
उदारता एक महान गुण
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(पं. श्रीलालजी रामजी शुक्ल)
मनुष्य के व्यक्तित्व को आकर्षक बनाने वाली यदि कोई वस्तु है, तो वह उदारता है। उदारता प्रेम का परिष्कृत रूप है। प्रेम में कभी-कभी स्वार्थ भावना छिपी रहती है। कामातुर मनुष्य अपनी प्रेयसी से प्रेम करता है, पर जब उसकी प्रेम-वासना की तृप्ति हो जाती है, तो वह उसे भुला देता है। जिस स्त्री से कामी पुरुष उसके यौवन-काल और आरोग्य अवस्था में प्रेम करता है, उसी को वृद्धावस्था में अथवा रुग्णावस्था में तिरस्कार की दृष्टि से देखने लगता है। पिता का पुत्र के प्रति प्रेम, मित्र का मित्र के प्रति प्रेम तथा देश भक्त का अपने देशवासियों के प्रति प्रेम में स्वार्थ-भाव छिपा रहता है। जब पिता का पुत्र से, भाई का भाई से, मित्र का मित्र से तथा देशभक्त का देशवासियों से किसी प्रकार का स्वार्थ-साधन नहीं होता तो वे अपने प्रियजनों से उदासीन हो जाते हैं। पर जिस प्रेम का आधार उदारता होती है, वह इस प्रकार नष्ट नहीं होता। उदार मनुष्य दूसरों से प्रेम अपने स्वार्थ साधन के हेतु नहीं करता, वरन् उनके कल्याण के लिये ही करता है। उदारता में प्रेम सेवा का रूप धारण करता है। प्रेम का इस प्रकार दैवी रूप प्रकाशित होता है।
उदार मनुष्य दूसरे के दुःख से स्वयं दुखी होता है। उसे अपने दुःख-सुख की उतनी चिन्ता नहीं रहती, जितनी दूसरे के दुःख, सुख की रहती है। भगवान् बुद्ध अपने दुःख की निवृत्ति के हेतु संसार का त्याग कर जंगल में नहीं गये थे वरन् संसार के सभी प्राणियों को दुखों से विमुक्त करने के विचार से राजप्रासाद छोड़ जंगल को गये थे; ऐसे व्यक्ति ही नरश्रेष्ठ कहे जाते हैं।
उदारता से मनुष्य की मानसिक शक्तियों का अद्भुत विकास होता है। जो व्यक्ति अपने कमाये धन का जितना अधिक दान करता है, वह अपने अन्दर और धन कमा सकने का उतना ही अधिक आत्मविश्वास पैदा कर लेता है। सच्चे उदार व्यक्ति को अपनी उदारता के लिये कभी अफसोस नहीं करना पड़ता। उदार व्यक्ति की आत्म-भर्त्सना नहीं होती। सेवा-भाव से किया गया कोई भी कार्य मानसिक दृढ़ता ले आता है। इसके कारण सभी प्रकार के वितर्क मन में उथल-पुथल पैदा न करके शान्त हो जाते हैं। अनुदार व्यक्ति अनेक प्रकार का आगा-पीछा सोचता है, उदार व्यक्ति इस प्रकार का आगा-पीछा नहीं सोचता। भलाई का परिणाम भला ही होता है, चाहे वह किसी व्यक्ति के प्रति क्यों न की जाय। इससे एक ओर भले विचारों का सञ्चार उदारता के पात्र के मन में होता है, और दूसरी ओर अपने विचार भी भले बनते हैं।
प्रकृति का यह अटल नियम है कि कोई भी त्याग व्यर्थ नहीं जाता। जान-बूझकर किया गया त्याग सूक्ष्म आध्यात्मिक शक्ति के रूप में अपने ही मन में सञ्चित हो जाता है। वह शक्ति एक प्रामिसरी नोट के समान है, जिसे कभी भी भँजाया जा सकता है। सभी लोगों को भविष्य का सदा भय लगा रहता है। वे इसी चिन्ता में डूबे रहते हैं कि जब वे कुछ काम न कर सकेंगे तो अपने बाल-बच्चों को क्या खिलायेंगे अथवा अपनी आजीविका किस प्रकार चलायेंगे कितने ही लोगों को अपनी शान बनाये रखने की चिन्ताऐं सताती रहती हैं। उदार व्यक्ति को इस प्रकार की चिन्ताऐं नहीं सताती। जब वह गरीब भी रहता है, तब भी वह सुखी रहता है। उसे भावी कष्ट का भय रहता ही नहीं। संसार के अनुदार व्यक्ति जितने काल्पनिक दुःखों से दुःखी रहते हैं, उतने वास्तविक दुःखों से दुःखी नहीं होते। प्रसिद्ध अँग्रेजी नाटककार शेक्सपियर का यह कथन मननयोग्य है कि ‘कायर पुरुष मरने के पहले ही अनेक बार मरता है और वीर पुरुष जीवन में एक बार ही मरता है। वीर पुरुष काल्पनिक मौत का शिकार नहीं होता।’ इसी प्रकार उदार पुरुष के मन में वे अशुभ विचार नहीं आते, जो सामान्य लोगों को सदा पीड़ित किया करते हैं।
यदि कोई मनुष्य अपने-आप गरीबी का अनुभव करता है तो इसकी चिन्ता से मुक्त होने का उपाय धन सञ्चय करने लग जाना है। धन सञ्चय के प्रयत्न से धन का सञ्चय तो हो जाता है, पर मनुष्य धन की चिन्ता से मुक्त नहीं होता। वह धनवान होकर भी निर्धन बना रहता है। जब धन सञ्चित हो जाता है तो उसके मन में अनेक प्रकार के अकारण भय होने लगते हैं। उसे भय हो जाता है कि कहीं उसके सम्बन्धी, मित्र, पड़ोसी आदि ही उसके धन को न हड़प लें और उसके बाल बच्चे उसके मरने के बाद भूखों न मरें। वह अपने अनेक कल्पित शत्रु उत्पन्न कर लेता है, जिनसे रक्षा के वह अनेक प्रकार के उपाय सोचता रहता है। धन-सञ्चय में अधिक लगन हो जाने पर उसके स्वास्थ्य का विनाश हो जाता है। उसकी संतान की शिक्षा भली प्रकार से नहीं होती और वह निकम्मी और चरित्रहीन हो जाती है। इस प्रकार उसका धन-सञ्चय का प्रयास एक ओर उसकी मृत्यु को समीप बुला लेता है और दूसरी ओर धन के विनाश के कारण भी उपस्थित कर देता है अतएव धन सञ्चय का प्रयत्न अन्त में सफल न होकर विफल ही होता है।
जो व्यक्ति गरीबी का अनुभव करता है, उसके लिए अपनी गरीबी की मानसिक स्थिति के विनाश का उपाय अपने से अधिक गरीब लोगों की दशा पर चिन्तन करना और उनके प्रति करुणा भाव का अभ्यास करना ही है। अपने से अधिक गरीब लोगों की धन के द्वारा सेवा करने से अपनी गरीबी का भाव नष्ट हो जाता है। फिर मनुष्य अपने अभाव को न कोसकर अपने आपको भाग्यवान मानने लगता है। उसकी भविष्य की व्यर्थ चिन्ताऐं नष्ट हो जाती हैं। उसमें आत्मविश्वास बढ़ जाता है। इस आत्मविश्वास के कारण उसकी मानसिक शक्ति भी बढ़ जाती है। मनुष्य के संकल्प की सफलता उसकी मानसिक शक्ति के ऊपर निर्भर करती है। अतएव जो व्यक्ति उदार विचार रखता है, उसके संकल्प सफल होते हैं। उसका मन प्रसन्न रहता है। वह सभी प्रकार की परिस्थितियों में शान्त बना रहता है। उसका स्वास्थ्य भी अच्छा रहता है; और वह जिस काम को हाथ में लेता है, उसको पूरा करने में समर्थ होता है। उसकी अकारण मृत्यु भी नहीं होती। दीर्घजीवी होने के कारण उसकी संतान दूसरों की आश्रित नहीं बनती।
जिस व्यक्ति के विचार उदार होते हैं और जो सदा अपने आपको दूसरों की सेवा में लगाये रखता है, उसके आस-पास के लोगों के विचार भी उदार हो जाते हैं। स्वार्थी मनुष्य की संतान निकम्मी ही नहीं वरन् क्रूर भी होती है। ऐसी संतान माता-पिता को ही कष्ट देती है। इसके प्रतिकूल उदार मनुष्य की सन्तान सदा माता पिता को प्रसन्न रखने के काम करती है। जब उदारता के विचार मनुष्य के स्वभाव का अंग बन जाते हैं अर्थात् वे उसके चेतन मन को ही नहीं वरन् अचेतन मन को भी प्रभावित कर देते हैं, तो वे अपना प्रभाव छोटे बच्चों और दूसरे संबन्धियों पर ही डालते हैं। इस प्रकार हम अपने आस पास उदारता का वातावरण बना लेते हैं और इससे हमारे मन में अद्भुत मानसिक शक्ति का विकास होता है।
विद्या के विषय में कहा जाता है कि वह जितनी ही अधिक दूसरों को दी जाती है, उतनी ही अधिक बढ़ती है। देने से किसी वस्तु का बढ़ना—यह विद्या के विषय में ही सत्य नहीं है वरन् धन और सम्मान के विषय में भी सत्य है। युधिष्ठिर महाराज के राजसूय यज्ञ में विदाई और दान का भार दुर्योधन को दिया गया था और श्रीकृष्ण ने स्वयं लोगों के स्वागत का भार लिया था। कहा जाता है कि दुर्योधन को यह कार्य इसलिये सौंपा गया था जिससे कि वह मनमाना धन सभी को दे; पर जितना धन वह विदाई से दूसरों को देता था, उससे चौगुना धन तुरन्त युधिष्ठिर के खजाने में आ जाता था। श्रीकृष्ण सभी अतिथियों का स्वागत करते समय उनका चरण पखारते थे। इसके परिणामस्वरूप उन्होंने अपना सम्मान खोया नहीं, वरन् और भी बढ़ा लिया। जब राजसभा हुई तो एक शिशुपाल को छोड़ सभी राजाओं ने श्रीकृष्ण को ही सर्वोच्च आसन के लिये प्रस्तावित किया। जो अपने मन को जितना दूसरों के हित में लगाता है, वह उसे उतना ही अधिक पाता है और जो अपने मान-अपमान की परवाह नहीं करता, वही संसार में सबसे अधिक सम्मानित होता है।
स्वार्थभाव मन में क्षोभ उत्पन्न करता और उदारता का भाव शील उत्पन्न करता है। यदि हम अपने जीवन की सफलता को आन्तरिक मानसिक अनुभूतियों से मापें तो हम उदार व्यक्ति के जीवन को ही सफल पाएंगे। मनुष्य की स्थायी सम्पत्ति धन, रूप अथवा यश नहीं है; ये सभी नश्वर है। उसकी स्थायी सम्पत्ति उसके विचार ही है। जिस व्यक्ति के मन में जितने अधिक शान्ति, सन्तोष और साम्यभाव लाने वाले विचार आते हैं वह उतना ही अधिक धनी है। उदार विचार मनुष्य की वह सम्पत्ति है, जो उसके लिये आपत्तिकाल में सहायक होती है। अपने उदार विचारों के कारण उसके लिये आपत्तिकाल आपत्ति के रूप में आता ही नहीं, वह सभी परिस्थितियों को अपने अनुकूल देखने लगता है।
उदार मनुष्य के मन में भले विचार अपने आप ही उत्पन्न होते हैं। इन भले विचारों के कारण सभी प्रकार की निराशाएँ नष्ट हो जाती हैं और उदार मनुष्य सदा उत्साह पूर्ण रहता है। उदार मनुष्य आशावादी होता है। निराशावाद और अनुदारता का जिस प्रकार सहयोग है, उसी प्रकार उदारता का सहयोग आशावाद और उत्साह से है। जब मनुष्य अपने आप में किसी प्रकार की निराशा की वृद्धि होते देखे तो उसे समझना चाहिये कि कहीं न कहीं उसके विचारों में उदारता की कमी हो गई है; अतएव इसके प्रतिकारस्वरूप उसे उदार विचारों का अभ्यास करना चाहिये। अपने समीप रहने वाले व्यक्तियों से ही इसका प्रारम्भ करे। यह देखेगा कि थोड़े ही काल में उसके आसपास दूसरे ही प्रकार का वातावरण उत्पन्न हो गया है। उसके मन में फिर आशावादी विचार आने लगेंगे। जैसे-जैसे उसका उदारता का अभ्यास बढ़ेगा, उसका उत्साह भी उसी प्रकार बढ़ता जायगा। इससे यह प्रमाणित होता है कि मनुष्य उदारता से कुछ खोता नहीं, कुछ न कुछ प्राप्त ही करता है।
कितने ही लोग कहा करते हैं कि दूसरे लोग हमारी उदारता से लाभ उठाते हैं। वास्तव में वह उदारता उदारता ही नहीं, जिसके पीछे पश्चात्ताप करना पड़े। स्वार्थवश दिखाई गई उदारता के पीछे ही इस प्रकार का पश्चात्ताप होता है। सच्चे हृदय से दिखाई गई उदारता कभी भी पश्चात्ताप का कारण नहीं होती, उसका परिणाम सदा भला ही होता है। यदि कोई व्यक्ति हमारे उदार स्वभाव से लाभ उठाकर हमें ठगता है तो इससे हमारी नहीं उस ठगने वाले की ही हानि है।