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Magazine - Year 1954 - Version 2

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यह गौ हत्या बन्द क्यों नहीं होती?

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(गौ हत्या निरोध समिति)

गौ वंश भारतीय संस्कृति का प्रतीक, धर्म का मान बिन्दु, भारत के आर्थिक ढांचे का आधार स्तम्भ और हमारे जीवन का सहारा है। वेदों में स्थान-स्थान पर गौ को अघ्न्या(जिसकी कभी हत्या न हो) तथा विश्व की आयु लिखा, रुद्रों की माता, वसुओं की पुत्री, आदित्यों की बहन कहा। अथर्ववेद में गौ हत्यारे को शीशे की गोली से मार डालने की आज्ञा दी गई। गाय को सर्वदेव पूज्य तथा सर्वदेवमयी माना। उपनिषदों, पुराणों, रामायण तथा महाभारत में स्थान-स्थान पर गौ महात्म्य भरा है। करोड़ों लोग गौ के शरीर से तैंतीस करोड़ देवताओं का वास मानते हैं। महात्मा बुद्ध ने गौ रक्षा की ओर ध्यान दिलाया, जैन धर्म ने भी गौ रक्षा को महत्व दिया। महर्षि स्वामी दयानन्द जी सरस्वती ने गौ हत्या बन्द कराने के लिए बहुत बड़ा आन्दोलन किया तथा गौ नाश से राजा और प्रजा दोनों का नाश बतलाया। गुरु नानक से लेकर गुरु गोविन्द सिंह जी तक सभी गुरुओं ने भी गौ रक्षा के प्रश्न को महत्व दिया। गुरु रामसिंह जी और उनके नामधारी सिखों ने अनेक कष्ट उठाये, कितने ही नामधारी सिख तोपों से उड़ाये गये और फाँसी पर चढ़े। संत कबीर, चैतन्य महाप्रभु ओर गोस्वामी तुलसीदास ने इस सम्बन्ध में बहुत कुछ लिखा।

भगवान श्री कृष्ण चन्द्र जी ने गौ रक्षा और गौ पालन का आदर्श उपस्थित किया। चक्रवर्ती राजा दिलीप गौ के लिए अपने प्राण तक देने को तैयार हुए। महर्षि वशिष्ठ ने अनेक कष्ट उठाये तथा महर्षि जमदग्नि ने अपने शरीर तक का बलिदान दिया। मुसलमानों और अंग्रेजों के राज्य में कितने ही लोगों ने गौ हत्या बन्द कराने के लिए अपने प्राणों की बाजी लगाई। इन बातों से यह सिद्ध होता है कि भारत के लोग सदैव से गौ हत्या के विरोधी रहें, गौ रक्षा का प्रश्न उनका धार्मिक अथवा साँस्कृतिक प्रश्न है। बाबर, हुमायूं, अकबर, जहाँगीर तथा कुछ अन्य मुसलमान बादशाहों ने भी यहाँ के लोगों की भावना को दृष्टि में रखते हुए गौ हत्या को बन्द किया।

धार्मिक और साँस्कृतिक भावना के अतिरिक्त आर्थिक दृष्टि से भी गौ रक्षा का प्रश्न कम महत्व नहीं रखता। केन्द्रीय सरकार की पशु अनुसंधान संस्था इज्जत नगर के डॉ. एन. डी. केहर एम. एस. एस. डी. के मतानुसार भारत को गौ धन से तीन अरब नब्बे करोड़ रुपये वार्षिक आमदनी होती है। यह भारत की कुल आय का 25 प्रतिशत से भी अधिक भाग है। इतनी अधिक आय रेलवे, कपड़ा, चीनी, लोहा, इत्यादि किसी भी दस्तकारी या व्यापार से अधिक आय होती है, वह उस पर अन्य व्यापारों से अधिक ध्यान देता है। संसार के अन्य देशों में खेती घोड़ों तथा मशीनों से होती है। पर भारत की खेती का आधार है गौ वंश। बैल, हल, गाड़ी, कुएँ, रहट चलाते हैं। भूमि को उर्वरा रखने के लिए गोबर और गौ-मूत्र सस्ती और सुलभ खाद है। अन्न, साग, सब्जी, दूध, घी, दही और छाछ आदि जो हमारे जीवन का मुख्य सहारा है, उनके उत्पादन का मुख्य साधन भी गौ वंश ही है। वास्तव में भारतीयों के जीवन और भारत की समृद्धि बहुत कुछ गौ वंश पर ही निर्भर है। गौ वंश के दस महत्व और आवश्यकता को दृष्टि में रखते हुए हिन्दू राजाओं ने ही नहीं, प्रायः मुसलमान बादशाहों ने भी गौ हत्या निषेध और गौ वंश की उन्नति के कार्य किये।

कुछ मुसलमान बादशाहों ने हिन्दुओं को अपमानित करने के लिए गौ हत्या आरम्भ की, पर उन दिनों नाममात्र गौ हत्या होती थी। आर्थिक गौ हत्या का आरम्भ अंग्रेजों ने खाल व्यापार बढ़ाने, हिन्दू-मुस्लिम झगड़े कराने तथा देश के लोगों की शारीरिक शक्ति को कमजोर करने के लिए किया। भारतीय गायों की खालें संसार भर में अच्छी होने के कारण भारत को खाल बाजार का एक प्रमुख केन्द्र बना दिया। कितने ही अच्छे मुसलमान बादशाहों ने हिन्दुओं को प्रसन्न करने के लिए गौ हत्या बन्द की, पर अंग्रेजों ने हिन्दू-मुसलमानों को लड़ाने के लिए गौ हत्या का हथियार चलाया। जिस भारत में अतिथियों को पानी की जगह दूध पिलाया जाता था, जहाँ मुस्लिम काल में भी एक आना सेर घी मिलता था। पर्याप्त दूध, घी मिलने के कारण भारतीयों की शारीरिक शक्ति एक विशेष स्थान रखती थी, अंग्रेजों ने इस शारीरिक शक्ति को नष्ट करने के लिए गौ धन का ह्रास और विनाश किया। अंग्रेजों ने इससे भी अधिक गौ को जो नुकसान पहुँचाया वह है भावना को दूषित करना। अंग्रेजी राज्य से पहले सब हिन्दू ही नहीं लाखों मुसलमान भी गौ हत्या के नाम से घृणा करते थे। गौ हत्या के लिए लोग अपने प्राणों तक की बाजी लगाते थे। गौ हत्या के पक्ष में किसी को मुख खोलने तक की हिम्मत न थी, पर जैसा कि मैकाले ने कहा था अंग्रेजी शिक्षा के प्रभाव से ऐसे लोगों की एक बहुत बड़ी संस्था हो जायगी, जिसका रंग तो भारतीय होगा पर हृदय अंग्रेज। मैकाले का यह स्वप्न पूरा हुआ। देश में कितने ही हिन्दू जिनके पूर्वज गौ रक्षा को परम धर्म मानते थे, आज गौ हत्या एवं गौ वंश के ह्रास और निराश करने कराने के वकील बन गये और यही लोग गौ हत्या के प्रमुख कारण है।

काँग्रेस ने आरम्भिक दिनों में हिन्दू जनता की सहानुभूति प्राप्त करने के लिए गोरक्षा का समर्थन किया। 1921 में जब मुसलमान खिलाफत के नाम पर सरकार से सहयोग करते थे, 1921 की गोपाष्टमी को दिल्ली के पटौदी हाउस में महात्मा गाँधी जी, पं. मोतीलाल नेहरू, ला. लाजपत राय, हकीम अजमल खाँ, डॉ. अन्सारी, श्री देशबन्धु गुप्त, पं. नेकीराम जी शर्मा, पं. इन्द्रविद्यावाचस्पति तथा श्री आसफअली आदि प्रसिद्ध कांग्रेसी नेताओं और सैकड़ों लोगों की उपस्थिति में गौ रक्षा कराने के लिए सरकार से पूर्ण सहयोग करने का प्रस्ताव पास किया। महात्मा गाँधी जी ने 1926 में गौ रक्षा को आवश्यक समझते हुए कहा- “मैं स्वराज्य के लिए भी गौ रक्षा का आदर्श नहीं छोड़ सकता”। गाँधी जी ने 25 जनवरी 1925 के “नवजीवन” में लिखा कि “हिन्दुस्तान में हिन्दुओं के साथ रहकर गौ वध करना हिन्दुओं का खून करने के बराबर है। गौ हत्या मेरी हत्या है।” गाँधी जी ने गौ रक्षा को हिन्दुत्व का मुख्य लक्षण टहराया तथा जो लोग प्राचीनकाल में गौ माँस खाने की बात कहते हैं, उनका विरोध किया। श्रद्धेय बाल गंगाधर तिलक, ला. लाजपत राय, पं. मदनमोहन मालवीय सब गौ हत्या निषेध के समर्थक रहे। देश के कितने ही इलाकों में चुनावों के समय काँग्रेसी उम्मीदवारों ने गौ रक्षा के नाम पर वोट प्राप्त किये। जनता को आशा ही नहीं विश्वास था कि देश के स्वतन्त्र होते ही गौ हत्या बन्द हो जावेगी।

काँग्रेस नेताओं ने गौ रक्षा और गौ हत्या बन्द करने के लिए विधान की धारा 84 बनाई, तरह-तरह की कागजी योजनाएँ भी तैयार की पर अंग्रेजी राज्य की अपेक्षा गौ हत्या तो बढ़ी ही, महात्मा गाँधी जी के सिद्धान्तों और आदेशों को ठुकराकर, गौ वंश को निकम्मा बनाकर नष्ट करने वाले नकली घी, नकली दूध और नकली खाद तथा ट्रैक्टर आदि को भी सरकार ने अनुचित प्रोत्साहन दिया। महात्मा गाँधी जी ने जिस वनस्पति घी को देश के साथ किये जाने वाला सबसे बड़ा धोखा बतलाकर इसकी उपेक्षा करने वाले को भी हिन्दुस्तान का छात्र बतलाया था। जिस वनस्पति घी के विरुद्ध दो तिहाई राज्य सरकारों, केन्द्रीय एसेम्बली के सदस्यों और काँग्रेस कार्यकारिणी ने भी मत दिया था, सरकार इन सबको ठुकराकर वनस्पति घी वालों की वकील बन गई और रंग डालने की माँग को भी खटाई में डाल दिया। अमेरिका, इंग्लैंड आदि जिन देशों में प्रायः लोग गौ माँस खाते हैं, वहाँ ऐसी अच्छी गायों का कत्ल नहीं होता, जैसा आज हमारे देश में हो रहा है। कसाई को वृद्ध और अपंग गौ के कत्ल से चालीस या पचास प्रतिशत और अच्छी नव-जवान गौ के कत्ल से शत प्रतिशत लाभ होता है। अतः कसाई अच्छे पशु को ही कत्ल करने का प्रयत्न करता है। अंग्रेजी राज्य में प्रायः गौ वध कसाई खानों में ही होता था, उसकी गिनती हो सकती थी पर आज कसाई निर्णय होकर घरों, खेतों और जंगलों में गौ वध करता है। जिसकी गिनती भी नहीं हो सकती। कत्ल का अनुमान लगाने का एक ही प्रमाणित साधन है, खालों का निर्यात। भारत सरकार की निर्यात विकास कमेटी 1948 तथा केन्द्रीय कृषि मंत्रालय के 20 दिसम्बर 1950 के पत्र द्वारा लाखों के निर्यात के लिए गौ हत्या जारी रखने की दलील दी गई है, अतः यह सिद्ध है कि जिन खालों का निर्यात होता है वे प्रायः कत्ल करने से ही प्राप्त की जाती हैं। प्रधानमंत्री पं. नेहरू जी ने 3 फरवरी 1954 को गौ हत्या निरोध समिति के शिष्ट मण्डल को बताया कि 1946 की अपेक्षा आज गौ हत्या बहुत कम होती है। काँग्रेस के अन्य नेता भी ऐसा ही प्रचार करते हैं, पर सरकार रिपोर्ट के अनुसार 1946 की अपेक्षा आज चार गुणा गौ हत्या बढ़ी। सरकारी खाल तथा निर्यात रिपोर्ट के अनुसार सम्मिलित भारत से 1946 में 2,29,500 बछड़ों की खालें, 1,40,000 गायों की कच्ची खालें, 17,20,000 गायों की पक्की खालें तथा दस हजार तैयार चमड़े, कुल 21,09,500 गायों की खालें विदेश को गई। पशु संख्या के अनुपात से पाकिस्तान की एक चौथाई खालें कम होकर खण्डित भारत की 1945-46 तथा 1952-53 के निर्यात के अंक इस प्रकार हैं-

1945-46 बछड़ों की खालें 172000, गायों की कच्ची खालें 105000, गाय की टैण्ड खालें 1300000, तैयार खालें 7500, जोड़ 1584500।

1952-53 बछड़ों की खालें 2007951, गायों की कच्ची खालें 10000, गाय को टैण्ड खालें 4609173, तैयार खालें 150000, जोड़ 6777124।

पिछले छः सालों में कत्ल किये हुये चमड़े की चीजों का व्यापार और व्यवहार भी बढ़ा, उसके अंक मालूम न हो सके। पर यह संख्या तीस पैंतीस लाख से कम नहीं। यदि केवल मात्र लाखों के निर्यात के अनुमान लगाया जाय जो भी 1946 की अपेक्षा चार गुणा से अधिक गौ हत्या बढ़ी है। अंग्रेजी राज्य के समय 15-16 लाख रुपये का बूढ़े पशुओं की विशेषतया भैंसों, कटडों का सूखा माँस बर्मा आदि सुदूर पूर्व के देशों को जाता था। पर 1 जुलाई 1952 से 30 जून 1953 तक सरकारी कष्टम विभाग की रिपोर्ट के अनुसार 56 लाख रुपये का गौ माँस, गौ की आंतें, जिह्वा आदि विदेशों को बम्बई, कलकत्ता, मद्रास से केवल तीन बन्दरगाहों से भेजी गई हैं। भारत में कुल 22 बन्दरगाहें हैं। अन्य 19 के अंक अभी नहीं मिले हैं मछलियों के साथ और जहाज राशन के नाम से जो गौ माँस ले जाया जाता है, उसके अंक भी प्राप्त नहीं हो सके। ठीक तो नहीं कहा जा सकता पर अनुमान एक करोड़ से कम का गौ माँस आदि का निर्यात भारत से नहीं होता। सरकारी रिपोर्टों और कुछ इलाकों की जाँच के आधार पर निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि आज देश में गौ को मूली गाजर की तरह काटा जा रहा है, कोई पाबन्दी नहीं।

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