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Magazine - Year 1957 - Version 2

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महान शक्तियों की उत्पत्ति शाँति में होती है।

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(श्री अरविंद घोष)

विश्व में दो महान् शक्तियाँ हैं। एक को हम नीरवता कह सकते हैं और दूसरी को वाक् । नीरवता सब प्रकार की तैयारी करती है और वाक् उत्पन्न करने वाली शक्ति है । नीरवता कार्य करती है और वाक् कार्य के लिये प्रेरणा करती है। संसार में जितने महान् कार्य होते हैं वे सब अपने आपको अन्दर ही अन्दर पूर्ण बनाते हैं। समुद्र के ऊपरी तल पर अनगिनत तरंगों की हलचल रहती है। पर उसके नीचे के तल में अथाह अदम्य जलराशि रहती है। मनुष्य तरंगों को देखते हैं, वे लोगों की गपशप और हजारों तरह की सम्मतियों को सुनते हैं, और इन्हीं से वे भविष्य की दिशा का और ईश्वरीय संकल्प के रहस्य का निर्णय कर लेते हैं। परन्तु दस में से नौ अवस्थाओं में वे निर्णय गलत होते हैं। इसीलिए लोग प्रायः यह कहा करते हैं कि इतिहास में सदैव ऐसी घटनाएं होती हैं जिनकी पहले से कोई आशा नहीं होती। पर वे इस बात को नहीं समझते कि इस प्रकार अप्रत्याशित घटना होने का कारण यही है कि लोगों की दृष्टि ऊपरी सतह पर रहती है, और वे अन्दर पैठ कर सारतत्व को देखने में असमर्थ रहते हैं। अगर वे जीवन के शोर को सुनना बन्द कर दें और उसकी जगह नीरवता सुनें तो वे वास्तविकता को भी स्पष्ट रूप में देख सकते हैं।

बड़े-बड़े श्रम के कार्य प्राण को अन्दर रोक कर किये जाते हैं। श्वास लेना जितना अधिक तेज होगा उतना ही अधिक शक्ति का अपव्यय होगा। । जो पुरुष कार्य के समय स्वाभाविकतया, सहजतया श्वास बन्द कर सकता है, वह प्राण का, उस शक्ति का जो सम्पूर्ण विश्व में काम करती है और सर्जन करती है - स्वामी है। सभी योगियों का यह अनुभव है कि जब विचार बन्द होता है, श्वसन (साँस आना जाना) भी बन्द हो जाता है और जब विचार पुनः प्रारम्भ होता है, तो श्वास भी अपनी क्रिया को पुनः प्रारम्भ कर देता है। परंतु जब विचार होते रहने पर भी श्वास -प्रश्वास जारी न हो, तब यह समझा जा सकता है कि हमने प्राण को सच्चे तौर पर जीत लिया । यह प्रकृति का नियम है। जब हम काम करने का प्रयत्न करते हैं तो प्राकृतिक शक्तियाँ हमारे साथ अपनी मनमानी करती हैं, पर जब हम शान्त हो जाते हैं तो उनके कर्ता-धर्ता बन जाते हैं। परन्तु शान्ति भी दो प्रकार की होती है- एक जड़ता की असहाय शान्ति, जो विनाश का चिन्ह है, और दूसरी ईशत्व की शान्ति , जो जीवन को संगीतमय बना देती है। यह ईशत्व की शान्ति ही योगी की स्थिरता है। स्थिरता जितनी पूर्ण होगी उससे उत्पन्न शक्ति भी उतनी ही प्रबल होगी, और कर्मगत तेज भी उतना ही महान् होगा।

इसी स्थिरता में यथार्थ ज्ञान का उदय होता है। मनुष्यों के विचार सच और झूठ के सम्मिश्रण हैं। असत्य का बोध, सत्य बोध को विकृत कर देता है, झूठा निर्णय-सच्चे निर्णय को पंगु बना देता है, झूठी कल्पना सच्ची कल्पना को कुरूप कर देती है, झूठी स्मृति सच्ची स्मृति को धोखे में डाल देती है। मन की क्रिया को बन्द करना होगा, चित्त को पवित्र करना होगा, प्रकृति की चंचलता पर निश्चल नीरवता को छा जाना होगा,तब स्थिरता में-निःशब्द शान्ति में प्रकाश मन में उत्पन्न होता है। यथार्थ ज्ञान यथार्थ कर्म का अचूक स्त्रोत बन जाता है। इसी को कहा गया है- ‘योगः कर्मसु कौशलम्’।

ऐसे व्यक्ति का ज्ञान दूसरे लोगों की तरह कामना और हलचल से परिचालित नहीं होता है, न वह वैज्ञानिक तर्क बुद्धि और व्यवहार कुशलता से ही उत्पन्न होता है, क्योंकि ये दोनों प्रकार के ज्ञान ऊपरी तथ्यों के आधार पर स्थिर होते हैं और अनुभव तथा अनुमान का सहारा लिया करते हैं। पर चित्त को शान्त कर लेने वाला व्यक्ति ईश्वर के काम करने के ढंग को जानता है, और उसे यह पता होता है कि जगत में प्रायः असम्भव घटनाएं ही हुआ करती हैं, और तथ्यों का भरोसा करने वाले व्यक्ति इधर-उधर भटक जाते हैं। वह बुद्धि के तल से उठ कर उस साक्षात ज्ञान के लोक से उठ जाता है जिसे योग शास्त्र में विज्ञान कहा गया है। कामनाओं में फंसे हुये मनुष्यों का मन अच्छे और बुरे की, रुचिकर की, सुख दुःख की उलझन में फंसा रहता है। वह सदा ही अच्छे को, सदा ही रुचिकर को, सदा ही सुख को पाने की कोशिश करता है। सौभाग्यपूर्ण घटनाओं से वह फूल जाता है, और उससे विपरीत घटनाओं के कारण वह व्याकुल, उदास हो जाता है। परन्तु सच्चा ज्ञानी देखता है कि सब कुछ, प्रत्येक घटना भले की ओर ले जाने वाली है, क्योंकि समस्त घटनाओं का कर्ता ईश्वर है और वह सर्वमंगलमय है। वह जानता है कि जो बात प्रकट में बुरी जान पड़ती है, वह प्रायः भलाई तक पहुंचने का सबसे नजदीक का मार्ग होती है, अरुचिकर वस्तु रुचिकर वस्तु को तैयार करने के लिये अनिवार्य होती है और जिसे हम दुर्भाग्य कहते हैं वही विशेष सुख प्राप्त करने का साधन होता है। इस प्रकार सब ज्ञानी की बुद्धि द्वंद्वों की दासता से मुक्त होती है।

यही कारण है कि एक योगी अथवा ज्ञानी का कार्य वैसा नहीं होता जैसा साधारण मनुष्यों का हुआ करता है। वह प्रायः ऐसा दिखाई देगा मानो वह बुराई को खराब नहीं समझता, विपत्ति को हटाने का प्रयत्न नहीं करता, और हिंसा तथा दुष्टता के कार्यों को रोकने में सहयोग नहीं देता। जहाँ क्रिया-शीलता की माँग होती है, वहाँ वह निष्क्रिय रहता है,जहाँ लोग जोर-जोर से बोलने की आशा करते हैं वहाँ वह शान्त रहता और जहाँ तीव्रता की आवश्यकता जान पढ़ती है वहाँ वह अचल बना रहता है। इसलिये लोग उसे जड़ या गतिशून्य समझते हैं और जब वह काम करेगा तो उसका कोई निश्चित फल या प्रयोजन न होगा और वे एक ऐसे उद्देश्य के लिये होंगे जिसका इस संसार से कोई सम्बंध न होगा। यह देख कर उसे ‘उन्मत्त’ या ‘पागल’ कहने लगेंगे। सच बात तो यह है कि वह एक ऐसे प्रकाश का अनुसरण करता है जो दूसरों को प्राप्त नहीं है, और जिसे वे ‘अन्धकार’ कहकर पुकारना पसन्द करते हैं। इस प्रकार जो कुछ उनके लिए स्वप्न है, वह उसके लिये वास्तविकता है- जो उनके लिये रात है, वह उसके लिये दिन है। गीता में भी यही कहा है-

“या निशा सर्वभूतानाम् तस्याँ जागृति संयमी। यस्याँ जागृति भूतानि सा निशा पश्नते मुनेः॥”

निश्चल नीरवता, शान्तता, प्रकाशित निष्क्रियता उन लोगों का लक्षण है जो अमरता के रहस्य को जानते हैं- ‘अमृतत्वाय कल्पते’। इसका अर्थ धीर होना है जो हमारी प्राचीन सभ्यता का आदर्श है और जिसका अर्थ तामसिक, गतिशून्य और पत्थर होना नहीं है। तामसिक मनुष्य की क्रिया-हीनता उसके चारों ओर की शक्तियों के लिये प्रतिबन्धक होती है, इसके विपरीत योगी या ज्ञानी की अक्रियता उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय करती है उसकी सक्रियता महान् प्राकृतिक शक्तियों की संचालन शक्ति से क्रियाशील होती है। परन्तु जिस प्रकार लोग संसार के निरर्थक कोलाहल और अस्थिर घटनाओं में से ईश्वर की कार्यशैली को नहीं समझ पाते, क्योंकि वे कार्यशैलियाँ पर्दे के पीछे छिपी रहती हैं, उसी प्रकार वे एक योगी या ज्ञानी व्यक्ति के कार्यों को समझने में भी असफल रहेंगे, क्योंकि वह अन्तर में वैसा नहीं होता जैसा कि बाहर से दिखाई देता है। कोलाहल और सक्रियता की शक्ति भी निःसन्देह महान् है, क्योंकि उसी में संसार के अनेक बड़े-बड़े कार्य सम्पन्न हो रहे हैं। परन्तु शाँति और नीरवता की शक्ति तो अनंत है और उसी में महान् शक्तियाँ कार्य के लिये तैयारी किया करती हैं।

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