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Magazine - Year 1961 - Version 2

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वानप्रस्थ से तेजस्वी जीवन

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(सन्त विनोबा)

वानप्रस्थ एक आध्यात्मिक शक्ति है, जब कि पेंशनर एक साँसारिक अवस्था है। दोनों को मैं एक करना चाहता हूँ। मैंने अपने जीवन में वान-पस्थाश्रम को उत्तेजना देने के लिए काफी कोशिश की है। एक उम्र में विषय-वासना से मुक्त होकर समाज की निष्काम सेवा में लग जाय, इसकी एक व्याख्या मैंने आश्रम की दृष्टि से की है। पहली बात देहासक्ति छोड़े, विषयासक्ति से मुक्त हो, गृहासक्ति छोड़े और निष्काम सेवा में लग जाय यह विचार मैं सतत करता आया हूँ। कुछ साथी आश्रम में वानप्रस्थ के बतौर रहने के लिए आये थे। उन्होंने उत्तम मिसाल पेश की। तुलसीदासजी ने रामायण में स्वयंभू मनु की कथा दी है। जीवन के चौथे चरण में यह विषयासक्त था। तब तुलसीदासजी को कहना पड़ा। ‘बरबस गमन वन कीन्ह बलात् वन में गमन करना पड़ा। स्वयंभू मनु आदि मनु थे, किन्तु विषय-वासना सहज भाव से मुक्त नहीं हुई थी, उसको काटना पड़ा।

विषय वासना से अगर एक उम्र में ऊपर नहीं उठते हैं, तो जीवन दुखी बनता है और पुरुषार्थहीन बनता है। पूर्वजों ने एक सुंदर रचना की थी, जो सारी दुनिया के लिए अनुकरणीय है। एक उम्र के बाद गृह-मुक्ति विषय-मुक्ति हासिल करना चाहिए।

शुरुआत में फल का छिलका कड़ा होता है और अंदर का बीच कच्चा होता है। किन्तु धीरे-धीरे ऊपर का हिस्सा ढीला बनता है, जैसे-जैसे ऊपर का ढीला बनता है, वैसे-वैसे अंदर का बीज कड़ा होता जाता है। अंत में जब फल सड़ जाता है तब बीज सख्त और ठोस रहता है। इसी प्रकार मनुष्य ज्यों-ज्यों वृद्ध होगा, आकार जीर्ण-शीर्ण तो होगा ही, किन्तु उसका अन्तस्तल, बुद्धि उत्तरोत्तर मजबूत होनी चाहिए। मरने की तैयारी है, किन्तु बुद्धि अत्यन्त मजबूत है।

सत्य यह है कि देहासक्ति, विषयासक्ति, गृहासक्ति कम हो। भाई, बच्चे सब काम देख लेंगे। उनको जरा मौका मिलेगा और हमें मुक्ति मिलेगी। अगर ऐसा नहीं करेंगे तो व्यर्थ का संघर्ष होगा और आदमी जीवन से ऊब जाएगा। वानप्रस्थ जीवन से आयु की वृद्धि होगी, यह नहीं कह सकते। ईश्वर जितनी आयु देगा, उतनी आयु होगी। किन्तु जितनी भी आयु रहेगी, वह तेजस्वी होगी। यह हमारी धर्म-रचना की खूबी है। धर्म-शास्त्रों ने देखा कि मनुष्य सुखासीन होने लगा है, उसको तुरन्त वहाँ से हटाया। बच्चा कुछ बड़ा हुआ और घर के वातावरण में माता-पिता का प्यार मिला और सुखपूर्वक रहने लगा, पर शास्त्र का आदेश है कि गुरु के घर भेजो। माता-पिता को छोड़कर गुरु के घर जाना पड़ता है। आश्रम के नियम का पालन करने की जिम्मेदारी आती है। यद्यपि गुरु उसको बड़े प्रेम से पालते-पोषते हैं यद्यपि घर का आनन्द नहीं मिलता है, फिर भी जैसे-तैसे वह गुरुकुल के वातावरण में समरस, एकरस हो जाता है और वह इस स्थान को आनन्द का स्थान बना लेता है, तो उसको वहाँ से हटाकर गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने की जिम्मेदारी दी जाती है। नई जिम्मेदारी आने पर शुरू में काफी तकलीफ होती है और सब काम ठीक से चलने लगता है, तो उसे यह आदेश दिया जाता है कि घर छोड़कर वानप्रस्थ-जीवन में आये। यहाँ फिर नया जीवन होता है। लोगों की सतत सेवा करने की जिम्मेदारी आती है, कुछ तकलीफ तो होती है, किन्तु धीरे-धीरे इससे अनेकों का प्यार मिलता है और बाद में लोग उसकी सब प्रकार की व्यवस्था कर देते हैं। शास्त्रकार कहता है कि यह भी अब सब छोड़ो और निरन्तर घूमो। आज तो उलटा होता है। मनुष्य वृद्ध हो गया है, इसलिए उसको एक जगह घर पर रहना चाहिए। किन्तु शास्त्रकार कहता है, सतत घूम, रोज नई-नई तकलीफें आती हैं नई-नई तकलीफों से आनन्द भी आता है और इससे तप होता है। अगर इसी काम को जबरन लादा जाता, तो ताप होता। इसलिए यह व्यवस्था की गई है कि आदमी को घर में हरगिज नहीं मरना चाहिए। सारांश यह है कि मनुष्य फीका और निस्तेज न बने। आराम और सुख की इच्छा उसको तेजहीन बना देती है। मैं अक्सर देखता हूँ, जिनको बचपन में खूब कष्ट उठाना पड़ता है, तो वे अपने बच्चों को तकलीफ और कठिनाई से बचा लेते हैं। परिणाम क्या होता है? जो पुरुषार्थ वे कर पाये, उसका अवसर बच्चों को नहीं मिलता और जीवन में तेजस्विता नहीं आती है। इसलिए कभी-कभी मैं कहता हूँ कि ये पिता वस्तुतः पिछले जन्म के दुश्मन हैं। क्योंकि वे देखते है कि बच्चों का जीवन सुखमय कैसे बने। तेजस्वी बने, यह परवाह नहीं करते हैं। कहने का मतलब यह है कि पराक्रमी का पुत्र ज्यादा पराक्रमी बनना चाहिए और जीवन का सत्व, तेजस्विता बढ़ती रहनी चाहिए।

घर में बीमार पड़ कर सड़ते रहना, इसमें जीवन का कोई रस नहीं है, कोई सार नहीं, कोई आनन्द नहीं। इसलिए विषयासक्ति से मुक्त होना चाहिए। यहाँ मैं एक शब्द भी ज्यादा नहीं बोल रहा हूँ। विषयासक्ति काटे बिना नहीं कटती है। ययाति की कहानी है कि जब वह बूढ़ा हो गया तो उसने अपने चार-पाँच लड़कों से जवानी माँगी। सबने इंकार किया, किन्तु कुरु ने पितृभक्ति के लिए उसको अपनी जवानी दे दी। पिता जवान हो गया, पुत्र बूढ़ा हो गया, किन्तु ययाति को दुबारा बुढ़ापा आया तो वह अत्यन्त पश्चातापदग्ध होकर एक श्लोक बोला जो ‘ययातेर्गाथा’ के नाम से मशहूर है-कामोपभोग काम से शान्त नहीं होते हैं। जैसे घी से अग्नि शांत नहीं होती है, बल्कि बढ़ती है, वैसे ही काम से काम बढ़ता है।

वानप्रस्थ जीवन में वृत्ति-विकास को प्रथम स्थान देना चाहिए। थोड़ी देर के लिए जितनी आवश्यक हो, उतनी सेवा भी करेंगे लेकिन वानप्रस्थ वृत्ति-प्रधान होगा। उसके जीवन में बाह्य कर्म प्रधान नहीं होगा। अपनी आत्मा में स्थित रहने की वह कोशिश करेगा।

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