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Magazine - Year 1961 - Version 2

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बिखरे विचार

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क्या सत्य के ठेकेदार हम ही हैं ?

सत्य वही नहीं है जिसे हम सत्य मानते हैं। वह उससे कहीं अधिक विस्तृत है। दूसरे लोग जो हमसे भिन्न विचार रखते हुए भी अपनी मान्यता को सत्य मानते हैं फिर उसे असत्य कैसे कहा जाएगा? यदि मान्यता ही सत्य की कसौटी है तो किसकी मान्यता असत्य है। इसका निर्णय कैसे होगा? यदि मान्यता ही सत्य का आधार होती तो सबकी मान्यताएँ एक जैसी होनी चाहिए थी, क्योंकि सत्य एक ही हो सकता है, अनेक नहीं। फिर जब मान्यतायें विभिन्न हैं तो इन्हें सत्य मानना-सत्य को अनेक होना मानने के समान होगा। ऐसी दशा में वह परस्पर विरोधी अनेक रूप वाला सत्य वास्तविक सत्य कैसे माना जा सकेगा?

इसलिए यह मानना पड़ता है कि हममें से पूर्ण सत्य के दर्शन बहुत कम को हो पाते है। हमें उसके एक अंग का आँशिक दर्शन ही होता है। जिस प्रकार चींटी की छोटी आंखें, हाथी के विशाल शरीर की सब ओर से दर्शन नहीं कर पाती, उसके शरीर का केवल एक छोटा अंग ही उसे दीखता है। पर दूसरी चींटी जो हाथ के दूसरे शरीर के समीप है यदि भिन्न आकार देखती है तो उसकी दृष्टि को भी असत्य नहीं कहा जा सकता।

यह मानना कि जो कुछ हम जानते हैं, जो कुछ हम मानते हैं वह सत्य ही है एक बहुत बड़ा भ्रम है। जानकारी प्राप्त करने और मान्यताएँ बनाने की हमारी मर्यादाएँ बहुत सीमित एवं अपूर्ण हैं। जो कुछ सोचा गया, समझा गया है वह सत्य ही है यह मानने का कोई ठोस कारण नहीं है। एक समय जो बात सत्य एक उचित प्रतीत होती है, दूसरे समय, दूसरे कारण उपस्थित हो जाने पर वह पूर्व मान्यता असत्य एवं अनुचित सिद्ध हो जाती है, ऐसी दशा में अपने को ही सत्यवादी कहना अनुपयुक्त ही है।

अन्त में सत्य की ही विजय होगी ?

चरित्र का धन इकट्ठा करके गरीबी में भी अमीरी का आनन्द लिया जा सकता है। चोरी से कोई धनवान् नहीं बन सकता और न दान शीलं को कभी भूखे मरते देखा गया है। यदि हम सचाई के मार्ग पर चलें तो सारी दुनियाँ हमारी सहायता करेगी। हो सकता है कि आरंभ में सच्चे आदमी झूठे लोगों के बीच तिरस्कृत हों और मनाये जाय पर यह स्थिति देर तक नहीं रह सकती। सत्य का मूल्य एक दिन समझ ही जाएगा और उसका पालन करने वाला अपना महानता का समुचित प्रतिफल प्राप्त करेगा।

जीवन की सार्थकता।

मनुष्य जन्म लेना उसी का सफल है जिसके द्वारा मानव जाति का कुछ हित साधन हुआ हो। जिसने गिरे हुओं को उठाने के लिए कुछ नहीं किया, जिसने अपने ज्ञान और शरीर के द्वारा किसी को प्रकाश नहीं दिया, जिससे किसी को प्रेरणा प्राप्त नहीं हुई। जिसने किसी के सुख साधनों को नहीं बढ़ाया तो ऐसा जीवन व्यर्थ ही गया समझना चाहिए।

जीवन की सार्थकता इसी में है कि उसका उपयोग परोपकार के लिए हो। जिसने अपना ही सुख देखा, अपना ही पेट भरा, अपना ही लाभ सोचा उस तुच्छ व्यक्ति की कौन प्रशंसा करेगा? उसे किस आदर्श के लिए दुनिया याद रखेंगे? पेट पाल लेना और स्वार्थ साथ लेना कोई बड़ी बात नहीं है। इसमें तो पशु पक्षी भी चतुर होते है। मनुष्य जीवन की सार्थकता इसी में है कि यह आदर्श बने ओर अपने पीछे वालों के लिए कुछ अनुकरणीय आदर्श छोड़ जाय।

खाँसी से मृत्यु

डाक्टरों का अभिमत है कि जितने व्यक्ति शारीरिक क्षति एवं दुर्बलता से मरते हैं उससे कहीं अधिक की मृत्यु मानसिक आघात और मस्तिष्कीय दुर्बलता से भी हो जाती हैं। यदि कोई बीमार यह मान बैठे कि इस बीमारी से वह अच्छा नहीं हो सकेगा तो फिर उसका किसी भी इलाज से बच सकता कठिन है। इसके विपरीत यदि उसकी इच्छा प्रबल है तो कठिन रोगों को भी परास्त कर सकता उसके लिए संभव है। जिनके संबंध में डाक्टर निराश हो चुके हैं।

अमेरिका के जंगली रेड इण्डियन मामूली खाँसी बुखार से मर जाते हैं। उनका विश्वास है कि यदि बुखार के साथ खाँसी हो जाय तो मृत्यु निश्चित है। किसी बुखार के रोगी को यदि खाँसी आने लगे तो वे उसका उपचार बंद कर देते हैं और मृत्यु की तैयारी करने लगते हैं। वह रोगी भी खाँसी को मृत्यु के रूप में ही देखता है और मरने के दिन गिनने लगता है। इसका मनोवैज्ञानिक प्रभाव यही होता है कि वह रोगी कुछ ही दिन में निश्चित रूप से मर जाता है। जिस खाँसी को सभ्य समाज में एक मामूली सा मर्ज माना जाता है वही रेड इण्डियन के लिए यमदूत के रुपं में आवे, इसमें आश्चर्य तो लगता है पर जो संकल्प शक्ति एवं गाढ़ विश्वास के परिणामों को जानते हैं उनके लिए खाँसी से मृत्यु हो जाने में आश्चर्य जैसी कोई बात नहीं है।

मिलना ही सत्य है

मिलना इस सृष्टि का स्वाभाविक गुण है। हर पदार्थ अपने सजातियों के साथ मिलने के लिए प्रयत्न कर रहा है। जड़ जगत में यह प्रक्रिया निर्बाध रूप से काम कर रही है। टकराना तो एक दुर्घटना मात्र है। सहर्ष कदाचित और कभी-कभी ही होता है, सो भी तब जब कोई विकृतियाँ अनावश्यक मात्रा में इकट्ठी हो जाती है। संसार का सारा क्रम मिलन धर्म पर अवलम्बित है। मिलन से ही पोषण, विकास और अभिवर्धन का कार्य होता है। उल्लास और आनन्द का माध्यम भी मिलन ही है। सहर्ष को असत्य और मिलन को सत्य कहा गया है। हमें मिलन की ही बात सोचनी चाहिए और उसी के लिए प्रयत्न करना चाहिए।

प्रतिभा को बिखेरिये मत

अपनी प्रतिभा को बहुमुखी करके चारों ओर बखेर देना एक बड़ी भूल है। अनेकों दिशाओं में मन घुमाने और रोज नये काम ढूँढ़ने की अपेक्षा यह अच्छा है कि काफी समझ सोच के कोई मार्ग ग्रहण किया जाय और फिर मजबूती से उसे पकड़े रहकर उसी दिशा में प्रगति करते रहा जाय। जो व्यक्ति एक चीज ढूँढ़ता है वह उसे पा लेता है और जो बहुत कुछ चाहता है, सब कुछ ढूँढ़ता है उसे कभी नहीं मिल पाता। लगातार एक जगह गिरने वाली बूँदें पत्थर में भी छेद कर सकती हैं, पर लंबी दौड़ में उछलते फिरने वाला नाले का पानी धड़धड़ाता हुआ क्षण भर में निकल जाता हे पीछे उसका पता भी नहीं चलता कि कहाँ गया? एक स्थान पर घनिष्ठ होकर जमे रहकर कम योग्यता और कम शक्ति के आदमी भी कुछ न कुछ सफलता प्राप्त कर सकते हैं। पर अनेक दिशाओं में चित्त को डुलाने वाले किसी काम पर न जमने वाले शक्ति सम्पन्न और बुद्धिमान लोग भी कुछ महत्व पूर्ण कार्य कर सकने में असफल ही रहते हैं।

चरित्र बल की महत्ता

चरित्र के बल पर ही मनुष्य दूसरों का विश्वास सम्पादन करता है और उसी के आधार पर उसके मित्र बढ़ते हैं। हँसी मजाक और यारबाजी के सीमित खुदगर्ज मित्र हर किसी को चाहे जहाँ मिल सकते हैं पर ऐसे सच्चे मित्र जो मुसीबत की घड़ी में काम आ सकें, भटकने पर सही रास्ता बता सकें और प्रगति के मार्ग में सहायक हो सकें, सिर्फ चरित्रवान लोगों को ही मिलते हैं। दुनियाँ में चरित्रबल अभी बाकी है पर वह सिर्फ उनके लिए सुरक्षित है जो स्वयं चरित्रवान है। कोई झूठा और धूर्त व्यक्ति यह आशा करें कि दूसरे लोग उसके साथ भी भलाई का व्यवहार करेंगे तो यह उसकी भूल है। उसे दूसरों से वैसी ही धूर्तता की आशा अपने लिये करनी चाहिए जैसी कि उसने दूसरों के साथ की है।

निन्दक का बुरा क्यों मानें ?

यदि कोई हमारे दोष बताता है तो उसका यह उत्तर नहीं है कि वह दोष उस बताने वाले में भी हैं या अन्य लोगों में भी है। ऐसा उत्तर देने का अर्थ है उसके दोष बताने का बुरा मानना, उलाहना देना और विरोध करना। यह आत्म शुद्धि का मार्ग नहीं है। बताने वाला यदि सदोषं है या अन्य लोग भी उस दोष में ग्रस्त हैं तो इसका अर्थ यह नहीं है कि हमें भी उस दोष को अपनाये रहना चाहिए।

दीपक द्वारा फैलाये हुए प्रकाश का क्या इसीलिए बहिष्कार किया जाना उचित है कि वह अपने नीचे अंधकार क्यों छिपाये हुए हैं ? ठीक है, यदि दीपक अपने नीचे का अंधकार भी दूर कर सका होता तो उसे सर्वांगपूर्ण कहा जाता। पर यदि वह ऐसा नहीं है तो भी उसके फैलाये हुए प्रकाश का लाभ उठाने से हम वंचित रहें इसका कोई कारण नहीं है। यह भी कोई कारण नहीं है कि दीपक सब जगह का अँधेरा दूर क्यों नहीं करता। यदि वह सुयोग से हमारे घर में जल रहा है तो इसे सौभाग्य ही मानना चाहिए।

दोष बताने वाला यदि स्वयं निर्दोष रहा होता तो उसकी महानता असाधारण होती, पर यदि वह ऐसा नहीं है तो भी उसके इस उपकार को हमें मानना ही चाहिए कि उसने हमारे दोष बताये और उनकी हानि समझने एवं छोड़ने के लिए हमें उकसाया। ऐसा उपकार यदि कड़ुवे शब्दों में किया गया है तो भी इससे रुष्ट होने की कोई बात नहीं है। गिलोय कड़वी होती है पर उसके अन्य गुण मूल्यवान होने के कारण उसे त्याज्य नहीं माना जाता। हमारे दोष यदि कड़ुवे शब्दों में-निंदा या आक्षेप के रूप में बताये हैं तो भी उचित यही है कि उन पर बारीकी से ध्यान दिया जाए, और उस निंदा में जितना भी अंश सच हो उस बुराई को छोड़ने का प्रयत्न किया जाय।

छिपी हुई अन्तःशक्ति

पानी के विशाल जलाशय भरे पड़े रहते हैं उसकी शक्ति का किसी को पता भी न था। पर जब भाप बना कर पिस्टन रोड पर उसे केन्द्रित किया गया तो उससे बड़ी-बड़ी मशीनें और रेलें चलने लगीं। असंख्यों मनुष्य ऐसे हैं जिनमें प्रचंड शक्ति छिपी पड़ी हैं किंतु उसे जागृत और केन्द्रित नहीं किया जाता। यदि यह जागरण और केन्द्रीकरण होने लगे तो बड़े-बड़े महत्त्वपूर्ण कार्य उस शक्ति के द्वारा सम्पन्न हो सकते हैं।

देश की सच्ची सम्पत्ति

किसी देश के महापुरुष ही उसकी सच्ची संपत्ति हैं। उन्हीं के द्वारा वहाँ की जनता प्रेरणा ओर प्रकाश ग्रहण करती है। धन दौलत, सेना, विज्ञान, कला, शिक्षा स्वास्थ्य आदि से सम्पन्न होने पर भी यदि किसी देश का इतिहास महापुरुषों से रहित है और वर्तमान काल में भी श्रेष्ठ पुरुषों की कमी हे। तो वह सारी सम्पन्नता व्यर्थ है। उस सम्पन्नता से न तो उसका गौरव बढ़ेगा और न भविष्य बनेगा।

वर्क, ग्लेडटन, पिट, मिल्टन और शेक्सपियर को हटा देने पर इंग्लैंड के पास क्या रह जाता है ? विक्टर ह्गो, इसासाँत, नेपोलियन के बिना फ्राँस में क्या रखा है? सीजर, सिसरो और मार्क्स आरेलियस को हटा देने पर रोम गरीब हो जाएगा। डेमास्थनीज, फीडियस, सुकरात, प्लेटो के बिना ग्रीस की क्या कीमत रहेगी? भारत में से यदि राम, कृष्ण, हरिश्चन्द्र, दधीचि, व्यास, वशिष्ठ, बुद्ध, गाँधी आदि को हटा दें तो इसका मूल्य क्या रहेगा?

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