Magazine - Year 1965 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
आत्मविकास के लिए लोक सेवा आवश्यक
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
आत्म विस्तार ही अध्यात्म का मुख्य उद्देश्य है। अध्यात्म साधन के अंतर्गत जो भी जप-तप साधना और संयम किए जाते हैं, वे सब आत्म विस्तार के लिए ही किये जाते हैं। साधारणतः लोग इस जप तप तथा संयम नियम को ही अध्यात्म का सच्चा स्वरूप समझ लेते हैं। जप-तप पूजा पाठ करने पर वे अपने को अध्यात्मिक व्यक्ति समझ लेते हैं। जब कि ये सारी क्रियायें आध्यात्मिक प्रगति करने के लिये एक आँशिक प्रयत्न मात्र हैं।
आवश्यक क्रियाओं द्वारा जब मनुष्य मनो-निग्रह कर के वाँछित गुणों की उपलब्धि कर लेता है, तब वास्तव में यह आध्यात्मिक होता है। आध्यात्मिकता क्रिया नहीं परिणाम है। बुरी से बुरी बात सुन कर क्रोध न आना, बड़े से बड़े प्रलोभन से लोभ न होना, आपत्तियों से घिर जाने पर भयभीत न होना, असफल होने पर निराश न होना और वियोग में अधीर न होना आदि स्थितियाँ ही आध्यात्मिकता है। जब पुण्य का स्वभाव स्थिर और मन प्रतिक्रिया रहित हो जाता है, तब वह आध्यात्मिक माना जाता है।
हृदय में कसक रख कर किसी के कटु वचन सह लेना, आन्तरिक दुःख को रोक कर कोई त्याग करना, चाहते हुये भी किसी प्रलोभन की उपेक्षा कर देना अथवा हठ पूर्वक आकर्षण से बचे रहना आध्यात्मिक नहीं है। यह आध्यात्मिक स्थिति प्राप्त करने का अभ्यास मात्र है।
प्रशंसा अथवा निन्दा से कोई प्रतिक्रिया न होना, सुन्दरता असुन्दरता के प्रति आकर्षण विकर्षण न होना, लाभ हानि से विचलित न होना, आदि का जो स्वभाव है, वह ही आध्यात्मिकता के लक्षण हैं। स्वादहीन भोजन करना अस्वाद वृत्ति नहीं है, बल्कि दोनों प्रकार के भोजन में समान रुचि ही अस्वादता है, जो कि आध्यात्मिकता का एक लक्षण है। जिसका मन शाँत है, बुद्धि स्थिर है, चित्त प्रतिक्रिया रहित और दृष्टिकोण अविषम है, वास्तव में आध्यात्मिक वही है। बाकी अन्य या तो धार्मिक है अथवा साधक।
आध्यात्मिकता मानव आत्मा की एक उन्नत, उत्कृष्ट एवं उत्तम स्थिति है। इस स्थिति को प्राप्त व्यक्ति निर्द्वन्द्व, निर्विघ्न, निर्भय एवं निर्मोह हो कर एक स्वर्गीय जीवन यापन करता है। उसे न कभी रोष होता है और न क्षोभ। निरन्तर निर्विकार एवं निर्विरोध आनन्द का अनुभव करता हुआ वह चिर प्रसन्न रहता है।
एक स्थायी एवं निरपेक्ष सुख−शांति पूर्ण आध्यात्मिक स्थिति प्राप्त करना ही मानव जीवन का धर्म है, ध्येय है। इस प्रकार का निरपेक्ष भाव एवं प्रतिक्रिया शून्य मनः स्थिति आत्मविस्तार से ही प्राप्त होती है।
आत्मविस्तार इच्छाओं एवं आवश्यकताओं को बढ़ा देने वाली प्रक्रिया नहीं है और न आत्मा कोई ऐसा पदार्थ, वस्तु है, जिसको यों ही किसी क्रिया अथवा कौशल से बढ़ाया जा सकता है। आत्मविस्तार की ओर पहला कदम है -आत्म विकास। जिसका अर्थ है, अपने को शरीर न समझ कर आत्मा समझना।
जब मनुष्य अपने को आत्म रूप समझने लगता है, तब उसका दृष्टिकोण विस्तृत होता है, जिससे अहंभाव, परभाव मिटने लगता है और आत्मीय भाव बढ़ने लगता है। आत्मीयता के विकास से मनुष्य को संसार में दुख-सुख ही अपना नहीं अपना स्वरूप दीखने लगता है। कवि, दार्शनिक एवं चिन्तक आदि कभी-कभी इस आत्मीयता की स्थिति में पहुँच तो जाते हैं, किन्तु इससे वे पूर्ण आध्यात्मिक नहीं हो जाते। यह आत्मीयता, उनकी तन्मयता, तल्लीनता तथा विभोरता का क्षणिक फल होता है। जिस समय वे अपनी विचारधारा पर आसीन हो कर अनन्त की ओर अभियान करते हैं, उस समय अपने को भूल कर समस्त सृष्टि के साथ एक रूप हो जाते हैं। किन्तु ज्यों ही उनकी विचार धारा का वेग कम होता हैं, कल्पना का ज्वार उतरता है, वे पुनः एक साधारण प्राणी मात्र बन जाते हैं, दुख सुख एवं हर्ष विमर्ष की प्रतिक्रियायें उन्हें प्रभावित करने लगती हैं। इतना होने पर भी अपनी इस क्षणिक आत्मीयता के कारण ही कवि, दार्शनिक एवं चिन्तक जन साधारण से कुछ ऊपर उठे हुये व्यक्ति माने जाते हैं और निःसन्देह उनकी मनःस्थिति कुछ अधिक सुखपूर्ण होती भी है। जिस क्षणिक आत्मीयता का इतना महत्व और आनन्द है, यदि वह स्थाई रूप और सच्चे स्वरूप में प्राप्त हो जाये तो मनुष्य क्या से क्या हो सकता है?
आत्म विकास के लिये ईर्ष्या, द्वेष, लोभ, मोह अहंकार व मत्सर आदि का त्याग पहली आवश्यकता है। इन विकारों को एक स्थान पर बैठ कर जप, तप, पूजा, पाठ आदि कर के दूर नहीं किया जा सकता। इस प्रकार एक स्थान पर इन विकारों को जीतने का प्रयत्न करने से इन से एक भयानक मानसिक द्वन्द्व प्रारम्भ हो जाता है और मनुष्य की बहुत सी शक्तियाँ, क्षमताएं तथा समय इसी संघर्ष से निपटते-निपटते व्यय हो जाती हैं। कुछ समय में ही मनुष्य थक जाता है और साधना उसे बोझ मालूम होने लगती है।
इन विकारों को विजय करने का सबसे सरल तथा सही उपाय यही है कि मनुष्य समाज में अपने को मिला दे। जन सेवा का भाव लेकर क्षेत्र में उतर पड़े। समाज में घुस कर रहने से उसमें सक्रिय व्यवहार अपनाने से हानि लाभ, दुख सुख हर्ष शोक क्रोध आदि के हजारों कारण आयेंगे। लाखों प्रतिकूल परिस्थितियों से हो कर जाना पड़ेगा। प्रतिक्रियाओं की परिस्थितियों के अवसर पर अपने विकारों का संयम करने से एक स्वस्थ एवं सफल अभ्यास प्राप्त होगा। एकान्त में बैठ कर मानसिक द्वन्द्वों द्वारा विकारों के जीतने के प्रयास में मनुष्य मन ही मन हारता और जीतता रहता है, जिससे कोई विशेष लाभ नहीं होता, स्थिति वही रहती है। समाज के भीतर क्रोध के कारण आने पर यदि आपने उसको सहन कर लिया तो उससे आपकी आत्मा में जो शीतलता अनुभव होगी, वह आगे क्रोध को जीतने के लिये रुचि उत्पन्न करेगी और उत्साहित करेगी। किसी बात का व्यवहारिक अनुभव उसके बौद्धिक अनुभव से कई गुना सशक्त, स्थायी एवं उपयोगी होता है, विकारों की स्थिति में ही विकारों से युद्ध करने पर उनको क्रमशः शीघ्र ही परास्त किया जा सकता है।
जहाँ तक समाज में घुसने, उसमें उतरने का प्रश्न है, उसके लिये न तो यों ही दौड़ कर घुस जाना है और न निरर्थक घूमते-फिरते हुये विकारों से युद्ध का अवसर खोजते फिरना है। इसके लिये मनुष्यों के साथ सक्रिय सम्बन्ध रखना है। समाज के लिये उपयोगी बन कर तथा जन सेवा का भाव लेकर समाज में व्यवहार करना ही उपयुक्त होगा। समाज में जो भी व्यापार अथवा व्यवसाय किया जावे, वह विशुद्ध सेवा भाव से हो। सेवा भाव से किये हुये किसी भी काम में मनुष्य का अहं नहीं रहता, जिससे वह अनायास ही सफलता प्राप्त करने के साथ-साथ दूसरों की सद्भावना का भी अधिकारी बन जाता है।
मनुष्य को जिस समय दूसरों की सद्भावना प्राप्त होने लगती है, दूसरों की दृष्टि में उसका मूल्य एवं महत्व बढ़ जाता है, तब उसमें अपने आचरण के प्रति एक उत्तर दायित्व जाग उठता है, जिस से वह स्वयं ही सहनशील बन जाता है। उसका जीवन अपना न रह कर सारे समाज का हो जाता है, जिससे विकृत करने का उसे कोई अधिकार नहीं रहता। इस प्रकार आचरण, सहिष्णुता तथा संयम की सिद्धि होते ही मनुष्य की आत्मा का विकास प्रारम्भ हो जाता है।
मनुष्य ज्यों-ज्यों जन सेवा की ओर बढ़ता है त्यों-त्यों उसमें अधिकाधिक सद्भावनाएँ बढ़ती जाती हैं और वह उत्तरदायी हो कर संयमी होता जाता है। और ज्यों-ज्यों संयमी होता है, उसे आचरण की सिद्धि होती जाती है, और आचरण की सिद्धि का ही दूसरा नाम है विकास।
आत्मविकास प्रारम्भ होते ही उसका विस्तार होने लगता है और धीरे धीरे आत्म विस्तृत मनुष्य स्वयं से समाज, समाज से संसार और संसार से बढ़कर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड और ब्रह्माण्ड से बढ़ कर परमात्म-तत्व तक पहुँच जाता है। उसके सम्पूर्ण विकार ही नहीं समग्र भौतिक भाव तिरोहित हो जाता है, वह आध्यात्मिक हो जाता है और परमानन्द प्राप्त कर लेता है।