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Magazine - Year 1967 - Version 2

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विश्व-राज्य की कल्याणकारी योजना

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“जातीय या राष्ट्रीय पक्षपात केवल धोखा और स्पष्ट पथ है, क्योंकि ईश्वर ने हम सबको एक ही जाति में उत्पन्न किया है। आरम्भ में भिन्न-भिन्न भू-प्रदेशों की न कोई परिधि थी और न उनकी कोई सीमा रेखा थी। कोई जाति किसी भू-प्रदेश की विशेष स्वामिनी न थी। ईश्वर की दृष्टि में विविध जातियों में कोई भेदभाव न था। फिर मनुष्य इस प्रकार के पक्षपातों के शिकार किस लिये बनते हैं? ऐसे धोखे के कारण उत्पन्न हुये युद्ध को हम कैसे जारी रख सकते हैं? ईश्वर ने मनुष्यों को इसलिये उत्पन्न नहीं किया कि वह एक दूसरे का विनाश करते रहें। प्रत्येक जाति, वंश और सम्प्रदाय अपने स्वर्ग स्थित पिता के प्रसाद का एक-सा भाग प्राप्त करते हैं। पिछले समयों में कहा जाता था कि अपने देश से प्रेम रखना ही धर्म या विश्वास है परन्तु अब ईश्वरीय आदेश के आधार पर हम कहते हैं कि उस मनुष्य का विशेष महत्व नहीं जो केवल अपने देश से प्रेम रखता है, बल्कि महिमा के योग्य वह आदमी है जो सारे संसार से प्रेम रखता है।”

इन शब्दों में एक मानवतावादी सन्त ने संसार के ऊपर छाये हुये भयंकर संकट और उसको दूर करने का उपाय प्रकट कर दिया है। यद्यपि भारतवर्ष में अभी पचास वर्ष पहले हम ‘स्वदेश-प्रेम’ के श्रद्धायुक्त गाने गा चुके हैं, पर तब भी हमारा उद्देश्य यह नहीं था कि हम दूसरे देशों से घृणा करें या उनको अपना जन्मजात शत्रु मान लें। इसके विपरीत हमारे स्वाधीनता-संग्राम के संचालक महात्मा गाँधी ने सदा यही कहा कि “हम अँगरेज जाति और इंग्लैंड से कभी द्वेष या घृणा नहीं कर सकते, क्योंकि उसने हमको ऐसे अनेक नर-रत्न दिये हैं जिन्होंने संसार की सेवा करने में, उसे उन्नत बनाने में, मानवीय ज्ञान की वृद्धि करने में अपना जीवन अर्पण कर दिया है। हम भी उससे लाभ उठा कर आज प्रगति-पथ पर अग्रसर होने में समर्थ हो रहे हैं।”

महात्माजी की यह मनोवृत्ति कोई नवीन या निराली न थी, वरन् भारतीय आदर्श सदा से यही रहा था। जिस जाति ने हजारों वर्ष पहले ‘वसुदैव कुटुम्बकम्’ का जयघोष किया, जिसने ‘चक्रवर्ती’ पदवी प्राप्त करके किसी राष्ट्र या जाति को मिटाने का दुराग्रह नहीं किया, जिसने आक्रमणकारी विदेशियों को भी शान्ति स्थापन हो जाने के बाद अपने में सम्मिलित कर लिया, वह जातीय-घृणा की समर्थक कैसे हो सकती थी? यद्यपि भारतवासियों को पिछले हजार वर्षों में विदेशी शासन के कारण बहुत से कष्ट और हानि सहन करनी पड़ी, पर उसने अपने इस प्राचीन आदर्श की अवहेलना न की। अब भी स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद से ही वह लगातार विश्व-शान्ति, संसार के समस्त राष्ट्रों के संगठन तथा सब में अधिकाधिक सहयोग के लिये प्रयत्नशील रहा है।

विश्व-प्रेम और स्वदेश प्रेम में ऐक्य :-

यद्यपि कुछ संकीर्ण विचारों के अदूरदर्शी और कट्टरपन्थी इस मानवोचित विचार धारा के महत्व को न समझ कर साम्प्रदायिकता, राजनीतिक दलबन्दी, पृथकतावाद, फूट तथा द्वेष किन्हीं गीत गाते रहते हैं और विश्व-शाँति के अनुयाइयों को कल्पना लोक में विचरण करने वाला अथवा जीवन-संग्राम से भयभीत होने वाला बतलाते हैं। पर हम इसके लिये भी उनकी निन्दा नहीं करते। मतभेद का रहना स्वाभाविक ही है और सब लोग एक साथ किसी उच्च-आदर्श का पालन करने को तैयार भी नहीं हो सकते। फिर भी हममें और उनमें कोई बड़ा अन्तर नहीं है। विश्व-समाज में विश्वास रखने का यह अर्थ नहीं कि हम अपने देश की सेवा और हित कामना करने से विमुख हो जायें। हमारा देश भी विश्व का एक अंग है, इसलिये यह कैसे सम्भव है कि हम विश्व-सेवा का दावा करते हुये अपने देश की सेवा न करें। वरन् हम में से अधिकाँश को ऐसी परिस्थितियाँ प्राप्त होने की कोई सम्भावना नहीं जब कि हम विदेश जाकर विश्व-व्यापी समस्याओं के समाधान में प्रत्यक्ष भाग ले सकने में समर्थ हो सकें। ऐसी दशा में हमारा सेवा-क्षेत्र प्रायः अपना देश ही रहेगा और हम अपने निकटवर्ती व्यक्तियों की सेवा करके ही विश्व-सेवा के आदर्श में भागीदार बन सकेंगे।

यह आध्यात्मिक मार्ग की बहुत बड़ी विशेषता है। कर्म के समान होने पर भी फल हमारी मनोवृत्ति के अनुसार अच्छा या बुरा होगा। जब हम लूटमार के अभिलाषी किसी आक्रमणकारी के विरुद्ध युद्ध करते हैं, तो प्रकट में दोनों पक्षों के सैनिकों की स्थिति एक-सी होती है, दोनों ही शस्त्रों का प्रयोग करके एक दूसरे को मारने का प्रयत्न करते हैं, पर मनोवृत्ति में अन्तर होने से एक आततायी और दूसरा न्याय रक्षा के लिये बलिदान कहा जाता है। इसलिये हमारा आग्रह यही है कि अपने देश के सच्चे सेवक रहते हुए आप ‘विश्व-मानव’ के महत्व को भी समझिये। हम भारतवासी तो ‘भगवत् गीता’ के सिद्धाँतों के अनुयायी हैं जिसमें भगवान ने विराट रूप दिखला कर यह बतला दिया है कि यह समस्त संसार वास्तव में एक ही स्रोत से उत्पन्न हुआ है और इसमें भिन्नता, अन्तर का भाव रखना अज्ञान है। भगवान को जड़ और चेतन के बीच भी एकता, प्रेम-भाव रखने का उपदेश देते हैं, फिर अगर हम मनुष्य मात्र को अपना भाई मान कर विश्व-निर्माण में भाग लें, उसका समर्थन करें तो इसमें ‘सनक’ की क्या बात हो सकती है?

संसार का विभाजन कृत्रिम है-

जैसा आरंभ में कहा जा चुका है वर्तमान समय में राष्ट्रों का जो विभाजन हम देख रहे हैं वह कृत्रिम है। जब सृष्टि का आरंभ हुआ अथवा जब से मानव-जाति पृथ्वी पर निवास करने लगी, तब विभिन्न देशों की कोई सीमा नियत न थीं, न कोई जाति किसी विशेष भू-खण्ड की अधिकारी मानी जाती थी। वरन् जब तक कृषि की जानकारी और भली प्रकार प्रचलन न हो गया तब तक एक मनुष्य स्वयं ही एक स्थान पर घर बनाकर नहीं रहने लगते थे। जब वहाँ किसी तरह की असुविधा होते देखते या कहीं उससे अधिक सुविधा वाले स्थान को पा जाते तो स्थान परिवर्तन कर लेते थे, और इसके लिये सैकड़ों मील की यात्रायें करते थे। इस आवागमन में विभिन्न मनुष्य समुदाय एक-दूसरे से मिल भी जाते थे और कभी दो-चार टुकड़ों में भी बंट जाते थे। इस कारण उस समय मनुष्य जाति एक ही मानी जाती थी और उसका नेता ‘मनु’ कहा जाता था। संसार के सबसे पुराने ग्रंथ माने जाने वाले वेद में, जो आदिकालीन मानव-सभ्यता का हजारों वर्ष पुराना एकमात्र लिखित विवरण है, कहा है-

समानोमंत्र समितिः समानी समानं मनः सह चित्तमेषाम्।

समानं मंत्रमभि मन्त्रये वः समानेन वो हविषा जुहोमि॥

समानी व आकूति समाना हृदयानि वः।

समानमस्तु वो मनो यथा व सुसहासति॥

(ऋग्वेद 10-12-191)

अर्थात् ‘सब मनुष्यों का हार्दिक भाव, संगठन, विचार, चित्त एक समान हों और ये सब एक ही उद्देश्य से प्रेरित होकर कर्म करें। तुम्हारे व्यवहार, हृदय, मन में एकता रहे और तुम एकमत होकर सुदृढ़ सहयोग तथा संगठन पूर्वक रहो।’

इसमें किसी विशेष जाति, वर्ण अथवा मजहब का उल्लेख नहीं है। उस समय मनुष्यों में इस प्रकार के अन्तर उत्पन्न भी नहीं हुये थे। यद्यपि उस समय भी कभी-कभी खाद्य सामग्री अथवा अन्य प्रकार की सुविधाओं के लिये दो अपरिचित समुदायों में मुठभेड़ हो जाती थी और वे पत्थर, लकड़ी आदि से लड़ भी लेते थे, पर कोई किसी को नीचा, असभ्य, पतित, बहिष्कृत नहीं समझता था। ये सब ‘मनुष्य’ ही और सामान्य अवस्था में एक-दूसरे के साथ समानता का ही बर्ताव करते थे।

इतना ही नहीं यहाँ के अनेक मनीषियों की भावना यहाँ तक थी कि जब हम परमात्मा के अंश हैं- उसके सन्तान रूप में हैं तो हम किसी एक स्थान अथवा किसी विशेष समुदाय से बंध कर कैसे रह सकते हैं? इसलिये उनके अन्तरतम् से यह ध्वनि निकलती थी-

माता च पावर्ती गौरी पिता देवो महेश्वरः।

भ्रातरो मानवाः सर्वे स्वदेशो भुवनत्रयम्॥

निस्संदेह भावना की यह बहुत ऊंची उड़ान है। पर भारतीय संन्यासी का यही आदर्श है कि वह किसी भी वस्तु, स्थान व व्यक्ति में अपनी आसक्ति न रहने दें। उसके लिये आज्ञा दी गई है कि जंगल में भी कभी एक पेड़ के नीचे दो रात न सोवे। ऐसे सर्व-त्यागियों के लिये तीनों लोक घर के समान हों तो क्या आश्चर्य है? वैसे भी प्रत्येक आस्तिक-ईश्वर भक्त के लिये यह आदर्श सदैव स्मरण करने योग्य है।

पर सभ्यता पर सम्पत्ति का वृद्धि के साथ दुनिया में अधिकार लिप्सा और बंटवारे की प्रवृत्ति बढ़ती गई और लोग अपने अधिकार क्षेत्र के चारों ओर दीवारें खड़ी करने लगे। उनमें से हर एक की यह अभिलाषा रहती है कि मेरा इलाका (अधिकार क्षेत्र) दूसरों से बड़ा हो जाय और इसके लिये यह अकारण दूसरों पर आक्रमण और लूटमार की प्रवृत्ति को अपनाता रहता है। यही आजकल के युद्धों का कारण है। आज इसने बहुत विशाल तथा जटिल रूप धारण कर लिया है, जिसके कारण संसार भर में एक अभूतपूर्व हलचल और आतंक का दृश्य दिखलाई पड़ रहा है। इस प्रकार के युद्ध की भयंकरता अनैतिकता का वर्णन करते हुये विश्व-शाँति के एक महान उपासक ने कहा है-

‘मुझे यह जान कर आश्चर्य होता है कि मनुष्यों में अभी तक यह राक्षसपन विद्यमान है। अन्यथा यह कैसे संभव हो सकता है कि मनुष्य प्रातःकाल से सायंकाल तक लड़ाई करते जायें एक दूसरे की हत्या करें और अपने ही जाति-भाइयों का खून बहायें। और वह भी किसलिये? केवल किसी जमीन के टुकड़े को अपने अधिकार में करने के लिये। पशु भी जब लड़ते हैं तो उनकी लड़ाई का कोई न कोई पूर्ववर्ती उचित कारण होता है। यह कैसी भयंकर बात है कि मनुष्य, जो उच्चतर ज्ञान-राज्य के अधिकारी हैं, एक भूखण्ड की प्राप्ति के निमित्त अपने ही मानव-भाइयों को मार डालने या पद दलित करने पर उतरे आयें, इतनी उच्च श्रेणी का प्राणी भूमि जैसी छोटी-सी वस्तु प्राप्त करने के लिये लड़ाई करे।

‘भूमि किसी एक की नहीं बल्कि सबकी है। भूमि मनुष्य का घर नहीं, यह तो उसका समाधि-स्थान है। मनुष्य कितना ही महान विजयी क्यों न हो, कितने ही देशों को अपने आधीन क्यों न कर ले, पर वह इन विध्वंस किये भू-प्रदेशों में से किसी एक को भी पूर्ण रूप से अपने अधिकार में नहीं रख सकता, सिवाय उस छोटे से टुकड़े के जहाँ पर उसकी समाधि बनाई जाती है। युद्ध तो मनुष्य वे अपनी वासना को तृप्त करने के लिये बनाया है। केवल थोड़े से व्यक्तियों की वासना की पूर्ति के लिये अनगिनती घर बरबाद किये जाते हैं और हजारों-लाखों स्त्री-पुरुषों के हृदय टुकड़े-टुकड़े कर दिये जाते हैं।’

जब से अणुशक्ति का अस्त्र के रूप में प्रयोग करने का आविष्कार हो गया है तब से तो यह अवस्था बहुत ही गंभीर हो उठी है। अब तक युद्धों के फलस्वरूप यदि हजारों या लाखों मनुष्यों के मरने की संभावना रहती थी तो अब एक ही घंटे में दस-बीस करोड़ के मरने या पूरे देश के नष्ट हो जाने की कल्पना किसी भी समय सत्य सिद्ध हो जाना संभव हो गया है। जब से यह खतरा उत्पन्न हुआ है तब से एक विश्व-राज्य और विश्व समाज की माँग बहुत अधिक जोर पकड़ गई है। अब सभी समझदार व्यक्ति चाहे वे किसी भी देश और धर्म के क्यों न हों वह अनुभव करने लगे हैं कि जब विज्ञान ने मनुष्य के हाथ में इतनी बड़ी शक्ति दे दी है तब उसका कल्याण इसी में है कि पृथक जातीयता और राष्ट्रीयता के भेदों को मिटाकर एक संघ-शासन को ही समस्त पृथ्वी की शासन व्यवस्था सौंप दी जाय। अन्यथा यदि किसी युद्धोन्मादी ने सच्चे या झूठे बहाने से अणु-अस्त्र से आक्रमण आरंभ कर दिया तो 24 घंटे के भीतर ही इस हरी भरी धरती का अधिकाँश भाग श्मशान में परिणित हो जायेगा। इस संबंध में वास्तविक स्थिति क्या है इसका कुछ परिचय श्रीमती कैथिलन लाँसडेल ने अपनी ‘क्या विश्व शाँति संभव है?’ नामक पुस्तक में इन शब्दों में दिया है-

‘यदि भविष्य में परमाणु तथा उद्जन अस्त्रों से सुसज्ज संसार में कोई सिरफिरा आक्रमणकारी हो जाय, तो वह संसार को और उसके साथ-साथ अपने राष्ट्र को भी नष्ट कर देगा और उसे किसी चमत्कार के सिवा और कोई ऐसा करने से न रोका सकेगा। ऐसा होने पर परमात्मा ही हमारी रक्षा करे। निरस्त्र संसार में ऐसा नहीं हो सकता। ऐसे सिर-फिरे लोग शस्त्रों से सुसज्ज संसार में ही पैदा होते हैं। यदि भविष्य में आणविक युद्ध होगा तो अधिक संभव यही है कि उसका सूत्रपात भय की भावना करेगी।’

आज यह अनुमान पूरी तरह सही सिद्ध हो रहा है। चीन कई दिन से यह धमकी दे रहा है कि उसने कई हजार मील तक मार करने का प्रक्षेपणास्त्र बना लिया है और हाल ही में उसने इसका परीक्षण भी किया था। चीन के सिर पर इस समय युद्ध का भूत जिस प्रकार सवार है उससे दुनिया के सभी राष्ट्र चिंतित हो रहे हैं। वह छोटे-बड़े सभी राष्ट्रों को चुनौती दे रहा है और सब के दूतावासों से छेड़खानी कर रहा है। भारत की सीमा पर तो उसने बिना कारण फौज जमा ही कर रखी है और चाहे जब गोले-गोली छोड़ कर वातावरण को गर्म बनाता रहता है। इस परिस्थिति से अमरीका भी भयभीत हो गया है और अपनी रक्षा का तैयारी कर रहा है। इस संबंध में अभी जो समाचार अखबारों में छपा है उसमें कहा गया है-

‘सैनफ्राँसिस्को (अमरीका) 19 सितम्बर। अमरीका ने चीन के संभावित आणविक हमले से बचने के लिये 5 अरब डालर के खर्च पर प्रक्षेपणास्त्र विरोधी व्यवस्था लागू करने का निश्चय किया है। यह घोषणा अमरीका के प्रतिरक्षा मंत्री श्री मैकनमारा ने कल यहाँ की थी। श्री मैकनमारा ने यह चेतावनी भी दी कि यदि चीन ने अमरीका पर आक्रमण करने का पागलपन किया तो अमरीका न केवल उसकी सैन्य शक्ति नष्ट कर देगा वरन् अमरीकी प्रत्याक्रमण से उसका समाज भी नष्ट हो जायेगा। उन्होंने आशा प्रकट की कि चीन ऐसी गलती न करेगा, पर उस स्थिति को भी नजर-अंदाज नहीं किया जा सकता जब चीन सही स्थिति का मूल्याँकन करने में गलती कर जाये।

‘श्री मैकनमारा ने कहा कि चीन अपनी कठिनाइयों के बावजूद आणविक हथियारों और इनकी प्रक्षेपण प्रणाली के विकास के लिये बड़े साधन जुटा रहा है।

‘उन्होंने सोवियत संघ से भी अपील की कि वह भी आक्रमण तथा बचाव दोनों प्रकार की प्रक्षेपणास्त्र प्रणालियों के संबंध में अमरीका से बातचीत करके उन्हें सीमित कर दे। उन्होंने कहा कि सोवियत संघ की प्रक्षेपणास्त्र रोकने की प्रणाली इतनी तगड़ी नहीं है कि वह अमरीकी आक्रमण को सोवियत संघ के भीतर घुसने और वहाँ क्षति पहुँचाने से रोक सके। फिर भी इस तथ्य को स्वीकार करना ही पड़ेगा कि प्रथम अमरीकी आक्रमण के बावजूद रूस अमरीका को नष्ट करने की क्षमता रखता है।’

श्री मैकनमारा ने बताया कि अमरीका के पास अभी 1000 प्रक्षेपणास्त्र राकेट, 41 पोलारिस पनडुब्बियाँ 656 प्रक्षेपणास्त्र राकेटों से सज्जित तथा लगभग 600 दूर मारक बमवर्षक हैं जिनका 40 प्रतिशत सदा कार्यवाही के लिये तैयार रहता है।

इसी प्रकार दो सप्ताह पहले रूस की तरफ से पश्चिमीय देशों को चेतावनी देते हुए कहा गया था कि अगर वे रूस के विरुद्ध कोई कार्यवाही का विचार कर रहे हैं तो वह उन्हीं के लिये घातक सिद्ध होगा। समाचार इस प्रकार है-

‘मास्को 3 सितम्बर। सोवियत उप-प्रतिरक्षा मंत्री मार्शल निकोलाई क्राइलोव ने चेतावनी दी है कि यदि पश्चिमी देशों ने नया युद्ध शुरू किया तो रूस में जो आणविक प्रक्षेपणास्त्र पश्चिमी देशों के घनी आबादी वाले प्रशासकीय तथा राजनैतिक केन्द्रों की ओर निशाना साधे हुये हैं, वे छोड़ दिये जायेंगे। रूस के सरकारी समाचार ‘इजेवेस्तिया’ के रविवारीय संस्करण के एक लेख में मार्शल क्राइलोव ने यह मत प्रकट किया है कि सैनिक संस्थानों की तरह प्रशासकीय केन्द्र (राजधानी) भी वैध-लक्ष्य माने जाते हैं। सोवियत समाचार एजेंसी ‘तास’ के अनुसार सरकार ने राकेट परीक्षणों की एक नई शृंखला प्रारंभ किये जाने की भी घोषणा की है और सभी देशों के विमानों तथा जहाजों को चेतावनी दी है कि सोवियत पूर्वी तट से लगभग 1500 मील के घेरे में आने से बचें।’

इन सब खबरों का वास्तविक आशय क्या है? यही कि ये बड़े-बड़े राष्ट्र भावी विनाश से भयभीत होकर अनगिनती धन युद्ध की तैयारी तथा आक्रमण से बचाव की विधियों पर खर्च कर रहे हैं। अमरीका ने जितनी युद्ध सामग्री अपने पास बतलाई है उसमें अगर कई खरब रुपया भी खर्च हो गया हो तो आश्चर्य नहीं। यह तो उसने केवल अणुबमों को फेंकने की सामग्री का विवरण बतलाया है, इनके अतिरिक्त जो कई हजार अणुबम और हाइड्रोजन बम उसने तैयार करके रखे हैं, उनमें से एक-एक बम पर कई करोड़ की लागत आती है। इस प्रकार इन बड़े कहलाने वालों का आर्थिक भार से कचूमर निकल जाय तो भी आश्चर्य नहीं।

फिर इतना रुपया टैक्स के रूप में देने से प्रजा की क्या हालत होगी यह भी विचारणीय है। कुछ समय पहले प्रकाशित एक सूची से विदित होता है कि कौन देश अपने कुल व्यय (बजट) का कितना प्रतिशत शस्त्रीकरण पर खर्च करता है-

आस्ट्रेलिया 1.2 प्रतिशत, कनाडा 2.6, फ्राँस 26, जर्मनी 13, इटली 24, जापान 35, नार्वे 15, स्वीडेन 10, इंग्लैंड 12, अमेरिका 12, अमरीका 18, रूस 6।

ये आँकड़े 1951 के हैं। जब कि अणु अस्त्रों का निर्माण आरंभ ही हुआ था। इसमें अब तक न जाने कितना अन्तर पड़ गया होगा। उदाहरणार्थ सन् 1955 में ही इंग्लैण्ड का प्रतिरक्षा व्यय 12 से बढ़ कर 32 तक पहुँच गया था।

इससे पाठक सहज ही में अनुभव कर सकते हैं कि आज संसार की जो राजनीतिक अवस्था है, उसका कितना घातक परिणाम प्रत्येक व्यक्ति को सहन करना पड़ रहा है। ऊपर तो केवल नये शस्त्रीकरण की बात कही गई है, पर वास्तव में इस समय सेना पर किया जाने वाला सब प्रकार का प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष व्यय इतना अधिक बढ़ गया है कि उसका परिणाम अधिकाँश देशों में कुल राष्ट्रीय बजट का आधे के लगभग हो जाता है। अब आप कल्पना कीजिये कि यदि वर्तमान समय में भारत जैसे किसी देश का कुल बजट 50 अरब का है और उसमें से 25 अरब पाकिस्तान और चीन के भय से सैनिक तैयारी में खर्च कर दिया जाता है तो जनता की उन्नति तथा सुख-सुविधाओं की वृद्धि करने वाली योजनाओं की क्या अवस्था होगी?

इसलिये संसार के हितैषी और शाँति के अनुयायी वर्षों से यह प्रचार कर रहे हैं कि संसार में भिन्न-भिन्न शासनों की जगह एक केन्द्रीय शासन-विश्व सरकार की स्थापना की जाय, जो समस्त देशों में समन्वय बनाये रखे और जो उल्टे रास्ते पर चलता दिखाई दे उसको तुरन्त रोक दे। योरोपियन लेखकों ने तो ऐसी सैकड़ों स्कीमें तैयार की हैं जिनमें से कुछ काल्पनिक और कुछ यथार्थवादी हैं। उन स्कीमों पर संक्षिप्त प्रकाश डालने का भी स्थान इस छोटे लेख में नहीं है, पर हम इतना बतला देना चाहते हैं कि संसार में सैकड़ों भिन्न-भिन्न परस्पर विरोधी शासकों के होने से किसी भी देश की जनता का जरा भी लाभ नहीं है, वरन् सब तरह से हानि ही हानि है। यह बात इतनी स्पष्ट है कि राजनीतिज्ञ भी जो इस पारस्परिक तनाव के अधिकाँश में जिम्मेदार हैं, इसकी सच्चाई को स्वीकार करते हैं और उन्होंने दो बार बहुत कुछ उद्योग और व्यय करके इसको कार्य रूप में परिणत करने का प्रयत्न भी किया है।

प्रथम योरोपीय महायुद्ध के समाप्त होने पर सन 1919 में ‘लीग आफ नेशंस’ (राष्ट्रसंघ) की स्थापना की गई जो अनेकों वर्ष तक लिखा पढ़ी करके शाँति स्थापना का प्रयत्न करती रही। फिर द्वितीय महायुद्ध के कारण जब उसका अन्त हो गया तो 1946-47 के लगभग संयुक्त राष्ट्र-संघ (यू.एन.ओ.) का निर्माण किया गया, जिसके अधिवेशन न्यूयार्क (अमरीका) में बराबर होते रहते हैं और जो अपनी शक्ति और परिस्थिति के अनुसार संसार के सभी भागों में युद्धों को रोकने का प्रयत्न करती रहती हैं। पर जब प्रमुख राष्ट्रों का प्रश्न आ जाता है तो यह असमर्थ सिद्ध होती है। जैसे वियतनाम में अमरीका लड़ रहा है तो वहाँ बार-बार प्रस्ताव करने पर भी इसका प्रभाव नहीं पड़ता। इसी प्रकार अभी इसराइल और अरब राष्ट्रों संघर्ष में मिश्र के राष्ट्रपति नासिर के इनकार कर देने पर उसकी शाँति रक्षक सेना को हट जाना पड़ा।

अब अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति बहुत खतरनाक होती जा रही है और युद्ध की तैयारी इतनी अधिक हो गई है कि यदि किसी दिन प्रातःकाल सोकर उठने पर यह सुनने में आवे कि रात के दस पाँच घंटों के भीतर ही संसार के सौ-पचास करोड़ व्यक्ति समाप्त हो गये और बड़ी-बड़ी राजधानियाँ भस्म हो गई हैं, तो भी यह असंभव नहीं है। जब युद्धों के संचालक-सेनानायक खुल कर कहते हैं कि हमारे राकेटों का निशाना संसार की महत्वपूर्ण राजधानियों की तरफ लगा हुआ और दस मिनट के भीतर उद्जन बमों को हजारों मील के फासले पर बसे नगरों तक पहुँचाया जा सकता है तो दो-एक दिन में ही वर्तमान मानव सभ्यता का सर्वनाश या अर्द्धनाश हो जाने में क्या आश्चर्य है?

हथियारों की दौड़ और राष्ट्र नायकों के दुराग्रह को देखकर विश्व बन्धुत्व के उपासक वर्षों पहले से सब राष्ट्रों के संचालकों से पारस्परिक प्रतिस्पर्धा तथा मतभेद मिटा कर एक विश्व संगठन बनाने की अपील कर रहे हैं। महात्मा बहा द्वारा इस संबंध में सबसे पहले प्रयत्न किया गया और अब से सौ वर्ष पहले भविष्यवाणी के रूप में संसार के शासकों को चेतावनी दी गई कि यदि वे राष्ट्रीय भेद-भावों को बढ़ते रहने देंगे तो अन्त में सबका नाश अवश्यंभावी है। अब से पचास वर्ष पहले भी बंगाल के ठाकुर दयानन्द ने जिन्होंने विश्व-प्रेम का प्रसार करने के लिये ‘अरुणाचल मिशन’ की स्थापना की थी, ‘पीस कान्फ्रेंस’ (शाँति परिषद) के पास तार द्वारा एक अपील भेजी थी जिसमें ‘विश्व राज्य’ की योजना की संक्षिप्त रूप रेखा इस प्रकार बतलाई गई थी-

‘प्रत्येक देश के निवासी कुछ वर्षों के लिये अपने में से एक व्यक्ति को राष्ट्रपति चुन लें, जो एक परिषद् की सहायता से वहाँ की व्यवस्था करे और ये विभिन्न देशों के राष्ट्रपति मिल कर अपने में से एक ‘प्रमुख-राष्ट्रपति’ चुन लें की एक मंत्रि-मंडल के द्वारा समस्त राष्ट्रों के कार्य का परीक्षण करता रहे। ये मंत्री भी विभिन्न राष्ट्रों द्वारा लिये गये प्रतिनिधि ही होंगे। यह विश्व-शासन सभा अन्तर्राष्ट्रीय मामलों में विभिन्न देशों की कार्यवाहियों का समन्वय करती रहेगी? जिससे सब अपना विकास और वृद्धि करते रह सकें और कोई किसी से अनुचित लाभ न उठा सके।

‘ये सब राष्ट्रपति और प्रमुख-राष्ट्रपति अपने को प्रजा का प्रतिनिधि, भगवान का सेवक समझेंगे और समस्त देशों के निवासियों को अपने भाई की तरह मानेंगे। वे जनता तथा भगवान के सम्मुख अपने को संसार की शाँति, खुशहाली और प्रगति के लिये उत्तरदायी समझेंगे।’

ठाकुर दयानन्द ने इस स्कीम को संसार के समस्त शासकों, प्रसिद्ध नेताओं और समाचार पत्रों के पास भी भेजा। कहीं-कहीं इसकी चर्चा हुई, पर सत्ता के भूखे राजनेता अपने रास्ते पर ही चलते रहे।

सत्य समाज का ‘नया संसार’-

‘सत्य समाज’ के संस्थापक का कथन है कि ‘मैं इसी दुनिया में एक ऐसे नये संसार का दर्शन करना चाहता हूँ जिसमें न साम्राज्यवाद को न पूँजीवाद, न धर्म के झगड़े हों न जाति के, धन की महत्ता हो न पशु-बल की। सारी दुनिया एक राष्ट्र हो, मनुष्य-मात्र की एक जाति जो, नर-नारी का अधिकार और मन समान हो, सत्य ही ईश्वर हो, विवेक ही शास्त्र हो। सारे विश्व का एक कुटुम्ब हो, एक की जायदाद सब की जायदाद हो, कोई गरीब न हो। सत्य समाज के द्वारा मैं ऐसे ही नये संसार की तरफ इस दुनिया को ले जाना चाहता हूँ।’

इनकी योजना के अनुसार विश्व-राष्ट्र-शासन की इकाई ग्राम पंचायत में जनसंख्या के अनुसार दस से पन्द्रह तक सदस्य होंगे, जिनके चुनाव में ग्राम का प्रत्येक व्यक्ति मत देगा। कोई उम्मीदवार स्वयं खड़ा नहीं हो सकता, वरन् कम से कम पचास मतदाता हस्ताक्षर करके किसी को खड़ा कर सकते हैं। चुनाव में किसी को प्रचार करने की आज्ञा नहीं होगी। इस तरह के प्रतिनिधियों की पंचायत गाँव का हिसाब-किताब, साधारण झगड़ों का निपटारा, वाचनालय, स्कूल, सफाई आदि व्यवस्था का कार्य करेगी। इसी प्रकार जिले की पंचायत और प्राँत की पंचायत का चुनाव भी वयस्क मतदाताओं द्वारा किया जायेगा। पर राष्ट्र की पंचायत का चुनाव प्रान्तों की पंचायतों द्वारा होगा और समस्त राष्ट्र पंचायतें मिल कर विश्व-संघ का निर्माण करेंगी।

‘विश्व-संघ का कार्य विश्व-न्यायालय, अन्तर्राष्ट्रीय पुलिस, अन्तर्राष्ट्रीय यातायात, सबेडडडडडड समुद्री स्टेशनों का प्रबंध, सोना, चाँदी, लोहा, कोयला, तेल आदि की खानों का प्रबंध, अन्तर्राष्ट्रीय लेन−देन आदि होगा। राष्ट्रीय पंचायत के हाथ में राष्ट्रीय न्यायालय, राष्ट्रीय पुलिस, अन्तर्प्रान्तीय यातायात और लेन−देन आदि होगा। प्रान्तीय पंचायत में प्रान्त से संबंध रखने वाले सब विषय होंगे, और यही बात जिला पंचायतों के संबंध में समझना चाहिये।’

यह कुछ लोगों के विचारों के नमूने हैं। इसका आशय इतना ही है कि दुनिया में फैले हुये दोषों और उनके कारण होने वाली निर्दोष लोगों की दुर्दशा को देख कर सभी विचारशील लोगों का ध्यान किसी नये परिवर्तन की तरफ आकर्षित हो रहा है। इस समय संसार ज्ञान-विज्ञान में उन्नति करके उत्पादन को इतना बढ़ा चुका है कि यदि न्याय और बुद्धि से समाज की व्यवस्था की जाय तो सभी लोग काफी सुख से जीवन व्यतीत कर सकते हैं। पर व्यवहार में इसका उल्टा परिणाम देखने में आ रहा है। गरीब और अभावग्रस्त लोग ही नहीं इस समय साधन सम्पन्न लोग भी बहुत कम सुखी हैं। और सच भी यह है कि जब गाँव और शहर, छोटे और बड़े, मूर्ख और विद्वान सब में स्वार्थ-भावना ही अधिकाधिक व्याप्त हो रही है, तो कोई कैसे सुखी हो सकता है? आजकल प्रतिदिन युद्ध की तैयारियाँ और अशाँति फैलने की जो खबरें आती रहती हैं और अणु अस्त्रों का आतंक फैलाया जा रहा है, उससे लोगों की मानसिक अवस्था भी अशाँत बनी रहती है। इस अनिष्टकारी अवस्था का प्रतिकार तभी संभव है जब संसार के विचारशील शासक और विद्वान मिलकर पारस्परिक मतभेदों को दूर करें और संसार में एक केन्द्रीय शासन-संस्था ऐसी स्थापित करें जिससे विभिन्न देशों में कलह और संघर्ष के कारण सदैव के लिये मिट जायें।

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