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Magazine - Year 1961 - Version 2

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प्रेम के द्वारा सर्वांगीण कल्याण की साधना

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आज का युग अपने पराये के भाव को अधिक प्रोत्साहन दे रहा है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी और अपने परिवार की सुख-समृद्धि के लिए प्रयत्नशील है। पारस्परिक प्रेम-भाव नष्ट हो रहा है। अपने ही परिवार में भी प्राथमिकता अपने व्यक्तित्व को ही देने का यत्न किया जाता है। मान लीजिए कि एक परिवार में आठ व्यक्ति हैं, उन पर दो सौ रुपया मासिक व्यय होता है और गृहस्वामी इतना ही कम पाता है, तो प्रायः यह प्रवृत्ति रही है कि गृह स्वामी को अच्छा भोजन, अच्छा कपड़ा प्राप्त करने की इच्छा होगी, उसके कारण चाहे स्त्री-बालकों को घटिया दर्जे का भोजन, कपड़ा ही क्यों न मिले। वे समान रूप से सब का एक-सा खान-पान रख सकते हैं। इससे पारस्परिक प्रेम भी बढ़ सकता है। क्योंकि अपने लिए अधिक सुख-प्राप्ति के यत्न से दूसरों के मन में जो दुर्भावना उत्पन्न होती है, वह समान-भाव रखने से नहीं होनी।

परायेपन के भाव से संसार में पागलपन और मानसिक चिन्ताएँ बढ़ती जा रही हैं। दुर्भावना और कलह को बोलबाला है। हत्याएँ और आत्म हत्याएँ भी दिन पर दिन बढ़ रही है। इन सब में अपना-परायापन ही कारण रूप से विद्यमान् है। यदि मनुष्य सर्वोत्तम-भाव को अपना ले-सभी को अपना मानने लगे तो ऐसी घटनाओं में बहुत कुछ कमी हो सकती है।

इन बुराइयों को दूर करने के लिए प्रेम-पूर्ण वातावरण चाहिए यदि आप अपने प्रति अथवा ईश्वर के प्रति प्रेम करते हैं तो उसकी मात्रा में बुद्धि कीजिए ओर दूसरों के प्रति भी प्रेम करने का स्वभाव बनाइए प्रेम का यह कार्य पहले घर से ही आरंभ कीजिए। पत्नी, पुत्र, भाई, बहिन, माता, पिता आदि से प्रेम कीजिए। जब आप स्वयं विश्वास कर लें कि इनके प्रति प्रेम करने में सफल हो गये हैं, तब घर से बाहर निकल प्रेम की सरिता बह दीजिए।

आपका प्रेम दूसरों के प्रति जैसे-जैसे बढ़ेगा, वैसे-वैसे ही आपकी शक्ति सर्वत्र बढ़ती जाएगी। उस समय अधिक से अधिक व्यक्ति आपसे प्रेम करते पायें जायेंगे। अधिक से अधिक आपसे प्रेम करते पाये जायेंगे। अधिक से अधिक लोग आपसे मिलने लगेंगे। यदि आप बुरे व्यक्ति पर भी दया और प्रेम प्रदर्शित करेंगे तो संभव है कि वह आपके प्रभाव से अपनी बुराइयों को धीरे-धीरे छोड़ दें।

जो लोग आपसे द्वेष करते हैं, उनके प्रति भी द्वेष-भाव मत रखिए और सदा उनके कल्याण की कामना करिए जो आपके निन्दक, पीड़क और शत्रु हैं, उनको भी बुरी दृष्टि से मत देखिए। एक लोकोक्ति भी है- ‘जो तोकू काँटे बोबे, वाकूँ वो तू फूल।’ जिस व्यक्ति में प्रेम के गुण का अभाव है, उसके प्रति प्रेम कीजिए। अपने आचरण से उसे प्रेम करना सिखाइये।

बुद्ध, दयानन्द, शंकराचार्य, गाँधी आदि सबने जन-जन में जाकर अपना प्रेममय संदेश दिया। वे सबसे प्रेम करते और लोगों के दुःख को अपना ही दुःख समझते थे। ईसा के अनुयायी एवं प्रचार करते थे। उन्होंने धर्म प्रचार के लिए अनेक छोटे काम करने में भी अपने को हीन नहीं माना। उन्होंने अपने लिए कभी किसी प्रकार के प्रत्युपकार की माँग नहीं की। उनका उद्देश्य केवल सेवा और प्रेम था। उसके विरोधी उनकी हिंसा में लगे थे, परंतु उन्होंने प्रेम के बल पर ही अपने विरोधियों पर विजय प्राप्त की थी।

सबकी मंगल कामना करो, इससे आपका भी मंगल होगा। उन लोगों की हित की बात सोचो, जिनके हित की बात कोई नहीं सोचता। जो लोग भयभीत, अपाहिज, वृद्ध, रोगी तथा पतित है। उनकी भी कल्याण-कामना करो। जहाँ कहीं किसी के दुःख की बात-सुनो उसकी सहायता के लिए यत्न कीजिए। किसी का मृत्यु-समाचार सुनकर उसके प्रति सम्वेदना प्रकट करते हुए ईश्वर से उसकी सद्गति के लिए प्रार्थना कीजिए। ऐसी प्रार्थना बिना किसी को बताये ही की जा सकती है ओर यह आवश्यक नहीं कि मृत व्यक्ति अपना परिचित ही हो। अपरिचित व्यक्तियों के लिए प्रार्थना करना चाहिए। इससे मृत व्यक्ति को कुछ लाभ हो या न हो, परंतु आपकी आत्मा का अवश्य लाभ होगा। आपके मन में सब प्राणियों के लिए कल्याणकारी भाव जाग्रत होंगे।

आप जब किसी व्यक्ति को अधिक बुरा पावें, तब इस बात पर विचार कीजिए कि क्या वह संभ्रांत नागरिक बन सकता है? तो आपका हृदय ही यह उत्तर देगा कि गुण-अवगुण के भाव सभी में होते हैं, परंतु जिसका जो भाव जाग्रत हो जाता है, उसी के अनुसार मनुष्य कार्य करने लगता है। तो क्यों न उसके मन में सद्गुणों को चैतन्य किया जाय? यदि उसके साथ प्रेम का व्यवहार किया जाय तो वह अवश्य ही सुधर सकता है।

यदि आप सचमुच ही दूसरों की भलाई के लिए कटिबद्ध है तो आपको मानसिक और शारीरिक बल की उत्तरोत्तर प्राप्ति होती जायेगी और आपकी प्रार्थना में भी वह प्रभाव होगा कि जो कार्य शारीरिक श्रम से साध्य न हो, वह उससे सिद्ध हो जाएगा।

सच्चा प्रेम एकांगी नहीं होता, वह सबके लिए हितकर होता है। संसार में उसकी विद्यमानता कल्याणकारिणी होती है। यदि हम कोई कार्य अपने लिए ही करते हैं तो उससे हमारी आत्मा संकुचित हो जाती है। परंतु दूसरों के हित में किया गया कार्य हमारे विचारों को प्रशस्त करते हैं और उनके द्वारा अपने अभीष्ट पुण्य को प्राप्त करने में समर्थ होते हैं।

सबसे प्रेम करने वाले व्यक्ति बिना भेदभाव ओर पक्षपात के सभी मनुष्यों से मिलने का प्रयास करते हैं। उनके मन में अपने पराये का भेद नहीं होता। क्योंकि वे संकीर्ण विचारों के क्षेत्र से ऊपर उठकर विशाल विश्व में पहुँचते हैं। उस समय वह किसी परिवार विशेष के सदस्य नहीं होते, बल्कि विश्व भर के सब प्राणी उनके पारिवारिक सदस्य होते हैं। उनकी ऐसी भावना ही संसार में प्रेम के भावों को जाग्रत करती है।

मनुष्य की वासनाएँ जितनी बढ़ती हैं, उनके अनुसार ही उसकी आवश्यकताएँ बढ़ती जाती है। यह आवश्यकताएँ ही मानव-प्रेम में भीषण बाधा के समान उपस्थित होती है। इसीलिए ज्ञानी जन सबसे पहले अपनी आवश्यकताओं में कमी करते हैं। मानसिक चिन्ताओं को भी कम करने का यही एक सरल मार्ग है। मानसिक चिन्ताओं की कमी, आवश्यकताओं की कमी और वासनाओं की कमी, इस दिशा में प्रयत्न करते-करते मनुष्य एक दिन विकार रहित हो जाता है ओर जब उसके विकार मिट जाते हैं तभी वह सच्चा प्रेमी बनता है, इससे पूर्व कदापि नहीं बन सकता।

जो मनुष्य अन्य मनुष्यों की और विशेष कर मनुष्येत्तर प्राणियों की भी सेवा में लगा रहता है, वह निस्सन्देह दूसरों के लिए ही जीवित रहता है। उसे अपने दुःख दूर करने में आनन्द नहीं आता, बल्कि स्वयं दुःख पाकर भी वह दूसरों को सुखी करने में सुख मानता है। ऐसे मनुष्यों को स्वर्ग की भी कामना नहीं होती। बल्कि, सच मानिए-उनके लिए तो पृथिवी पर ही स्वर्ग है।

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