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Magazine - Year 1961 - Version 2

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Language: HINDI
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साधना की महानता

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आध्यात्मिक साधनाओं का मूल उद्देश्य आत्म निर्माण है। जीवन की सारी समस्याओं का उलझना-सुलझना बहुत कुछ मनुष्य की आन्तरिक स्थिति पर निर्भर रहता है। यों कभी-कभी कठिन प्रारब्ध भोग भी मार्ग में विघ्न बाधा बनकर अड़ जाते हैं और हटते-हटते बहुत परेशान कर लेते हैं, पर आमतौर से जीवन की गति विधि व्यक्ति की अपनी निजी मनोभूमि पर आधारित रहती है।

जिसे क्रोध आता है उसे सब कोई अपने प्रति पक्षी, दुष्ट और झगड़ालू दीखते हैं। जिसके मन में ईर्ष्या और द्वेष के प्रबलता है उसे सर्वत्र शत्रु और दुष्ट ही दिखलाई पड़ते हैं। आलसी को सब कार्य कठिन और सफलता के मार्ग में चारों ओर भारी विघ्न उपस्थित लगते हैं। विषय विकारों से जिसकी दृष्टि दूषित हो रही हैं उसे हर कोई व्यभिचारी लगता है। जिनकी प्रकृति अविश्वासी और छिद्रान्वेषी बन गई है उन्हें हर कोई संदिग्ध, धूर्त और दोषी प्रतीत होता है। डरपोक को चारों ओर से अपने ऊपर आपत्तियाँ मंडराती लगती रहती है। पतित दृष्टिकोण के लोगों को इस संसार में केवल पाप, पतन, छल, शोषण आदि दुष्प्रवृत्तियों का बोलबाला दृष्टिगोचर होता है। माना कि संसार में अनेक बुराइयाँ मौजूद हैं और उनकी मात्रा भी बहुत है पर इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि यहाँ बुराई के अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं। निश्चित रूप से इस धरती पर बुराई की अपेक्षा भलाई कहीं अधिक है। पाप की अपेक्षा पुण्य की मात्रा ज्यादा है, कठिनाइयों से सुविधाएँ अधिक हैं, दृष्टता से सज्जनता बढ़ी चढ़ी है। यदि ऐसा न होता तो यह दुनिया इस योग्य न रहती कि परमात्मा का पुत्र आत्मा यहाँ अवतार लेता और मृत्यु की अपेक्षा जीवन को अधिक प्यार करता।

प्याज खा लेने पर मुँह से बदबू आती है, नशा पी लेने पर पागलपन छा जाता है, सनाय खा लेने पर दस्त होने लगते हैं। विषपान करने वाले के सामने मृत्यु की विभीषिका उपस्थित हो जाती है। इसी प्रकार जिनकी मनोभूमि असंस्कृत, पतनोन्मुख निम्न स्तर की एवं उलझन भरी है उनका ब्रह्म जीवन निश्चित रूप से अस्त व्यस्त रहेगा। जितनी कुछ साधन सामग्री प्राप्त है वह सभी अपर्याप्त और दोष पूर्ण लगेगी। जितने व्यक्ति अपने साथ में किसी संबंध सूत्र में बँधे हैं वे सभी बुराइयों और बदमाशियों से भरे लगेंगे। जो भी परिस्थिति प्राप्त है वे सभी दुर्भाग्य पूर्ण प्रतीत होंगी। इस प्रकार का अनुभव करते रहने वाला न तो कभी सुखी रह सकता है और न सन्तुष्ट, उसे खिन्नता झुँझलाहट परेशानी और जलन ही घेरे रहेगी।

स्वार्थी दृष्टिकोण वाला व्यक्ति सदा अपना ही मतलब प्रधान रखेगा। दूसरों के न्यायोचित स्वार्थों को भी धक्का पहुँचा कर अपना स्वार्थ सिद्ध करेगा। ऐसे लोगों के प्रति भला किसके मन में श्रद्धा और सम्मान के भाव उठेंगे। जिसने दूसरों के प्रति कभी सेवा और सहयोग का व्यवहार नहीं किया उसे अपने प्रति किसी उपकार की क्या आशा करना चाहिए? कृतघ्न व्यक्ति जो दूसरों के उपकार और अहसान को तुरंत भुला देते हैं किसी में सज्जनता की झाँकी किस प्रकार कर सकेगा? कृतज्ञता और प्रत्युपकार की उच्च भावनाएँ उसके मन में कैसे उठेंगी? निष्ठुर, निर्दय ओर क्रूर व्यक्ति दया और करुणा की स्वर्गीय अनुभूति कहाँ कर पायेगा? अहंकार में जो डूबा रहता है, उसे नम्रता, विनय, शिष्ट और सभ्य व्यवहार करने की मधुरता का अनुभव क्या होगा? खुदगर्ज व्यक्ति के लिए निस्वार्थता का दिव्य रस आस्वादन कर सकना प्रायः असम्भव ही है।

जिसने अपनी मनोभूमि को सुसंस्कृत बनाने की साधना नहीं की, जिसके मन में केवल पाशविक संस्कार ही भरे पड़े हैं उसके लिए परमात्मा की पुनीत वृत्ति यह दुनियाँ-दुर्गन्धि भरे जलते हुए श्मशान के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। हो सकता है ऐसे लोगों को पूर्व पुण्यों से, चतुरता और पुरुषार्थ से भौतिक ऐश्वर्य प्राप्त हुआ हो, पर क्या इतने मात्र से सुख-शान्ति प्राप्त हो सकती है? भौतिक सम्पदाएँ केवल झंझट बढ़ा सकती हैं, जिम्मेदारियों और चिन्ताओं के बोझ से लाद सकती हैं, थकान और झुँझलाहट दे सकती हैं पर शांति और संतोष में इनसे कण भर भी वृद्धि न होगा। आन्तरिक स्थिति का, मनोभूमि का परिष्कार ही एक मात्र वह उपाय है जिससे बाहर की हर वस्तु और हर परिस्थिति अनुकूल बन सकती है। बेशक, इस दुनिया में ऊबड़ खाबड़ भी बहुत है पर जिसने अपने दृष्टिकोण को परिमार्जित और सुसंस्कृत बना लिया है। उसके लिए अवांछनीय तत्त्वों की अशुभ प्रतिक्रिया से अपने को बचाये रखना बहुत हद तक संभव है। जिसको सोचने का तरीका सही है, जिसके विचार और आदर्श उच्चस्तर के हैं वह अनायास ही इस संसार के दिव्य तत्त्वों को, सज्जनता को अपनी ओर आकर्षित कर सकता है और इसके सहयोग से लाभान्वित होकर मानव जीवन की सरसता का बहुत कुछ अनुभव कर सकता है।

जीवन में उपस्थित अधिकांश कठिनाइयाँ ऐसी होती हैं जिनमें समाज या दूसरे व्यक्तियों द्वारा उपस्थिति कठिनाइयों की अपेक्षा अपनी निज की भूल एवं अशुद्ध दृष्टि ही प्रमुख कारण होती है। स्वास्थ्य बिगड़ रहा है-क्या इसमें अपना आहार बिहार की मर्यादाओं का उल्लंघन एवं असंयम का कोई कारण नहीं रहा है? निश्चय ही यदि स्वास्थ्य के नियमों पर दृढ़ता पूर्वक चला गया होना तो अस्वस्थता का जो दुःख आज भोगना पड़ रहा है, न भोगना पड़ता।

आर्थिक तंगी परेशान कर रही है-क्या इसमें अपनी फिजूल खर्ची और उपार्जन में उपेक्षा कारण नहीं है? चूँकि दूसरे अधिक आमदनी वाले लोग अधिक खर्च करते हैं तो हमें भी उनकी नकल करके वैसे ही शान बनायें, इस प्रकार से सोचना और अपनी हैसियत से अधिक खर्च करना कहाँ तक उचित है? जब कि हमसे कम कमाने वाले गरीब लोग भी अपनी हैसियत के अनुरूप बजट बनाते और उसी में संतोष तथा व्यवस्था पूर्वक कार्य चलाते हैं तो हम वैसा क्यों नहीं कर सकते? जब अन्य लोग हमारी अपेक्षा अधिक परिश्रम अधिक दौड़ धूप करके, शान और शेखी की परवा न करके हलके समझे जाने वाले काम भी प्रसन्नता पूर्वक करते हैं और अपने उचित खर्चों के लायक कमा लेते हैं तो हम आलस और शान शेखी की आड़ लेकर बढ़िया अवसर की प्रतीक्षा में क्यों बैठे रहें? यदि हमारा आर्थिक दृष्टि कोण सही हो, उपार्जन और व्यय के संबंध में समुचित सावधानी रहे तो ऋणी होने का आर्थिक तंगी पड़ने का कोई कारण नहीं रह जाता। यह तंगी हम अपनी ही दुर्बलताओं के कारण पैदा करते हैं और उनमें सुधार भी तभी होता है जब हमारी अपनी आदतें सुधारती है।

कोई सच्च मित्र नहीं दीखता, शत्रुओं की संख्या बढ़ती जाती है-क्या इसमें अपनी असहिष्णुता, कृतघ्नता, स्वार्थ परता, अशिष्टता, रूखापन आदि का कोई दोष नहीं है? जो लोग दूसरों से मित्र भाव रखते हैं वे हमारे प्रति शत्रुता क्यों बरतते हैं, इस पर यदि कोई गंभीरता से विचार करे और बारीकी से आत्म निरीक्षण करे तो सहज ही यह पता चल जाएगा कि अपने अंदर भी कुछ ऐसे दोष हैं जो लोगों की दुष्टता को उभारने में बहुत हद तक सहायक होते हैं। जिन लोगों ने अपने स्वभाव में मधुरता की आवश्यक मात्रा का समावेश कर रखा है वे दुर्जनों में भी रहने वाली थोड़ी सज्जनता को उभार लेते हैं और उन से भी बहुत कुछ ऐसे लाभ उठा लेते हैं जैसे मित्रों से प्राप्त होते हैं। यह तथ्य यदि समझ में आ जाए और मनुष्य अपने स्वभाव में आवश्यक परिवर्तन कर ले तो मित्रों की कभी और शत्रुओं की अधिकता वाली कठिनाई बहुत हद तक हल हो सकती है।

घर में क्लेश रहता है, स्त्री, पुत्र कहना नहीं मानते, द्वेष और दुर्भाव बढ़ रहा है-क्या इसमें अपना अनावश्यक मोह, अनुचित नियंत्रण, डाँट डपट कटु भाषण प्यार से समझाने की उपेक्षा, आवश्यक प्रेम की कमी, न्यायोचित व्यवस्था की कमी, गुणों की प्रशंसा करने में कंजूसी आदि हमारा कोई दोष कारण नहीं है? हो सकता है कि हमारे परिवार के लोग अपेक्षाकृत कुछ अधिक असंस्कृत हों और उनकी बुराइयों औरों से अधिक बढ़ी चढ़ी हों। पर इसमें गृह संचालक का भी कुछ न कुछ दोष अवश्य रहता है। यदि आरंभ से ही उसने अपने में गृह संचालक के उपयुक्त आवश्यक गुण उत्पन्न कर लिये होते तो परिस्थिति उस सीमा तक न बढ़ती जितनी कि आज प्रतीत होती है। आज भी इन परिस्थितियों में भी यदि अपनी कुछ आदतों और दृष्टि दोषों को सुधार लें तो अभी भी बहुत कुछ सुधार हो सकता है और गृह क्लेश की समस्या अपने विकराल रूप से सिमट कर बहुत छोटी रह सकती है।

ऊपर की पंक्तियों में कुछ थोड़ से प्रश्नों पर विचार किया गया है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में ऐसी अगणित समस्याएँ हैं जिनसे घिरा हुआ मनुष्य सदा अशान्ति एवं असंतोष का अनुभव करता रहता है। प्रयत्न यह होता है कि परिस्थितियाँ बदल जाये पर कोई यह नहीं सोचता कि इन प्रतिकूलताओं की जड़ अपने अंदर है। आवश्यक हेर फेर करने का वही स्थान है। उसे संभाला जाय और सुधारा जाय तो बाहर की गुत्थियाँ सुलझे। अपने को निर्दोष और दूसरों को दोषी मानने की प्रवृत्ति अब हर व्यक्ति में बहुत बढ़ चली है। सारा दोष दूसरों के मत्थे मढ़कर अपने को निर्दोष सिद्ध करने के लिए हर कोई तत्पर दीखता है। आत्म निरीक्षण व्यर्थ लगता है। कोई दूसरा अपने दोष बताता है तो उस पर झुँझलाहट आती है। ऐसी स्थिति के रहते भला यह कैसे आशा की जा सकती है कि कोई समस्या स्थायी रूप से हल हो जाय। दूसरों को सुधारना, अपनी मन मर्जी का बना लेना कठिन है, सब प्रतिकूलताएँ अपनी अनुकूल हो जाय यह भी असंभव है। प्रयत्न करने से व्यक्तियों, वस्तुओं और परिस्थितियों में थोड़ा सुधार हो सकता है पर अधिक सुधार तो अपने दृष्टिकोण एवं स्वभाव में ही करना पड़ेगा। बाहरी समस्याओं की कुँजी अपने अंदर है। ताली से ही ताला खुलता है, अपने सुधार से ही संसार सुधरता है। दुनियाँ भर में बिखरे हुए काँटे हटा देना कठिन है पर पैरों में जूते पहनकर उनसे अपनी रक्षा सुगमता पूर्वक की जा सकती है।

वैयक्तिक जीवन की अगणित समस्याओं का हल मनुष्य को अपनी विचारधारा, भावना, आदर्शवादिता, स्वभाव, आदत एवं अभिरुचि के संबंधित हैं। सामाजिक समस्याएँ भी व्यक्तिगत समस्याओं का ही सम्मिलित रूप है। जिस समाज में जिस मनोभूमि के व्यक्तियों का बाहुल्य होता है वह समाज भी उसी रूप में दिखाई पड़ता है। हमारे समाज में आज अनेकों बुराइयाँ, दृष्टिगोचर होती हैं, बाल-विवाह वृद्ध विवाह, कन्या विक्रय, वर विक्रय, नशेबाजी, माँसाहार, छुआछूत, मृत्युभोज, भूत पलीत आदि कितनी ही कुरीतियाँ प्रचलित हैं। जुआ, चोरी, बेईमानी, भ्रष्टाचार, व्यभिचार, शोषण, आक्रमण आदि अनैतिकताऐं भी पनप रही हैं। देखने में यह सामाजिक दोष मालूम पड़ते हैं। पर वस्तुतः यह भी व्यक्तिगत दुर्बलताओं की ही प्रतिक्रिया हैं। फूट, विसंगठन, कायरता, सामूहिकता का अभाव, देश भक्ति एवं राष्ट्र भक्ति की कमी के कारण हमारा धर्म समाज एवं राष्ट्र कमजोर होता जाता है। इन बुराइयों के लिए भी व्यक्ति ही दोषी है राष्ट्र या समाज कोई अलग चीज नहीं, वह तो व्यक्तियों की सामूहिक स्थिति ही है। व्यक्तियों का आन्तरिक स्तर यदि सुव्यवस्थित हो तो राष्ट्रीय चरित्र एवं सामाजिक गठन स्वयमेव उत्कृष्ट रहेगा। जो लोग सामाजिक उत्थान एवं राष्ट्र निर्माण की बात सोचते हैं उन्हें यह बात भली प्रकार हृदयंगम कर लेनी चाहिए कि देश के नागरिकों के स्वभाव चरित्र और दृष्टि कोण को बदलना ही इसका एक मात्र उपाय है। इस तथ्य की उपेक्षा करके अन्य उपाय, चाहे वे कितने ही व्यवहार्य एवं विशाल क्यों न हो कदापि अभीष्ट उद्देश्य की पूर्ति न कर सकेंगे।

व्यक्ति निर्माण का कार्य क्या भाषणों और लेखों द्वारा सम्पन्न हो सकेगा? यह एक विचारणीय प्रश्न है। आज हर काम के लिए यही दो उपाय काम लाये जाते हैं। सामान्य जानकारी प्राप्त करने की दृष्टि से लेखों और भाषणों की भी एक सीमा तक आवश्यकता हो सकती है, पर इतने से ही काम न चलेगा इसके लिए रचनात्मक उपाय अपनाने पड़ेंगे। धार्मिकता और आस्तिकता का अन्तःकरण में प्रवेश होने से ही उन आदर्शों के प्रति निष्ठा बढ़ सकती है जो व्यक्ति की पाशविक दुष्प्रवृत्तियों का समाधान और दैवी सत्प्रवृत्तियों का उत्थान कर सकें। यही साधना है। साधना, मानव जीवन की प्रत्येक गुत्थी को सुलझाने वाली, प्रत्येक कठिनाई को समाधान करने वाली मानी जाती है। यह मान्यता असत्य नहीं है। आत्मा पर छाये हुए मल विक्षेपों को जो साधना हटा सकती है वह सुख शांति की प्रगति और उन्नति के द्वारा भी खिल सकती है। आत्म निर्माण की वैज्ञानिक विधि व्यवस्था ही साधना के नाम से पुकारी जाती है। आत्म निर्माण कार्य किसी विशाल कार्यालय या कारखाने के निर्माण से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। इस महान् कार्य को सम्पन्न करने वाली पद्धति साधना की महानता स्वल्प नहीं महान् ही है।

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