहीं है। उनमें से लगभग सभी अपने विद्यार्थियों को पिछली पीढ़ियों या वर्तमान पीढ़ी के प्रौढ़ लोगों के कुछ विचारों से परिचय कराने में संलग्न हैं। स्वभावतः यह परिणाम हो रहा है कि इन शिक्षालयों के स्नातक चाहे वाक्चतुर हों किन्तु कार्य कुशल नहीं होते। जब तक विदेशी साम्राज्य के दलाल की हैसियत से उन्हें अपना जीवन चलाना पड़ता था तब तक तो उनकी वाक्चातुरी उनको लाभदायक थी किन्तु अब जब अपनी गाढ़ी मेहनत से नवभारत का हमें निर्माण करना है उस समय तो इस वाक्चातुरी का वैसा महत्व हो ही नहीं सकता। परिणाम यह हो रहा है कि हमारे यहाँ का वाक्चातुर स्नातक भी आज जीवन में अपने लिए स्थान बनाने में सफल होने में पर्याप्त कठिनाई और असफलता अनुभव कर रहा है।

इतना ही क्यों? वर्षों के परिश्रम को इस प्रकार अपने वैयक्तिक जीवन के लिए अनुपयोगी और फलहीन होते देख अनेक युवकों के मन में अपने भाग्य और अपने भाइयों के प्रति एक प्रकार का अन्ध रोष पैदा हो रहा है और ये समझ नहीं पा रहें है कि क्या करने से उन्हें अपनी मुश्किलों से छुटकारा मिल सकता है। साथ ही हमारे शिक्षालयों में पढ़ने वाले युवक-युवतियाँ आज अतीत की उस अनुभूमि का भी कोई परिचय हासिल नहीं कर पा रहे हैं जिसका उन्हें वहाँ परिचय कराने का प्रबन्ध है। मैं समझता हूँ कि शिक्षा के स्तर में गिरावट की जो आज आम शिकायत है उसका बड़ा कारण यह है कि हमारे नवयुवकों और नवयुवतियों को उस शिक्षा प्रक्रिया से लाभ नहीं पहुँचता जो हमारे यहाँ के हर प्रकार के शिक्षालयों में आज जारी है।

इस विष का प्रसार वैयक्तिक क्षेत्र में सीमित न रहकर आज हमारे सामूहिक क्षेत्र में भी फैल रहा है। हमारी वर्तमान शिक्षा व्यवस्था सामूहिक जीवन के लिए आवश्यक गुणों का अभ्यास तो हमारी नई पीढ़ी के लोगों को कराती नहीं। ऐसी हमारी नई पीढ़ी के लोगों में यदि उन गुणों का अभाव हो जो सुन्दर और सफल सामूहिक जीवन के लिए आवश्यक है तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। शिक्षा व्यवस्था का यह ध्येय और प्रयोजन ही नहीं मालूम पड़ता है कि वह नई पीढ़ी के लोगों को सामूहिक जीवन के लिए आवश्यक गुणों में दीक्षित करें।

सच तो यह है कि प्रयोजन की दृष्टि से हमारी वर्तमान शिक्षा व्यवस्था कुछ वैसी ही असन्तुलित और बेढंगी है जैसा कि मटकी जैसा पेट और ककड़ी बाँह और पाँव वाला शरीर होता है। किसी कारण से क्यों न हो आज हमारी शिक्षा संस्थाओं का सारा प्रयास अपने विद्यार्थियों को ज्ञान के सीमित स्वरूप से परिचित कर देना ही है और व्यक्ति को कार्य कुशल और सहजीवी बनाने का नहीं है। अतः मैं समझता हूँ कि अन्य सुधारों के साथ-साथ हमारी शिक्षा व्यवस्था में उसके उद्देश्यों में सन्तुलन स्थापित करने की भी आवश्यकता है।

हमें इस बात पर विचार करना चाहिए कि हमें किस संख्या में विचारक और कार्य कुशल लोग तैयार करने हैं। यह तो स्पष्ट ही है कि हर युग और हर देश में विचारकों और कर्मियों दोनों की ही आवश्यकता होती है किन्तु जिन परिस्थितियों में आज हमारा देश है उनमें हमें कोरे विचारों की अपेक्षा कर्मियों की अधिक आवश्यकता है। अपने करोड़ों देशवासियों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए हमें शीघ्रातिशीघ्र अपना आर्थिक उत्पादन बढ़ाना है। किन्तु उसके बढ़ाने की शर्तों में यह भी शामिल है कि हमारे यहाँ के लोगों का स्वास्थ्य अच्छा हो और वे आधुनिक आर्थिक और औद्योगिक संगठन और प्रक्रियाओं से परिचित हों। इन तीनों बातों के लिए ही हमें लाखों कर्मियों की आवश्यकता है। किन्तु इन सब कर्मियों को यह समझ लेना होगा कि केवल अपने कौशल के आधार पर यह अधिकार प्राप्त नहीं हो जाता कि वे अपने देश के अन्य भाइयों से बहुत अधिक पारिश्रमिक पायें। वरन् उन्हें तो इस कार्य में इस प्रकार और विश्वास से लगना है कि कष्ट सह कर भी उन्हें आगे की पीढ़ियों के जीवन को सम्पन्न बनाने के लिए साधन जुटाने हैं और प्रबन्ध करना है। अतः मेरा विचार है कि हमारी शिक्षा संस्थाओं में कार्य कुशलता पर अधिक जोर दिया जाना चाहिये और उसमें व्यावसायिक प्रशिक्षा प्रदान करने का प्रबन्धन होना चाहिए। यदि हर नगर और हर जिले में इस प्रकार के व्यावसायिक प्रशिक्षा केन्द्र बन जायं अथवा यदि वहाँ की वर्तमान शिक्षा संस्थाएँ अपना इस प्रकार कायाकल्प कर ले तो मैं समझता हूँ कि हमारी शिक्षा व्यवस्था का भोंड़ापन बहुत कुछ कम हो जायेगा।

साथ ही मैं समझता हूँ कि सामूहिक गुणों की दीक्षा का भी हमारी शिक्षा संस्थाओं में प्रबन्ध होना चाहिए। सामूहिक उद्योग की शिक्षा केवल क्रीडा क्षेत्र में ही न दी जाकर वह जीवन के अन्य भागों में ही दी जानी चाहिए। उसका एक प्रकार यह हो सकता है कि शिक्षालयों में ऐसी टीमें बनें जो सामुदायिक विकास के कार्यों में होड़ बन्द कर भाग लें।

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