बुद्धिमान यह किया करते हैं
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अग्रुभ्यश्च महदभ्यश्च शास्त्रेभ्यः कुशलोदरः
सर्वतः सारमादधात् पुष्पेभ्य इव षटपढ़ःबुद्धिमान मनुष्य छोटे और बड़े सब शास्त्रों का सार ग्रहण करें जैसा भौंरा फूलों का रस ग्रहण करता है।
सर्वनाशे समुत्पन्नेऽर्घत्यजति पंडितः
सर्वनाश दिखाई पड़ने पर बुद्धिमान लोग आधा छोड़ देते हैं।
तस्मात् सत्यं बढ़ेत्प्राज्ञों यत्पर प्रीति कारणाम।
सत्यं यत्पर दुखाय तदा मोन परो भवेत्विष्णु पुराण ३।१२।४३सत्य वही बोले जिससे दूसरों की प्रसन्नता बड़े। जिसके कारण दूसरों का दुःख बढ़ता हो उस सत्य बोलने से तो मौन रहना अच्छा।
धनं च धमैंक फलं यतो मैं ज्ञानं सविज्ञान मनु प्रशान्ति-श्रीमदभा
११।५।२०धन का एक ही सदुपयोग है-धर्म जिससे ज्ञान, विज्ञान और शांति मिले।
अक्लेशन शरीरस्य कुवीतघन संचयम्-मनु 3/3
उतना धन संचय करें जिसके लिए शरीर को बहुत कष्ट न उठाना पड़े।
ब्राह्में मुहर्तें दुष्यत धर्मार्थी नानुचिन्त येन्-मनु 4/260
प्रातःकाल उठकर धर्म और अर्थ की चिंता करे।
योऽसाधुभ्योऽर्य मादाय साधुभ्यः संप्रयच्छन्ति।
सकृत्वा प्लवमात्मानं सन्तारयति तावुऔ-मनु 11/19जो दुष्टों का धनापहरण कर सत्पात्र को दे देता है वह अपने को नाव बनाकर दोनों को पार करता है।
अघोऽघः पश्यतः कस्य, महिमा नोपचीयते।
उपर्युपरि पश्यन्तः सर्व दरिद्रति।अपने से नीचे वालों को देखने से मनुष्य अपने को महान् अनुभव कर सकता है। पर यदि ऊपर वालों को देखेगा तो अपने को दीन दुखी ही समझेगा।
अक्रोधेन जयेत् क्रोध मसाधु साधुना जयेत्
जनेत कदर्य दानेन जयेत सत्येन चानृतम-विदूर नीति 7/72 क्रोध को शांति से जीते, दुष्टता को सज्जनता से जीते, लोभी को देकर जीते, और असत्य को सत्य से जीते।
श्रीरामश्रितमुदकं क्षीरमेव भवति।
चाणक्य सूत्र 2/77दूध का आश्रय लेने वाला पानी भी दूध के समान ही हो जाता है।
पूर्वे वयसि तत् कुर्वाद येत वृद्धसुखं बसेत्
पात्रीवेन तत कुर्पाद् येन प्रेत्यं सुखं बसेत्-विदूर नीति 3/68 चढ़ती आयु में यह काम करे जिससे बुढ़ापा सुख पूर्वक बीते। और जीवन भर वह काम करें जिससे मृत्यु के उपरान्त भी सुख मिले।
संगच्छष्ठां संबदध्वं, संवोमनाँसि जानताम्-ऋग्वेद 10/191/2
साथ-साथ बोलो, साथ-साथ चलो। एक दूसरे को दुःख सुख को जानो।
न दुरुक्ताय स्पृहवेत-ऋग्वेद 1/41/9
अपशब्द का अवसर नहीं आने देना चाहिए।
अःकुश्यमानों नाक्रोशेन्मन्युरेवतितिक्षतः
आक्रोष्टारं निर्दहति सुकृतं चास्य विन्दति-विदूर नीति 4/5कटुवचन कहने वाले से भी कटुवचन न कहे। क्रोध को भी सहे इससे विपक्षी नष्ट होगा और उसके पुण्य क्षीण हो जायेंगे।
वस्तुःदोष मनादृत्व गुणान् चिन्वन्ति तद्विदः।
अपि कंटकिनः पुष्पेगंधं जिघ्रन्दिष्टपदाः॥किसी वस्तु के दोष का ध्यान न करते हुए बुद्धिमान उसे गुणों को ही ग्रहण करते हैं। गौंरा काँटे वाले पौधों में से भी गन्ध ग्रहण कर लेता है।
युक्तियुक्तमुपादेयं वचनं बालकादपि।
अन्यतृणमिव त्याजमयमप्युक्तं पद्यजन्मना॥अपि पौरुष मादेयं शास्त्रंचेघु क्तिबोधकम्।
अन्यत्त णमिव त्याज्यं भ्ज्ञाव्यंन्यायैक सेविना-योगवशिष्ठबालक की भी युक्तियुक्त बात को मान लें और यदि अयुक्त बात ब्रह्म कहें तो भी न मानें। युक्तियुक्त लेख चाहे साधारण लेखक का हो तो भी माननीय है। अयुक्तियुक्त शास्त्र, चाहे वह किसी ऋषि का ही बनाया क्यों न हो घृणा के समान फेंक देना चाहिए।
दौ भागौं पूरयेदन्नैस्तोयेनेकं प्रपूरयेत।
वायोः संचरणार्थाय चतुर्यमवशेषयेत्॥पेट का आधा भाग भोजन करे, चौथाई पानी से भरे और एक चौथाई वायु के आवागमन के लिए खाली रहने दे।
परश्चेदेन मतिवादवाणैभृशं
विद्वयेच्छम एवेह कार्यः।संरोध्यमाणः प्रतिहज्यति यस आदत्ते सुकृतं वै परस्य-महाभारतप्रतिपक्षी यदि कुवाक्य बोले तो भी धीर पुरुष शांत ही रहते हैं। शत्रु के क्रोध दिलाने पर भी जो क्रोधित नहीं होता वह धैर्यवान् व्यक्ति शत्रु के पुण्य का हरण कर लेते है।
यशो रक्षन्ति प्राणान् पापद्विभ्यतिन द्विषः
अन्विष्यन्रयर्थिनो नार्थान् निसर्गोऽयंमहात्मनाम्यश की रक्षा करते हैं प्राणों को नहीं। पाप से डरते है शत्रु से नहीं। याचकों को ढूँढ़ते हैं धन को नहीं। यही महात्माओं का स्वभाव है।
सज्जनाएव साधूनां प्रयवन्तिगुणोत्करम।
पुष्पाणाँ सौरभं प्रायस्तन्वते दिक्षुमासताः॥सज्जनों के पक्ष का सज्जन ही प्रसार करते हैं। पुष्पों के सौरभ को वायुदेव ही सब दिशाओं में फैलाते हैं।
न मीतो मरणादस्मि केवलं दूषितं यशः।
विशुद्धत्य हि में मृत्युः पुत्र जन्म समकिल-मृच्छकटिकमरने का भय नहीं। भय केवल यह है कि यश दूषित न हो जाय। यदि यश देने वाली मृत्यु हो तो वह पुत्र जन्म के समान आनन्द दायक है।
यशस्तु रक्षं परतो यशोधनैः
यशस्वी लोग अपने महान् धन-यश की रक्षा करते हैं।
कीर्तिहि पुरुषं लोके संजीवयति मातृवत
अकीर्जि जीवितं हन्ति जीवितोऽपि शारीरिणः-महाभारतकीर्ति का भाव माता की तरह जीवन दायक है। अपयश तो जीवित को भी मृतक बना देने वाला है।
यदा मानं लभते माननार्ह-स्तदा सवै जीवति जीवलोके।
यदावमानं लभते महान्तंतदा जीवन्मृत इत्युच्यते सः-महाजब तक सम्माननीय व्यक्ति मान पूर्वक संसार में जीवित है तभी तक वह जीवित है। जब उसका तिरस्कार होने लगा तो वह जीवित ही मृतक के समान है।

