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Magazine - Year 1965 - Version 2

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Language: HINDI
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देशबन्धु चितरंजनदास

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देशबन्धु चितरंजनदास का जन्म कलकत्ता के एक धन एवं सम्मान सम्पन्न परिवार में हुआ था। घर में अतुल धनराशि भरी पड़ी थी। किन्तु कर्मप्रिय चितरंजन दास ने उस पारिवारिक वैभव पर आनन्दपूर्वक जीवनयापन करना पुरुषार्थ का अपमान समझा। वे घर से केवल उतना पैसा ही लेते थे, जितना कि पढ़ाई के लिये अनिवार्य होता था। पैतृक सम्पत्ति पर अपना अधिकार समझकर उसे खाने-उड़ाने में उन्हें कोई औचित्य न दीखता था। उनका कहना था कि जो केवल अपनी पैतृक सम्पत्ति पर जीता है और उसके सम्मान का उपभोग करता है, वह वास्तव में पुरुष कहलाने योग्य नहीं है। अपने परिश्रम से कमाना और अपनी समाज-सेवाओं से सम्मानित होना ही सच्ची मनुष्यता है। उत्तराधिकार में पाया हुआ कोई भी यश वैभव श्रेयस्कर नहीं कहा जा सकता।

अपने इस महान विश्वास को कार्यान्वित करने के लिये उन्होंने अपने में सुयोग्य क्षमताओं को विकसित करने के लिये खूब जी लगाकर पढ़ना प्रारम्भ किया।

देशबन्धु चितरंजनदास ने आठ वर्ष की आयु में पढ़ना प्रारम्भ किया और पन्द्रह साल की आयु में मैट्रिक की परीक्षा पास की। अनन्तर उच्च शिक्षा के लिये उन्होंने प्रेसीडेन्सी कॉलेज में प्रवेश लिया।

कॉलेज जीवन में चितरंजनदास ने जो महत्वपूर्ण दो कार्य किये, वे थे अन्डर ग्रेजुएट एसोसिएशन तथा स्टूडेंट एसोसिएशन नामक दो संस्थाओं की स्थापना। इन दोनों संस्थाओं का उद्देश्य था, नवयुवक छात्रों का अनुशासनपूर्ण संगठन तथा मातृ भाषा बंगला को कॉलेज के विषयों का माध्यम बनवाना।

यद्यपि इन दोनों संस्थाओं की स्थापना में चितरंजन दास को बड़े विकट विरोध का सामना करना पड़ा था, किन्तु लगन के पक्के उन्होंने सामाजिक हित के उन दोनों कार्यों को विरोध की परवाह किये बिना सम्पादित किया। उनके इन कार्यों के विरोधियों में कलकत्ता विश्व विद्यालय के वाइस चाँसलर डॉ. सर गुरुदास बैनर्जी तक थे। फिर भी सत्य की विजय हुई। बंगला इन्ट्रेन्स तक ही नहीं, बल्कि एफ. ए. तक शिक्षा की माध्यम स्वीकार कर ली गई।

अपने इन महान कार्यों से देशबन्धु चितरंजनदास न केवल कॉलेज ही में अपितु जनता के बीच भी लोकप्रिय हो गये। स्कूल और कॉलेजों के विद्यार्थियों के वे एक प्रकार से सर्वमान्य नेता ही बन गये। श्री चितरंजन दास के स्थान पर यदि कोई स्वार्थी व्यक्ति होता तो अपनी लोक-प्रियता का लाभ उठाकर अनेक स्वार्थ सिद्ध करता और अपने इस प्रभाव को समर्पित कर विश्व-विद्यालय के अधिकारियों की कृपा प्राप्त कर सकता था। किन्तु उन्होंने लोक-सेवा की निःस्वार्थ भावना की महानता के समक्ष विश्व-विद्यालय के अधिकारियों की लाभकारी कृपा को तुच्छ समझा। जिनका हृदय निर्मल है, जिन्होंने अपने चरित्र का निर्माण उच्च स्तर पर किया है, जिनने अपने निजी स्वार्थ को जनहित के परमार्थ में विलय कर दिया है और जिन्होंने निःस्वार्थ सेवा के सुख को अनुभव कर लिया है, उन्हें संसार का कोई प्रलोभन पुण्य-पथ से विचलित नहीं कर सकता।

इसके पूर्व कि देशबन्धु चितरंजनदास अपनी शिक्षा-दीक्षा पूर्ण करके किसी उपार्जन आयोजन में संलग्न होते कतिपय संयोगों तथा परिस्थितियों के उत्थान-पतन से उनके पिता लगभग चालीस हजार रुपये के ऋण से दब गये और बहुत कुछ प्रयत्न करने पर भी जब वे उससे किसी प्रकार उऋण न हो सके तो उन्होंने निराश होकर अपने को दिवालिया घोषित कर दिया। देशबन्धु चितरंजनदास के परिवार की प्रतिष्ठा पर यह एक गहरा आघात था। किन्तु उन्होंने इस विषम एवं अपमानजनक परिस्थिति में विचलित अथवा व्यग्र होने के बजाय अपने परिवार की प्रतिष्ठा के पुनरावर्तन का संकल्प किया और सौगुने उत्साह से अपने कार्यों में जुट गये।

वे बी. ए. पास कर चुके थे। उनकी इच्छा थी कि वे भारतीय सिविल सर्विस की परीक्षा के लिये लन्दन जा सकें। घर की परिस्थिति दिन-दिन गिरती जा रही थी इसलिये उन्होंने एक मात्र अपने मस्तिष्क तथा पुरुषार्थ का सहारा लिया और विभिन्न प्रतियोगिताओं में अपनी प्रतिभा का ऐसा चमत्कारी परिचय दिया कि वे सरकार की ओर से भारतीय सिविल सर्विस की परीक्षा के लिये लन्दन भेज दिये गये। किन्तु अपनी ज्वलन्त देश भक्ति और स्वतन्त्र विचार धारा के कारण उसमें कृतकृत्य न हो सके। इसका कारण उनकी कोई अयोग्यता अथवा अदक्षता न थी। सिविल-सर्विस परीक्षा में उनकी असफलता का कारण अंग्रेज सरकार का भय था, जो कि चितरंजनदास के उस विरोध से उत्पन्न हुआ था, जिसकी कि अभिव्यक्ति उन्होंने उस समय की थी, जब लन्दन पार्लियामेंट में जेम्स मेक्लिन नामक एक सदस्य ने वक्तव्य देते हुये यह कहा था कि अंग्रेजों ने भारत को तलवार की ताकत से जीता है और तलवार के बल पर ही उस पर शासन किया जा सकता है।

भला एक सच्चा देशभक्त एक ऊँची सरकारी नौकरी के लोभ में देश के प्रति ऐसे अपमानजनक शब्द कैसे सुन सकता था? देशबन्धु चितरंजनदास ने उक्त वक्तव्य का इतनी तीव्र एवं उपयुक्त भाषा में विरोध किया कि उक्त सदस्य को अपने कथन पर लज्जित होना पड़ा।

देशबंधु चितरंजनदास की इन महान राष्ट्रीय भावनाओं से उत्पन्न अँग्रेजों के भय को उनके उस प्रभाव ने और भी बढ़ा दिया, जो उन्होंने पार्लियामेन्ट की सदस्यता के लिये भारतीय प्रत्याशी दादा भाई नौरोजी के पक्ष में प्रयोग किया था और बड़े-बड़े दिग्गज अंग्रेज नेताओं के विरोध के बावजूद भी उन्हें सफल कराया था। अंग्रेज सरकार ने भारतीयों के लिये सिविल सर्विस का सम्मोहन इसलिये फैलाया था कि उसके लोभ, मोह में फँसकर भार की प्रखर प्रतिभाएं उन्हें देश के शोषण में सहयोग दें, न कि इसलिये कि उक्त पदों पर पहुँच कर देशभक्त भारत में अंग्रेजी शासन के नाम पर भारतीय राज्य की स्थापना कर दें। निदान सिविल सर्विस की परीक्षा में उन्हें षडयंत्रपूर्वक असफल कर दिया गया।

देश के सम्मानपूर्ण गौरव पर सिविल सर्विस के सुन्दर स्वप्न प्रसन्नतापूर्वक न्यौछावर कर उन्नतात्मा चितरंजन दास ने उसी वर्ष बैरिस्टरी की परीक्षा पास की और स्वदेश लौट आये, और कलकत्ता हाई कोई में अपनी प्रैक्टिस प्रारम्भ की दी।

इसी बीच अपने भाई बसन्तरंजनदास के अपने चाचा काली मोहनदास के यहाँ गोद चले जाने और उनके उत्तराधिकारी के रूप में पाई अतुल सम्पत्ति को अपनी माता को सौंप कर स्वर्ग सिधार जाने से श्री चितरंजनदास को पैसे की सुविधा हो गई। किन्तु उन्हें इस शोक-सम्पत्ति से कोई प्रसन्नता नहीं हुई और न उसे वे अपने व्यक्तिगत उपयोग में ही लाए।

एक लम्बे समय से आर्थिक असुविधा रहने तथा बैरिस्टरी छेड़ देने पर भी चितरंजनदास ने अनायास पाये हुये धन को अपने निजी खर्च में नहीं लिया। एक तो उस धन के साथ भाई की शोकपूर्ण स्मृति जुड़ी हुई थी, दूसरे वह उनके अपने निजी परिश्रम का नहीं था। भाई के मूल्य पर पाये पैसे पर आराम करने की अपेक्षा उन्होंने आर्थिक कठिनाइयों के बीच जीवन-यापन करना अधिक पसन्द किया। फिर पिता का कर्ज जिसके कारण उनको दिवालिया होना पड़ा था, उनके हृदय में एक दर्द बनकर कसक रहा था। अपने स्वर्गीय पिता के नाम पर लगे उस कलंक को वे हर मूल्य पर परिमार्जित कर देना चाहते थे। निदान भाई के उत्तराधिकार का वह पैसा जो उन्हें माता द्वारा मिला था, स्वर्गीय पिता का कर्ज चुकाने में खर्च कर दिया।

जहाँ लोग नियमानुसार लिये हुये अपने कर्ज को चुकाने में तत्परता नहीं बर्तते, नीयत खराब कर लेने पर मुकर जाने और अदालत की नौबत ले आने की मूर्खतायें करते हुये अपनी अमानवीय कृतघ्नता का परिचय देते हैं। विविध प्रकार की असम्मानपूर्ण परिस्थितियों के बीच भी पैसा होते हुये भी कर्ज न देने की कोशिश करते हैं, वहाँ श्री चितरंजनदास ने पिता के उस ऋण को चिन्ता करके चुका दिया, जिससे मुक्त होने के लिये मजबूर होकर उन्हें दिवालिया बनना पड़ा था और जिसको चुकता करने के लिये चितरंजनदास पर कोई कानूनी बंदिश नहीं थी।

बैरिस्टरी से विरत होकर श्री चितरंजनदास ने अपने अनुभवों, विचारों, सामाजिक परिस्थितियों, समस्याओं तथा उनके समाधानों का प्रसार करने के लिये साहित्य सृजन प्रारम्भ किया। ‘मालञ्च’ नाम की उनकी जो प्रथम काव्य पुस्तक प्रकाशित हुई, उसकी सुधारपूर्ण भावनाओं ओर तीव्र अभिव्यक्तियों ने रूढ़िवादी ब्रह्म-समाज के विरुद्ध एक हलचल खड़ी कर दी, जिससे पुरातन पंथियों ने एक बड़े संगठन के रूप में उनका विरोध प्रारम्भ कर दिया, जिससे शंकाओं का समाधान तथा अपनी विचार धारा प्रतिपादन करने में उनका बहुत-सा अमूल्य समय नष्ट होने लगा, अतएव समय की तुलना में काव्य का उपयोग कम देखकर उन्होंने उसका प्रणयन बन्द कर दिया।

देशबंधु चितरंजनदास के चरित्र की यह बहुत बड़ी विशेषता थी कि कदम-कदम पर असफलता तथा निराशा के कारण उपस्थित होने पर भी वे हतोत्साह नहीं होते थे और एक के बाद, समाज सेवा का दूसरा मार्ग निकाल लेते थे।

बंगाल के नौजवानों की उठती राष्ट्रीय भावनाओं को दबाने के लिये अंग्रेज सरकार ने बंग-भंग की योजना बनाई और देशबंधु चितरंजनदास ने अधिकाधिक एकता का शंखनाद किया। उनके आह्वान पर बंगाल ही नहीं सम्पूर्ण भारत के राजनीतिक नेता तथा नौजवान संगठित होकर सरकार की उस विनाशकारी नीति का विरोध करने लगे। श्री चितरंजनदास ने जन-जागरण के लिये “वन्दे मातरम्” ‘संध्या’ तथा ‘युगान्तर’ नाम के तीन राष्ट्रीय पत्रों की स्थापना की, जिनके प्रकाशन ने देश में एक नवीन क्रान्ति का सूत्रपात कर दिया। सरकार के पाशविक दमन के बावजूद भी जब बंग-भंग का विरोध दबाया न जा सका तो सरकार को अपनी नीति बदलनी पड़ी और तात्कालिक वायसराय लार्ड कर्जन को त्यागपत्र देना पड़ा। उनके स्थान पर आये लार्ड मिन्टो ने चितरंजनदास द्वारा स्थापित पत्रों को आपत्तिजनक कहकर मुकदमा चलाया, जिसमें उन्होंने इस कुशलता से पैरवी की कि राजनीतिक क्षेत्र में उनकी धाक जम गई।

श्री चितरंजनदास के सुयोग्य नेतृत्व, परिश्रम, पुरुषार्थ तथा दूरदर्शिता का बल पाकर स्वराज्य दल को विकसित होते देर न लगी। और शीघ्र ही वह दिन आया कि कलकत्ता कौंसिल के चुनाव में चालीस स्थान जीत कर उसने लोकप्रियता के ज्वलन्त प्रमाण के साथ अपना बहुमत स्थापित किया। तात्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड लिटन ने उन्हें अपना मन्त्रिमंडल गठित करने के लिये आमंत्रित किया। किन्तु उसके लिये वे तैयार न हुये। वे कौंसिल में रहकर नौकरशाही को नीचा दिखाना चाहते थे, न कि मन्त्रिमंडल के रूप में उससे सहयोग करना। उद्देश्य के लिए, चितरंजनदास के इस त्याग ने जनता जनार्दन के बीच उनके लिए एक महान सम्मान का उपार्जन किया।

कलकत्ता नगर की गिरती हुई दशा तथा उसकी दुरावस्था देखकर जन सेवा के लिये उनका ध्यान कलकत्ता कार्पोरेशन की ओर गया और 1924 के चुनाव में पचहत्तर सीटों में से पचपन सीटें जीतकर कार्पोरेशन के मेयर बने। कार्पोरेशन के मेयर पद से श्री चितरंजनदास ने नगर की जो सेवा की, उसका अनुमान इससे ही लगाया जा सकता है कि उसके बाद से उनमें सदा ही इन्हीं की विचारधारा वाले राष्ट्रीय दल का बहुमत रहा। शिक्षा, सफाई तथा स्वास्थ्य की व्यवस्था में उन्होंने जनता के हित में रात-दिन एक करके कलकत्ते का कायाकल्प ही कर दिया।

समाज के सुधार, राष्ट्र की स्वाधीनता तथा विदेशी राज्य के अत्याचारों को मिटाने के लिये 20 वर्ष तक अनवरत रूप से कार्य रत रहने वाले देशबन्धु चितरंजनदास का स्वास्थ्य पचपन वर्ष की अवस्था में ही गिर गया और फिर बहुत कुछ उपचार करने पर भी वे खुले संघर्ष के लिये अपने को मैदान में लाने लायक न बना सके। निदान मृत्यु से पूर्व अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति का एक ट्रस्ट बनाकर उसे समाज को दान कर दिया और महिलाओं के लिये डाक्टरी की उच्च शिक्षा तथा एक विशाल चिकित्सालय का प्रबन्ध करके 14 जून 1925 को संसार से विदा हो गये।

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