Magazine - Year 1965 - Version 2
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Language: HINDI
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श्रीरामानन्द चट्टोपाध्याय
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संसार में असंख्यों ऐसे महान पुरुष हो गये होंगे, जिनको संसार न जान सका। कहना न होगा कि ख्याति, कीर्ति, प्रशंसा और पूजा से दूर रह कर यथासाध्य समाज की सेवा कर के संसार से चले जाने वाले मौन-साधक उन तथाकथित सिद्धों से कही अधिक महान होते हैं, जो अपनी सेवाओं का मूल्य कम से कम प्रशंसा के रूप में तो प्राप्त करने का प्रयत्न किया ही करते हैं।
श्रीरामानन्द चट्टोपाध्याय एक ऐसे ही मौन साधक थे। उन्होंने अपने जीवन का अणु क्षण देश व समाज की सेवा में समर्पित कर दिया, किन्तु कभी भी यह न चाहा कि लोग उनकी प्रशंसा करे। उन पर श्रद्धा के फूल चढ़ाये।
श्रीमदा मोहन मालवीय, तेज बहादुर, सप्रू, मोती लाल नेहरू, सी. वाई. चिन्तामणि द्विजेन्द्र नाथ, रविन्द्र नाथ टैगोर, प्रफुल्ल चन्द्र राय, सी. एफ. एण्ड्रूज तथा भगिनी निवेदिता के समकक्ष जैसे युग-व्यक्तियों के परिचित श्रीरामानन्द चट्टोपाध्याय कोई जन्मजात बड़े आदमी नहीं थे। उनके समय में बहुत ही कम व्यक्ति ऐसे थे, जो साधारण स्थिति में जन्म लेकर अपने परिश्रम, पुरुषार्थ एवं अध्यवसाय के बल पर सम्मान उपार्जित कर सके हों। अन्यथा इस समय के लगभग सभी शिखरस्थ व्यक्ति प्रचुर साधन सम्पन्न परिवारों में जन्मे थे। उनके जीवन विकास में कोई अभाव जैसा प्रतिरोध कभी नहीं आया। साधनों की प्रचुरता का समुचित उपयोग कर के उन्नति की पराकाष्ठा पर पहुँचना एक बात है और अभावों के बीच आशा और उत्साह का सम्बल लेकर तिल-तिल मार्ग तय करते हुये ध्यानाकर्षण स्थिति में पहुँचना एक दूसरी बात है।
जहाँ एक ओर लोग अपने अल्प ज्ञान को चातुर्य पूर्ण ढंग से सामने रख कर समाज में अपनी प्रतिष्ठा का निर्माण किया करते हैं और कोई नगण्य सेवा कार्य भी हार फूलों से सजा कर समय-समय तथा स्थान-स्थान पर लोकेषणा से प्रेरित हो कर प्रदर्शित करने में तत्पर रहते हैं वहाँ श्रीरामानन्द चट्टोपाध्याय ने केवल कार्य करने की इच्छा से सदा ही आत्म-गोपन किया। जिनको काम करने की लगन होती है, जो वास्तव में कर्म-योगी होते हैं, वे अपनी समय-संपत्ति और विचार विभूति को उपासकों की निरुपयोगी श्रद्धा भक्ति से बचाने के लिए अपने को अधिक से अधिक छिपाने का प्रयत्न करते हैं। इसके विपरीत जिनको नाम की लगन होती है, लोकेषणा और ख्याति-तृष्णा होती है, वे काम छोड़ कर नाम के लिये स्वयं ही आत्म-प्रकाशन किया करते हैं।
जिन रामानन्द चट्टोपाध्याय ने बी. ए. पास कर प्रयाग विश्व-विद्यालय में फेलोशिप प्राप्त की और लगभग एक दर्जन पत्रिकाओं का सफल सम्पादन किया। उन्होंने जब पाठशाला में पदार्पण किया, उस समय वे शिक्षा शुल्क दे सकने में असमर्थ थे। निदान एक निःशुल्क (फ्री स्कूल) पाठशाला में प्रवेश लेना पड़ा। किसी फ्री स्कूल में प्रवेश लेना किसी के लिये भी अप्रतिष्ठा का प्रसंग था। किन्तु ज्ञान के भूखे रामानन्द चट्टोपाध्याय को प्रतिष्ठा-अप्रतिष्ठा से क्या मतलब था। एक तो किसी शिक्षार्थी वटुक का इससे कोई सम्बन्ध नहीं होता, फिर उनका ध्येय तो शिक्षा प्राप्त करना था न कि प्रतिष्ठा-अप्रतिष्ठा की देखभाल करना। किसी महान उद्देश्य के लिये आवश्यकता पड़ने पर स्वाभिमान की परिधि से निकल कर दो कदम अवमान्य की ओर चल लेना कोई निन्दा का विषय नहीं है, बल्कि निरहंकारिता का संसूचक कार्य है, जो हर प्रकार से सराहनीय है। शुभ कार्य में आड़े आया हुआ स्वाभिमान वास्तव में स्वाभिमान नहीं अहंकार अथवा दम्भ ही होता है, जो माध्यमिक लगन वाले व्यक्ति को प्रायः पदच्छेद कर ही देता है।
प्रारम्भिक पाठशाला में बालक रामानन्द का कार्य किसी प्रकार चलता रहा, किन्तु दस वर्ष की आयु तक पहुँचते-पहुँचते उसे आर्थिक कठिनाई के काट अधिक खटकने लगे। चेतनाशील चट्टोपाध्याय ने स्वावलम्बन का सहारा लिया। उसने अपने पाठ्य-क्रम के अतिरिक्त घोर परिश्रम कर के एक छात्रवृत्ति-परीक्षा उत्तीर्ण की, जिसके फलस्वरूप उसे चार रुपये मासिक की वृत्ति मिलने लगी।
स्वावलम्बन पूर्ण पुरुषार्थ का मीठा फल पाते ही बालक का विश्वास इस दिशा में उद्दीप्त हो उठा और उसने अपने जीवन में परिश्रम की प्रतिस्थापना कर ली। जिस विद्या-विभूति की एक शिशु किरण ने उसके जीवन में आलोक की खिड़की खोल दी, उसका मध्याह्न कितना प्रकाश पूर्ण होगा, इसका अनुमान लगाने में रामानन्द को अधिक कठिनाई नहीं हुई।
अध्ययन एवं अध्यवसाय में लगे हुए रामानन्द की आत्मा-’विद्या-विद्या-विद्या’ का मंत्र जपती हुई उसे उसी ओर बढ़ाने लगी, जिससे उसकी प्रतिभा उत्तरोत्तर प्रखरतम होती चली गई और वह पाठशाला का एक चमकीला छात्र गिना जाने लगा।
अंग्रेजी की दूसरी कक्षा में एक बार देश के ख्यातिनामा विद्वान श्रीरमेश चन्द्र दत्त ने रामानन्द की प्रतिभा से पुलकित हो कर उसका चमत्कार देखने के लिये बड़े ही जटिल प्रश्नों से उसकी परीक्षा ली। अपने परिश्रमी स्वभाव और निष्ठा-पूर्ण लगन के कारण सदैव सन्नद्ध बालक रामानन्द ने वह चुनौती स्वीकार की और अंग्रेजी में पिच्यानवे प्रतिशत अंक लाकर श्री दत्त को वह सोचने पर विवश कर दिया कि क्या आपने बाल्यकाल में वे कभी किसी परख-परीक्षा में इतने अंक ला सके थे?
सत्रह वर्ष की स्वल्प आयु में रामानन्द ने न केवल प्रवेशिका की परीक्षा ही उत्तीर्ण की, बल्कि सम्पूर्ण विश्व विद्यालय में आवश्यक पुस्तकों तथा अन्य सामग्री का अभाव होते हुए भी चौथा स्थान पाया। रामानन्द की यह सराहनीय सफलता बीस रुपये मासिक की छात्रवृत्ति में फलीभूत हुई, जिससे वे अपने बड़े भाई रामशंकर चट्टोपाध्याय की पीठ पर से अपना सम्पूर्ण भार हटा लेने में कृत-कृत्य हुये और मितव्ययिता के साथ अपने अध्ययन का कार्यक्रम सुविधा पूर्वक चला सकने में आत्म-निर्भर हो गये।
प्रवेशिका की परीक्षा देने से पूर्व ही उनके पिता का देहावसान हो चुका था, जिसके शोक ने रामानन्द का जीवन और भी सजग एवं सचेष्ट बना दिया। रामानन्द सारा काम अपने हाथ से करते थे और अपने पर कम से कम खर्च किया करते थे। वे केवल दस रुपये में अपने भोजन, वस्त्र और पढ़ाई का खर्च चलाते थे। तेल की बचत के लिये वे अपना सारा काम दिन में ही पूर्ण कर लिया करते थे।
छात्र जीवन में भी रामानन्द चट्टोपाध्याय का स्वच्छता एक विशेष गुण था। अत्यधिक अर्थाभाव के बीच भी उनके वस्त्र चाँदी की तरह स्वच्छ तथा चमकदार रहा करते थे। उनके वस्त्रों को देख कर अनेक साथियों को सन्देह हुआ कि इनके पास कई जोड़े कपड़े होंगे। उन्होंने एक दिन अवसर पाकर संदूक खोला तो पता चला कि एक जोड़ा कपड़ों के अतिरिक्त उनके पास कोई दूसरा वस्त्र न था। उनके साथियों ने वस्त्रों का सीमान्त अभाव होने पर भी उनकी इस शुक्ल वस्त्रता का रहस्य पूछा! उन्होंने साथियों को बतलाया कि वे नित्य प्रति अपने वस्त्रों को स्वयं ही धोते हैं और बड़ी परवाह के साथ पहनते हैं। मुझे गन्दगी से घोर घृणा है, इसमें दरिद्रता का निवास रहता है और इसीलिये इससे बचने के लिये मैं नित्य घण्टा, आध घण्टा, वस्त्रों पर परिश्रम किया करता हूँ। गंदगी तथा मलीनता बुद्धिमान से बुद्धिमान व्यक्ति को मन्द बुद्धि बना देती है। गन्दगी से बचना छात्र जीवन की पहली शर्त है।
एफ. ए. पास करने पर उन्हें पच्चीस रुपये मासिक वृत्ति मिलने लगी और कलकत्ता के सिटी कॉलेज से बी. ए. की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण करने पर स्टेट स्कालर-शिप दे कर उन्हें विलायत भेजे जाने के प्रस्ताव होने लगे। किन्तु जब यह प्रस्ताव श्रीरामानन्द चट्टोपाध्याय के सम्मुख आया तो उन्होंने विनम्रता पूर्वक इनकार कर दिया। अनेक हितैषियों ने उनकी इस इनकारी को बुद्धिमत्ता नहीं माना और विलायत चले जाने के लिये दबाव डालने लगे। विलायत हो कर आने पर एक ऊँची सरकारी नौकरी की निश्चित सम्भावना को तिलाँजलि न देने के लिये अनुरोध करने लगे। किन्तु स्वाभिमानी, देश भक्त श्रीरामानन्द ने यह कहकर सब का समाधान कर दिया कि मैं सरकारी छात्र वृत्ति पर विलायत जाने की कृतज्ञत रूप सरकारी दासता नहीं कर सकता। जिस पुनीत विद्या को मैंने बड़ी कठिनाई से प्राप्त किया है, उसे देश में विदेशी शासन की सहायता में लगाकर कलंकित नहीं करना चाहता, इसके द्वारा स्वतन्त्र रूप से मैं स्वयं अपने देश और समाज की सेवा करूंगा।
जहाँ तक ऊँचे ओहदे और घने वेतन का प्रश्न है, उसकी मुझे कोई कामना नहीं है। जन-सेवा को मैं सबसे ऊँचा पद और सन्तोष पूर्ण मितव्ययिता को सबसे बड़ी सम्पन्नता मानता हूँ। अपने अभाव की पराकाष्ठा में जो धन हमें लालायित न कर सका, वह भला अब क्या लालायित कर सकता है, जब संसार की समृद्धियों की मूल विद्या देवी की कृपा प्राप्त कर चुका हूँ।
निदान उन्होंने आई. सी. एस. की सम्भावना को छोड़ कर सिटी कालेज में अवैतनिक शिक्षक के रूप में अपना सेवा कार्य प्रारम्भ किया और इस प्रकार अपने शिक्षा मन्दिर का ऋण चुकाते हुये कायस्थ कॉलेज में एक घण्टा पढ़ा कर, पाये हुए सौ रुपये मासिक में अपना काम चलाने लगे, अनन्तर शिक्षा क्षेत्र से वे पत्रकारिता के क्षेत्र में उतर आये। विद्यालयों में निर्धारित पाठ्यक्रम के अतिरिक्त वे विद्यार्थियों को अपनी ओजस्वी विचार धारा में दीक्षित न कर सकते थे। अपने विचार जन-जन तक पहुँचाने और स्वतन्त्र रूप से उनकी सेवा कर सकने के लिये वे अध्यापन के सीमित क्षेत्र से निकल पत्रकारिता के व्यापक विस्तृत एवं विचार-प्रधान क्षेत्र में आ गये।
सबसे पहले उन्होंने अमर चन्द्र वसु द्वारा प्रकाशित ‘ब्राह्म-बन्धु’ नामक मासिक पत्रिका का कार्य अपने हाथ में लिया। अनन्तर “ब्राह्मो पब्लिक ओपीनियन” “इण्डियन मेसेनजर” तथा “तत्व कौमुदी” नामक पत्रों का सम्पादन संभाला। ‘शिशु पाठ’, ‘इण्डिपेन्डेन्ट’, ‘मॉर्डन रिव्यू’ आदि पत्रिकाओं का भार उन्हें अनुरोध पूर्वक सौंपा गया।
जहाँ तक इन पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादन का सम्बन्ध है, उसके विषय में केवल यही कहा जा सकता है कि जिस पत्र-पत्रिका को श्रीरामानन्द चट्टोपाध्याय का संपर्क प्राप्त हुआ, वे अपने समय की क्राँतिकारी पत्रिकायें बन गई। पत्र पत्रिकाओं के माध्यम से जिस समय श्री चट्टोपाध्याय के विचार प्रकाश में आये तो क्या देश और क्या विदेश के बड़े-बड़े विद्वानों का ध्यान उनकी ओर आकर्षित हो उठा।
स्वाभिमानी चट्टोपाध्याय ने अपने विचार स्वातंत्र्य के लिये अपने को किसी भी स्थिति में बेचा नहीं। जिस समय वे ‘लीग आफ नेशन्स’ के कार्य निरीक्षक बन कर जर्मनी, फ्रांस, इंग्लैंड, चैकोस्लोविया, आस्ट्रेलिया और इटली आदि देशों के दौरे पर गये, उस समय उन्होंने ‘लीग आफ नेशन्स’ से अपना भ्रमण व्यय नहीं लिया। जहाँ उनके इस त्याग में निःस्वार्थ सेवा का भाव था, वहाँ यह विचार भी था कि यदि वे ‘लीग आफ नेशन्स’ से अपना व्यय ले लेंगे तो एक प्रकार से उसके वेतन भोगी बन जायेंगे और तब ऐसी दशा में उसकी निष्पक्ष आलोचना न कर सकेंगे।
विश्व-ख्याति और विश्व-प्रतिष्ठा के व्यक्ति होने पर भी श्रीरामानन्द चट्टोपाध्याय बड़े ही सरल एवं निरहंकारी पुरुष थे। श्रीक्षीरोद चन्द्र पाल, शरच्चनन्द्र राय तथा उनकी पत्नियों एवं सम्भ्राँत व्यक्तियों ने मिलकर पथभ्रान्त तथा रोगी व्यक्तियों की सेवा-शुश्रूषा करने के लिये एक आश्रम की स्थापना की। इस आश्रम का नाम “दासाश्रम” रक्खा गया। इस आश्रम के संस्थापक सभी कुलीन ब्राह्मण वंश के थे। अतएव उन पथ हीनों, नीचों तथा रोगियों की सेवा करने में सबको संकोच हो रहा था।
निरहंकार चेतन तथा सच्चे भावी श्रीरामानन्द चट्टोपाध्याय ने उस समस्या का समाधान बड़ी सरलता से कर दिया। उन्होंने कहा-ब्राह्मणत्व अथवा क्षत्रियत्व का तो अधिकारी मैं नहीं हूँ। मैं तो अपने को एक सेवक एक शूद्र समझता हूँ। अतएव आश्रम का सेवा कार्य मुझको सौंपा जाना चाहिये। श्रीरामानन्द चट्टोपाध्याय स्वयं भी एक कुलीन ब्राह्मण थे, किन्तु अन्यों की तरह वे संकुचित तथा संकीर्ण भावना वाले व्यक्ति नहीं थे। उन्होंने ज्ञान के प्रकाश में सेवा के महत्व को समझा और ऊँच-नीच, ब्राह्मण, शूद्र आदि की रूढ़ि-भावना की अपेक्षा विवेक को अधिक महत्व दिया।
आत्म-विश्वास, परिश्रम एवं पुरुषार्थ के बल पर आत्म-निर्माता श्रीरामानन्द चट्टोपाध्याय एक साथ विद्वान, सेवक, अध्यापक, नेता और पत्रकार आदि सभी कुछ थे।
इनका जन्म बंगाल प्रान्त में बाँकुड़ा की पाइक पल्ली में सन 1865 की 16 ज्येष्ठ तिथि को हुआ था।