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Magazine - Year 1965 - Version 2

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सच्ची उपासना का स्वरूप

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उपासना में आनन्द कब नहीं आता? जब कोई मनुष्य उसे सामान्य जीवन क्रम से भिन्न एक विशेष कर्तव्य समझ-कर करता है। ऐसा भाव रहने से कुछ समय बाद उपासना उसे एक अनावश्यक बेगार-सी अनुभव होने लगती है, जिससे वह आनन्द अनुभव करने के स्थान पर थकान अनुभव करने लगता है और कुछ ही समय में उसे छोड़-छाड़ कर बैठ रहता है।

मनुष्य का सहज स्वभाव है कि जो कार्य उसके जीवन-क्रम में रमे नहीं होते अथवा जिनका वह अभ्यस्त नहीं होता, उनके करने में वह खिन्नता ही अनुभव करता है। यहाँ तक कि रोजमर्रा के बँधे टके कामों में भी यदि कोई काम आकस्मिक आवश्यकता वश बढ़ जाता है तो वह उसे करता भले ही है, किन्तु एक बेगार, एक बोझ की तरह।

यही नियम उपासना के विषय में भी लागू रहता है। अतएव उपासना जीवन-क्रम से भिन्न किसी विशेष कर्तव्य की भाँति नहीं, जीवन-क्रम से भिन्न किसी विशेष कर्तव्य की भाँति नहीं, जीवन-क्रम के एक अभिन्न अंश की भाँति करना चाहिये। उपासना जब जीवन का एक आवश्यक अंग बन जाती है तब उसकी पूर्ति करने में वैसी ही तृप्ति होती है, जैसी अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति में। जीवन का अंग बना उपासना को जब तक पूरा नहीं कर लिया जाता, तब तक हृदय में उसी प्रकार की छटपटाहट रहती है, जैसे किसी प्रियतम से मिलने की इच्छा में। उपासना मनुष्य जीवन का एक अभिन्न अंग है। उसे इसी रूप में ग्रहण करना चाहिए। उपासना को किसी विशेष कर्तव्य के रूप में ग्रहण करने से भिन्नता का भाव रहता है। पूरे समय यह विचार घेरे रहता है कि मैं कोई विशेष काम अंजाम दे रहा हूँ, जिसके कारण उसमें एकाग्रता प्राप्त नहीं हो पाती, जिसके अभाव में उसमें अपेक्षित आनन्द की उपलब्धि नहीं होती! स्वाभाविक है कि जिस कार्य में अरुचि पूर्ण निरानन्दता रहती है वह देर तक नहीं चल पाता, और यदि खींच-तान कर चलाया भी गया तो उसमें किसी बड़े फल की अपेक्षा नहीं की जा सकती।

उपासना में तब भी कोई आनन्द नहीं आता जब वह किसी लाभ अथवा लोभ के लिये की जाती है। किसी स्वार्थ के वशीभूत होकर जब उपासना की जाती है तब उपासक का ध्यान इष्ट के प्रति लगा रहने के स्थान पर अभीष्ट के प्रति लगा रहता है। जिससे भावनाओं का वेग इष्ट की ओर उन्मुख रहने के बजाय लोभ की ओर गतिवान रहता है। इससे इष्ट की समीपता प्राप्त होने के बजाय लोभ को बल मिलता है, जिससे वह उत्तरोत्तर दुर्निवार होता जाता है और कल्याणवती उपासना प्रतिकूल दिशा में फलीभूत होने लगती है। मनुष्य लोभ, लाभ, स्वार्थ एवं कामनाओं का भंडार बन कर स्वयं अपने लिये भयंकर बन जाता है।

इस प्रकार के संभ्रमित उपासक अपनी सकामता के कारण जब दुखद दुरितों से शिकार बन जाते हैं, तब उपासना अथवा इष्ट को दोष देकर यह धारणा बना लेते हैं कि अधिक पूजा, पाठ करने वाला दुःख, दरिद्रता और दीनता का भागी बनता जाता है। इस प्रकार की धारणा भयंकर भूल है।

जो उपासक दीन, दुखी, दरिद्री अथवा दयनीय दिखाई दे, उसके विषय में निःसंकोच समझ लेना चाहिये कि इसकी उपासना में लोभ क्रियाशील है। इसकी वंचक उपासना ने ही इसको इस दशा में भेजा है। अन्यथा उपासना का फल है-तेजस्विता, ओजस्विता, सबलता, सम्पन्नता आदि दिव्य गुण।

इसके अतिरिक्त सकाम उपासक की उपासना निःसार होकर बहुत समय तक नहीं चल पाती। वह दिन प्रति दिन साधना को कामनाओं की कसौटी पर कसता रहता है और जब उसकी कामनायें फलीभूत होती नहीं दीखतीं तो वह धीरे-धीरे उपासना से ऊबने लगता है और शीघ्र ही निरर्थक कार्य समझ कर उससे विरत हो जाता है। कामनाओं के कारण उपासना से विरत हुआ उपासक मृत्यु से भयभीत और जीवन से निराश कायर की तरह त्रासपूर्ण जिन्दगी बिताता है।

उस उपासना की भी निरन्तरता निरापद नहीं है, जो एक विस्तृत कर्मकाण्ड और आडम्बर पर आधारित होती है। एक तो इस प्रकार की उपासना के लिये एक लम्बे समय की आवश्यकता है, जिसका मनुष्य के व्यस्त जीवन में प्रायः अभाव ही रहता है। दूसरे, बहुत प्रकार के उपकारण एवं उपादान एकत्र करने में काफी धन की आवश्यकता है। आज के महार्घ जीवन में जीवन की सीमान्त आवश्यकतायें ही जुटाना कठिन हो रहा है, तब महंगी उपासना को मनुष्य कब तक चला सकता है? ऐसी उपासना सम्पन्न करने के लिए एक सामान्य स्थिति के व्यक्ति को अपने पारिवारिक व्यय में कुछ कोताही करनी पड़ेगी, जिससे उसको तथा उसके परिवार को प्रत्यक्ष में न सही, परोक्ष में तो कुछ न कुछ तकलीफ होगी ही। उपासना के लिये खर्च जुटाने में उसे अपना ध्यान घर के बजट में कतरव्योंत करने में लगाना पड़ेगा। इस प्रकार उक्त महंगी उपासना एक आर्थिक योजना बनकर रह जायेगी, जिससे आत्मिक शान्ति के स्थान पर मानसिक उद्विग्नता बढ़ सकती है और ऐसी स्थिति में उपासना का दीर्घकाल तक चल सकना संदिग्ध होगा।

उपासना के लिये अधिक आडम्बर भी ठीक नहीं। असामान्य रूप में रहने वाला उपासक समाज में अन्यथा दृष्टिकोण से देखा जाता है। कोई उसे कुतूहल की दृष्टि से, कोई आदर की दृष्टि से, तो कोई उपहास की दृष्टि से देखता है। इससे उपासक की मानसिक स्थिति जब तक अपेक्षित कोटि में न पहुँचे जाये, उस पर उसके मानसिक भावों पर वाँछित प्रभाव नहीं पड़ता। समाज में साँकेतिक स्थल बन कर कभी वह हर्ष और कभी अमर्ष के वशीभूत होकर आँदोलित होता रहता है, जो कि उसकी साधना के लिये हितकर नहीं होता।

इसके अतिरिक्त आडम्बरित साधक स्वयं भी समाज में अपने को एक विशिष्ट व्यक्ति अनुभव करता है, अपने को जन-साधारण से कुछ ऊँचा, कुछ अधिक पवित्र समझता है। कभी-कभी आडम्बर की अपेक्षा उसे अपने इस भाव की अभिव्यक्ति भी करनी होती है। अपने को विशिष्ट अथवा कुछ ऊँचा अनुभव करने के कारण उसमें अहंकार की वृद्धि हो जाती है, जो उपासना के अमृत में विष का काम करता है।

अन्दर से असामान्य होने पर भी बाहर से सहज सामान्य रहना ही उपासक के लिये अधिक हितकर है। अपने स्वभाव एवं संस्कारों के कारण जन-साधारण आडम्बर की ओर अधिक ध्यान देने लगता है।

समय एवं साधना का असंयम भी ऐसा कारण है, जो उपासक में वाँछित गम्भीरता नहीं आने देता, मन और मस्तिष्क पर वे अपेक्षित संस्कार नहीं पड़ने देता, जिनके बल पर उपासना में निरन्तरता आती है और उपासक अध्यात्म लाभ की ओर अग्रसर होता है। कभी किसी समय उपासना करना उसी प्रकार की धार्मिक अथवा अध्यात्मिक अनियमितता है, जिस प्रकार आहार-बिहार की। इस प्रकार की अनियमित उपासना व्यक्ति को विशुद्ध आध्यात्मिक न बना कर आध्यात्मिक रोगी बना देती है, जिससे किसी सुख शान्ति की आशा करना असामान्य कल्पना मात्र ही होगी।

उपासना में इष्ट की अदला-बदली का अर्थ है कि आप उसकी गरिमा को कोई महत्व न देते हुये दैवी शक्तियों के साथ खिलौनों की तरह खेलते हैं। उनका महत्व आपकी रुचि पर निर्भर है। साथ ही इष्ट की अदला-बदली से यह भाव भी प्रकट होता है कि आप किसी एक दैवी विभूति को किसी दूसरी से कम या ज्यादा समझते हैं। उपासना के क्षेत्र में विषमता का यह भाव सबसे अधिक घातक है। इस प्रकार की चेष्टा से मानसिक चाँचल्य की वृद्धि होती है, जिसके कारण न उपासना में मन स्थिर हो पाता है और न उसका कोई फल होता है।

निष्काम भाव से किसी भी एक इष्ट में सर्वेश्वर की सत्ता का विश्वास रख कर एक विधि, एक मन से जीवन का अभिन्न अंग समझकर संयम एवं सामान्यता पूर्वक नियमित उपासना करना ही वास्तव में उपासना है, जो जीवन-भर चलती भी और फलवती भी होती है।

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