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Magazine - Year 1954 - Version 2

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जीवन जीने की विद्या का व्यावहारिक शिक्षण

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आप भी अपने बालकों को इस स्वर्ण सुयोग से लाभान्वित होने दीजिए।

मनुष्य के लिए सबसे आवश्यक वह शिक्षा है जिसके आधार पर वह जीवन यापन की विविध समस्याओं को समझ सके। सामने आती रहने वाली विविध गुत्थियों पर सुलझे हुए मस्तिष्क से विचार कर सके और उनका ठीक हल निकाल सके। विद्या उसी को कहना चाहिए, जो मनुष्य के गुण स्वभाव, विचार, दृष्टिकोण, बल, विवेक, चातुर्य एवं शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य को बढ़ावे। प्राचीन काल में इसी उद्देश्य को लेकर गुरुकुल चलते थे।

हम अपने बच्चों को स्कूल कालेजों में पढ़ाते हैं ताकि वे आजीविका उपार्जन में सफल हों तथा सभ्य कहलावें। इसके अतिरिक्त हमें बालकों को वह शिक्षा भी दिलाने का प्रयत्न करना चाहिए। जिसके आधार पर वे उन्नतिशील जीवन की ओर अग्रसर हो सकें। शरीर को स्वस्थ रखना, वाणी से मधुर बोलना, मन से उचित विचार करना, दूसरों के साथ सद्व्यवहार परिश्रम में उत्साह, स्वच्छता और सादगी, व्यसनों से घृणा, बड़ों का सम्मान माता-पिता की सेवा, गुरुजनों का अनुशासन, शिष्टाचार का पालन, व्यवहार में चातुर्य, विपत्ति में धैर्य, इन्द्रियों पर नियंत्रण, अनिष्टों से सतर्कता, उन्नति की आकाँक्षा, धार्मिक प्रवृत्ति, कर्त्तव्य निष्ठा, सज्जनों से मित्रता, अध्ययन में प्रीति आदि उत्तम प्रवृत्तियों को जागृत करके जीवन को सुव्यवस्थित बनाने का ज्ञान जब तक बालकों को प्राप्त न होगा तब तक वे कितनी ही ऊँची कक्षाएँ उत्तीर्ण कर लें, अपने लिए तथा अपने सम्बन्धित व्यक्तियों के लिए सुख शान्ति उत्पन्न न कर सकेंगे।

जीवन को उत्तम प्रकार से जीने के लिए एक ऐसी शिक्षा पद्धति की आवश्यकता है, जो उपरोक्त विषयों को सिद्धान्त रूप से तथा व्यवहारिक रूप से छात्रों के मस्तिष्क तथा हृदय में बिठा सके। इन्हीं विषयों की पुस्तकों का पाठ्यक्रम रहे। प्रवचन, शंका समाधान, प्रश्नोत्तर, स्वयं विचार करने एवं निष्कर्ष निकालने के लिए प्रोत्साहन, की पद्धति से जीवन की विभिन्न समस्याओं का शिक्षण प्रधान रूप से दिया जाय। गणित, इतिहास, भूगोल, ज्योमेट्री आदि गौण एवं ऐच्छिक विषय रहें। जो लोग स्कूली प्रमाण पत्र लेकर नौकरी करने का लक्ष नहीं रखते उनके लिए तो वस्तुतः ऐसी ही शिक्षा की आवश्यकता है। ऐसा शिक्षण ही उन्हें संसार की संघर्षमय परिस्थितियों का मुकाबला करके जीवन को सफल बनाने में सहायक हो सकता है। आज ऐसे विद्यालयों की बड़ी आवश्यकता है जो बालकों को पढ़ाने-लिखाने तक ही सीमित न रहकर अपना प्रधान कार्य बालकों का निर्माण करना बनावें। उनका पाठ्यक्रम एवं शिक्षण इसी आधार पर बने।

इस महान कार्य की पूर्ति के लिए हम “सरस्वती यज्ञ” के साथ अग्रसर हो रहे हैं। गर्मियों की छुट्टियों में 15 दिन के लिए एक शिक्षा शिविर का आयोजन गायत्री तपोभूमि मथुरा में किया जा रहा है। ज्येष्ठ सुदी 1 से लेकर ज्येष्ठ सुदी 15 सम्वत् 2011 तदनुसार तारीख 2 जून से लेकर 16 जून, सन् 1954 तक यह सत्र चलेगा। इसमें 16 से 40 वर्ष तक आयु के शिक्षार्थी भाग ले सकेंगे।

इनमें उपरोक्त विषयों की ही शिक्षा दी जायेगी। शिक्षार्थी के मन में जमे हुए अस्त-व्यस्त विचारों को सुव्यवस्थित करके उन्हें उस दिशा में प्रेरित करने का प्रयत्न किया जायेगा। जिसमें उन्नति, समृद्धि, कीर्ति, स्वस्थता, दीर्घायु, प्रतिष्ठा, मैत्री एवं सुख शान्ति की प्राप्ति होती है। इन्हीं विषयों की पुस्तकें पढ़ने को दी जायेंगी। इन्हीं विषयों पर प्रवचन होंगे, इन्हीं विषयों पर प्रश्नोत्तर एवं शंका समाधान के रूप में छात्रों की गुत्थियों को सुलझाया जायेगा। शिक्षार्थियों को विचार करने की वह पद्धति सुझाई जाएंगी जिससे वे सही निष्कर्ष पर अपने आप पहुँच सकें।

इस शिक्षा शिविर का संचालन मनोविज्ञान शास्त्र के माने हुए विद्वान प्रो. रामचरण महेन्द्र एम. ए. डी. लिट् करेंगे। उनके निकट संपर्क में रहने तथा व्यावहारिक शिक्षण से लाभ उठाने का यह अवसर शिक्षार्थियों के लिए स्वर्ण सुयोग है। शिक्षण कार्य के लिए भारत वर्ष के सुदूर प्रदेशों से उच्चकोटि के शिक्षा विशेषज्ञ एवं मनोविज्ञान शास्त्र के सूक्ष्म तत्वों को समझने वाले विद्वान भी पधारेंगे। हमारा भी 15 दिन का पूरा समय शिक्षार्थियों के लिए होगा।

छात्रों की मनोभूमि की उपरोक्त शिक्षा पद्धति को ग्रहण करने योग्य बनाने के लिए, बुद्धि में तीव्रता उत्पन्न करने के लिए उन्हीं दिनों एक “सरस्वती यज्ञ” होगा। जो शिक्षा के साथ-साथ पन्द्रह दिन तक चलता रहेगा। छात्रों की बुद्धि शुद्ध एवं तीव्र करने के लिए यह यज्ञ शक्तिशाली एवं प्रभावपूर्ण आयोजन है। इस यज्ञ द्वारा ऐसा सूक्ष्म वातावरण उत्पन्न किया जायेगा जिसमें रहने से मस्तिष्क की कतिपय महत्वपूर्ण शक्तियों का समुचित विकास हो सके।

शिक्षण की कोई फीस नहीं, ठहरने का कोई शुल्क नहीं, भोजन का कोई बाधित खर्च नहीं, किसी को कुछ देने को नहीं कहा जायगा। धनी और निर्धन सभी छात्र गुरु-प्रह में एक साथ एक स्थिति में रहेंगे। प्राचीन काल में छात्र अपने पितृ ग्रह की भाँति ही गुरुकुलों में रहते थे और वहाँ उन्हें पिता-माता जैसा ही समुचित वात्सल्य, स्नेह, एवं सुविधा साधन उपलब्ध होता था वैसा ही पन्द्रह दिन के इस शिक्षण शिविर में भी छात्रों को प्राप्त होगा। प्राचीन गुरुकुल प्रणाली की एक झाँकी का रसास्वादन इन थोड़े दिनों तक आगन्तुक लोग करेंगे और उसकी एक उत्तम छाप अपने मनों पर लेकर लौटेंगे। अपने आवश्यक वस्त्र, बिस्तर, लोटा आदि सबको साथ लाना चाहिए। कन्धे पर डालने का दुपट्टा भी सबके पास होना चाहिए। जो पन्द्रह दिन के लिए पीला रंग लिया जायगा। सफेद कुर्ता और धोती यही सबकी एक सी पोशाक रहेगी।

छात्रों की व्यक्तिगत समस्याओं पर विशेष रूप से ध्यान दिया जायगा। उनके दिव्य प्रति के कार्यों के आधार पर प्रतिदिन परीक्षा नम्बर दिये जाते रहा करेंगे और तद्नुसार उन्हें अन्त में उत्तीर्ण अनुत्तीर्ण किया जायेगा। उत्तीर्ण छात्रों को बड़े साइज के अत्यन्त सुन्दर प्रमाण पत्र दिये जावेंगे। यदि सम्भव हो सका तो इस प्रकार की शिक्षाप्रणाली को स्थायी विद्यालय का रूप देने का विचार है।

हमारा विश्वास है कि 15 दिन के लिए यहाँ आने वाले और इस शिक्षा को प्राप्त करने वाले छात्र, उतनी आवश्यक बातें सीखकर जायेंगे जितनी शायद उन्हें अन्यत्र बहुत समय एवं प्रयत्न करने पर भी उपलब्ध न होतीं।

एक सीमित संख्या में ही छात्रों की शिक्षा एवं व्यवस्था यहाँ सम्भव है। इसलिए जिन्हें आना हो वे निम्नलिखित प्रश्नों का विस्तृत उत्तर “गायत्री तपोभूमि मथुरा” के पते पर ता. 15 मई तक भेज दें। और स्वीकृति पत्र प्राप्त हो जाय तो ता0 1 जून की शाम तक मथुरा आ जावें ताकि ता. 2 जून से विधिवत संस्कार के साथ उनकी शिक्षा आरम्भ हो सके। बिना स्वीकृति पत्र प्राप्त किए कोई सज्जन न आवें अन्यथा उनके शिक्षण आदि की कोई व्यवस्था की जिम्मेदारी न होगी। इन बातों के उत्तर लिखें-

[1] पूरा नाम [2] पत्र भेजने वाले का पूरा पता [3] आयु [4] जाति [5] अब तक की शिक्षा [6] स्वास्थ्य की वर्तमान स्थिति [7] शरीर में कोई रोग हो तो उसका भी उल्लेख [8] व्यवसाय [9] कुटुम्ब में कौन-कौन हैं? [10] आपके जीवन में जो कठिनाईयाँ इस समय हो उसका सविस्तार वर्णन [11] आपके शरीर स्वभाव, मन तथा चरित्र में जो त्रुटियाँ हों उनका पूरा विवरण [12] मथुरा आने पर पूर्ण अनुशासन में रहना, निर्धारित नियमों का पालन करना और साथियों के साथ उदारता एवं सेवा भावना का व्यवहार करना आपको स्वीकार है न? [13] कोई विशेष बात इन प्रश्नों के अतिरिक्त बताने को और भी हो तो उसका उल्लेख [14] मथुरा आने के सम्बन्ध में आपके संरक्षकों अभिभावकों की स्वीकृति का लिखित प्रमाण पत्र साथ भेजिए।

इन 14 प्रश्नों का उत्तर आने पर आवश्यक परामर्श तथा स्वीकृति आदि भेजी जा सकेगी। तद्नुसार ही शिक्षार्थियों को मथुरा आना उचित है।

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