विचारणीय और माननीय
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भविष्य की तैयारी एक राज्य का यह नियम आज्ञा कि जो राजा गद्दी पर बैठे उसे दस वर्ष बाद ऐसे निविड़ वन में छोड़ दिया जाय जहाँ अन्न-जल उपलब्ध न हो और वहाँ वह भूखा प्यासा तड़प-तड़प कर मर जाए। कितने ही राजा इसी प्रकार अपने प्राण गँवा चुके थे और राज्य के दिनों में भी भविष्य की चिन्ता से दुखी रहते थे। एक बार एक बुद्धिमान राजा गद्दी पर बैठा। उसे भविष्य का ध्यान था। उसने उस निविड़ वन को देख और वहाँ खेती कराने, जलाशय बनाने, पेड़ लगाने तथा प्रजा बसाने का कार्य आरंभ कर दिया। दस वर्ष में वह भयावना प्रदेश अत्यंत रमणीक और आनन्द दायक बन गया। राजा अपनी अवधि समाप्त होते ही वहाँ गया और शेष जीवन सुख पूर्वक व्यतीत किया। जीवन कुछ दिन का राज है, इसके बाद चौरासी लाख योनियों का कुचक्र फिर तैयार है। जो इस नर तन को पाकर सुकर्मों द्वारा अपना परलोक बना लेते हैं वे ही इस बुद्धिमान राजा की तरह दूरदर्शी होते हैं। सत्य भावना पर निर्भर एक बार एक अपराधी पकड़ा गया। उसे फाँसी की सजा मिली। फाँसी की कोठरी में जाने से पूर्व वह राजा को बुरी-बुरी गाली और दुर्वचन कहने लगा। वह था विदेशी, उसकी भाषा को सभा के एक दो सरदार ही जानते थे। राजा ने विदेशी भाषा जानने वाले एक सरदार से पूछा-यह अपराधी क्या कह रहा है ? उसने उत्तर दिया-आपकी प्रशंसा करते हुए अपनी दीनता बताता हुआ यह दया की प्रार्थना कर रहा है। इतने में एक दूसरा सरदार उठ खड़ा हुआ उसने कहा- नहीं सरकार, यह झूठ बोलता है। अपराधी ने आपको गाली दी है और दुर्वचन बोले हैं। राजा तो विदेशी भाषा जानता न था और भी कोई तीसरा आदमी फैसला करने वाला न था। अब वास्तविकता कैसे मालूम हो? सत्य का पता कैसे चले? राजा ने स्वयं विचार किया और पहले सरदार को ही सत्यवादी कहा तथा अपराधी की सजा कम कर दी। दूसरे सरदार को उसने कहा चाहे तुम्हारी बात ठीक भले ही हो, पर उसका परिणाम दूसरों को कष्ट मिलना तथा हमारा क्रोध बढ़ाना है। इसलिए वह सत्य होते हुए भी असत्य जैसी है। और इस पहले सरदार ने चाहे असत्य ही कहा हो, पर उसके फलस्वरूप एक व्यक्ति की जीवन रक्षा होती तथा हमारे हृदय में दया उपजती है इसलिए वह सत्य के ही समान है। दया-यज्ञ एक गृहस्थ ने तीन यज्ञ किये जिनमें उसका सब धन खर्च हो गया। गरीबी से छूटने के लिए एक विद्वान् ने बताया कि तुम अपना यज्ञों का पुण्य अमुक सेठ को बेच दो, वह तुम्हें धन दे देंगे। वह व्यक्ति पुण्य बेचने चल दिया। रास्ते में एक जगह भोजन करने बैठा तो एक भूखी कुतिया वहाँ। बैठी मिली, जो बीमार भी थी चल फिर भी नहीं सकती थी। उसकी दशा देख कर गृहस्थ को दया और उसने अपनी रोटी कुतिया को खिला दी और खुद भूखा ही आगे चल दिया। धर्मराज के यहाँ पहुँचा तो उनने कहा-तुम्हारे चार यज्ञ जमा है। जिसका पुण्य बेचना चाहते हो? गृहस्थ ने कहा-मैंने तो तीन ही यज्ञ किये थे, यह चौथा यज्ञ कैसा? धर्मराज ने कहा-यह दया-यज्ञ है। इसका पुण्य उन तीनों से बढ़कर है। गृहस्थ ने एक यज्ञ का पुण्य बेचा। उसमें जो धन मिला उससे दया-यज्ञ करने लगा। पीड़ितों की सहायता ही उसका प्रधान लक्ष बन गया। इसके पुण्य फल से उसने अपने लोक-परलोक दोनों सुधारे। दया और उदारता से प्रेरित होकर किया हुआ परोपकार साधारण धर्म प्रक्रियाओं की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ हैं। भावना का मूल्य एक बार यमराज के सामने दो महिलाएँ उपस्थित की गई। एक थी पतिव्रता दूसरी वेश्या। यमराज ने चित्रगुप्त को बुलाकर उनके पाप पुण्य मालूम किये और पतिव्रता को नीचे वाला स्वर्ग तथा वेश्या को ऊपर वाला स्वर्ग प्रदान किया। इस पर पतिव्रता बहुत क्रुद्ध हुई। उसने कहा मैंने अष्टावक्र जैसे कुरूप और सब प्रकार से दीन-हीन पति की जीवन भर कष्ट पूर्वक सेवा करके पतिव्रत धर्म निबाहा तब भी मुझे नीचे का स्वर्ग और इस विलासिनी कुलटा को ऊपर का स्वर्ग! यह तो सरासर अन्याय है!! यमराज ने पतिव्रता को सांत्वना देते हुए कहा-बेटी हमारे यहाँ केवल क्रिया ही नहीं भावना भी देखी जाती है। तुम दोनों का घर आमने-सामने था। जब इस वेश्या के यहाँ छैल-छबीले लोग आते थे तब खिड़की में से झाँक कर तुम्हारी आँख उन्हें देखने और मन उन पर ललचाने में फिरा करती था। पर यह वेश्या जब तुम्हें पति-सेवा करते देखती थी तो तुम्हें साक्षात् देवी मानते हुए, तुम्हारे जैसे धन्य जीवन प्राप्त करने की परमेश्वर से सदा प्रार्थना किया करती थी। तुम दोनों के शरीरों ने जो किया उसकी अपेक्षा तुम्हारे मनों में जो भावना रही उसकी भी उपेक्षा नहीं की जा सकती। धर्म में भावना की ही प्रधानता होती है। बाहर से दीखने वाला धर्म भीतर से अधर्म भी हो सकता है और बाहर से दीखने वाले अधर्म का वस्तुतः धर्म होना भी संभव है। संसार कुछ भी समझे भगवान मनुष्य की भावना को परख कर ही उसके भले-बुरे होने का निर्णय करते है। अन्न का मन पर प्रभाव एक बार एक बड़े त्यागी महात्मा कहीं धर्मोपदेश करने लगे और वहाँ से एक सोने का हार चुरा लाये। तीसरे दिन वे बड़े दुखी मन से वहाँ पहुँचे और हार लौटाते हुए क्षमा माँगी। गृहस्थ को बड़ा आश्चर्य हुआ कि इतनी त्यागी और विद्वान् होते हुए भी क्यों उन्होंने हार चुराया और क्यों लौटाने आये? महात्मा जी ने बताया कि उस दिन उनने जिस व्यक्ति के यहाँ से भिक्षा ली थी वह चोर था, उसका अन्न भी चोरी से ही लाया हुआ था। उसे खाने से मेरी बुद्धि में चोरी के संस्कार पैदा हुए। इसके बाद दस्त शुरू हो गये और अन्न पेट से बाहर निकल गया तब सुबुद्धि लौटी और आपके हार लौटाने आया। अन्न से ही मन बनता है, इसलिए कुधान्य से सदा बचना चाहिए। शरीर रूपी रत्न भंडार एक मनुष्य किसी महात्मा के पास पहुँचा और कहा- मैं बहुत गरीब हूँ। भगवान की मुझ पर अकृपा, उसने औरों को बहुत धन दिया है पर मेरे पास कुछ भी नहीं है। आप ऐसी कृपा कर दीजिए जिससे मुझे भी धन मिल जाय। महात्मा ने कहा- जो कुछ तेरे पास है उसे बेच दे तुझे बहुत धन मिल जाएगा। उसने कहा मेरे पास कुछ भी नहीं है, ईश्वर ने ऐसा भी मुझे कुछ नहीं दिया जिसे बेच कर मैं अपना काम चला लेता। महात्मा ने कहा-अपनी एक आँख बेच दे मैं तुझे दस हजार रुपया दिला दूँगा। इस पर वह तैयार न हुआ। फिर क्रमशः हाथ, टाँग, नाक, जीभ आदि बेचने के लिए कहा और प्रत्येक चीज के लिए दस-दस हजार रुपया कीमत बताई। वह व्यक्ति इनमें से किसी भी चीज को बेचने को तैयार न हुआ । तब महात्मा ने कहा-दस-दस हजार मूल्य की दस चीजें तो मैं से माँगी। एक लाख रुपए कीमत की यही सम्पत्ति तेरे पास मौजूद है फिर अपने को गरीब क्यों बताया है? जा, ईश्वर ने जो प्रचुर सम्पत्ति का भंडार शरीर तुझे दिया है इसे काम में ला। परिश्रम कर और जो पूँजी ईश्वर ने दी है उसके द्वारा उपार्जन करके अपना काम चला और प्रसन्न रह। कुछ आपत्ति ग्रस्तों को छोड़कर इस संसार में निर्धन कोई नहीं। शरीर से उचित पुरुषार्थ करके हर कोई अपनी आवश्यकताएँ पूरी करने लायक कमा सकता है। भगवान ने शरीर रूपी बहुमूल्य रत्न भंडार हर किसी को दिया है। इसका ठीक तरह उपयोग करने वाला कभी दरिद्र नहीं रह सकता। कलह से दरिद्रता एक बहुत धनवान् व्यक्ति के यहाँ चार बेटों की चार बहुएँ आई। वे बड़े उग्र और असहिष्णु स्वभाव की थीं, आपस में रोज ही लड़ती। दिन-रात गृह-कलह ही मचा रहता। इससे खिन्न होकर लक्ष्मी जी ने वहाँ से चले जाने की ठानी। रात को लक्ष्मी ने उस सेठ को स्वप्न दिया कि अब मैं जा रही हूँ। यह कलह मुझसे नहीं देखा जाता। जहाँ ऐसे लड़ने झगड़ने वाले लोग रहते हैं वहाँ मैं नहीं रह सकती। सेठ बहुत गिड़गिड़ाकर रोने लगा, लक्ष्मी के पैरों से लिपट गया और कहा मैं आपका अनन्य भक्त रहा हूँ। मुझे छोड़कर आप जावे नहीं। लक्ष्मी को उस पर दया आई और कहा-कलह के स्थान पर मेरा ठहर सकना तो संभव नहीं। ऐसी स्थिति में अब मैं तेरे घर तो किसी भी प्रकार न रहूँगी पर और कुछ तुझे माँगना हो तो एक वरदान मुझ से माँग ले। धनिक ने कहा-अच्छा माँ यही सही। आप यह वरदान दें कि मेरे घर के सब लोगों में प्रेम और एकता बनी रहे। लक्ष्मी ने ‘एवमस्तु’ कह कर वही वरदान दे दिया और वहाँ से चली गई। दूसरे दिन से ही सब लोग प्रेम पूर्वक रहने लगे और मिल-जुल कर सब काम करने लगे। एक दिन धनिक ने स्वप्न में देखा कि लक्ष्मी जी घर में फिर वापिस आ गई हैं। उसने उन्हें प्रणाम किया और पुनः पधारने के लिए धन्यवाद दिया। लक्ष्मी ने कहा-इसमें धन्यवाद की कोई बात नहीं है। मेरा उसमें कुछ अनुग्रह भी नहीं है। जहाँ एकता होती है और प्रेम रहता हूँ वहाँ तो मैं बिना बुलाये ही जा पहुँचती हूँ। जो लोग दरिद्रता से बचना चाहते हैं और घर से लक्ष्मी को नहीं जाने देना चाहते उन्हें अपने घर में कलह की परिस्थितियाँ उत्पन्न नहीं होने देनी चाहिए। शारीरिक सौंदर्य का आधार एक कन्या बड़ी रूपवती थी। उस पर एक राजकुमार आसक्त हो गया और उसे प्राप्त करने के लिए दुखी रहने लगा। युवती ने उसके विचार बदलने की सोची उसने दस्त कराने की दवा ली और उसे कई दिन तक पचास-पचास दस्त होते रहे। मल के पात्र को उसने फेंका नहीं वरन कपड़े से ढक दिया। एक सप्ताह में उसका रूप कुरूपता में बदल गया। अब उसने राजकुमार को बुलाकर चौकी पर बिठाया। राजकुमार ने देखा कि कुछ दिन पूर्व रूपवती दीखने वाली लड़की बड़ी कुरूप दीख रही है, उसके शरीर में बदबू आ रही है। सभी अंग घृणास्पद हो रहे हैं। उसका मन उससे उचक गया साथ ही उसने पूछा-तुम्हारा इतना सुंदर रूप जो पहले मैंने देखा था वह कहाँ गया? लड़की ने उस मल-पात्र की ओर इशारा करके बताया कि उसमें रखा हुआ है। राजकुमार ने कपड़े को हटाकर मल भरे पात्र को देखा तो उसे और भी घृणा हुई। राजकुमार के विचार बदल गये। उसने उस युवती को उसी दिन अपनी धर्म बहिन माना और अपनी गलतियों के लिए क्षमा माँगी।

