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Magazine - Year 1968 - Version 2

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विचार शक्ति ही सर्वोपरि है।

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शारीरिक, सामाजिक, राजनीतिक और सैनिक संसार में बहुत प्रकार की शक्तियाँ विद्यमान हैं। किन्तु इन सब शक्तियों से भी बढ़ कर एक शक्ति है, जिसे विचार-शक्ति कहते हैं। विचार-शक्ति सर्वोपरि है।

उसका एक मोटा-सा कारण तो यह है कि विचार-शक्ति निराकार और सूक्ष्मातिसूक्ष्म होती है और अन्य शक्तियाँ स्थूलतर। स्थूल की अपेक्षा सूक्ष्म में अनेक गुना शक्ति अधिक होती है। पानी की अपेक्षा वाष्प और उससे उत्पन्न होने वाली बिजली बहुत शक्तिशाली होती है। जो वस्तु स्थूल से सूक्ष्म की ओर जितनी बढ़ती जाती है, उसकी शक्ति भी उसी अनुपात से बढ़ती जाती है।

मनुष्य जब स्थूल शरीर से सूक्ष्म, सूक्ष्म से कारण शरीर की और कारण शरीर से आत्मा और आत्म से परमात्मा की ओर ज्यों-ज्यों बढ़ता है, उसकी शक्ति की उत्तरोत्तर वृद्धि होती जाती है, और यहाँ तक कि अन्तिम कोटि में पहुँच कर वह सर्वशक्तिमान बन जाता है। विचार सूक्ष्म होने के कारण संसार के अन्य किसी भी साधन से अधिक शक्तिशाली होते हैं। उदाहरण के लिये हम विभिन्न धर्मों के पौराणिक आख्यानों की ओर जा सकते हैं।

बहुत बार किसी ऋषि, मुनि और महात्मा ने अपने शाप और वरदान द्वारा अनेक मनुष्यों का जीवन बदल दिया। ईसाई धर्म के प्रवर्तक ईसा-मसीह के विषय में प्रसिद्ध है कि उन्होंने न जाने कितने अपंगों, रोगियों और मरणासन्न व्यक्तियों को पूरी तरह केवल आशीर्वाद देकर ही भला-चंगा कर दिया। विश्वामित्र ऐसे ऋषियों ने अपनी विचार एवं संकल्प शक्ति से दूसरे संसार की ही रचना प्रारम्भ कर दी थी। और तो और इस विश्व ब्रह्माण्ड की, जिसमें हम रह रहें हैं, रचना भी ईश्वर के विचार स्फुरण का ही परिणाम है।

ईश्वर के मन में ‘एकोहम् बहुस्यामि’ का विचार आते ही यह सारी जड़ चेतनमय सृष्टि बन कर तैयार हो गई, और आज भी वह उसकी विचार धारणा के आधार पर ही स्थिति है और प्रलयकाल में भी विचार निर्धारण के आधार पर ही उसी ईश्वर में लीन हो जायेगी। विचारों सृजनात्मक और ध्वंसात्मक दोनों प्रकार की अपूर्व, सर्वोपरि और अनन्त शक्ति होती है। जो इस रहस्य को जान जाता है, वह मानो जीवन के एक गहरे रहस्य को प्राप्त कर लेता है। विचारणाओं का चयन करना स्थूल मनुष्य की सबसे बड़ी बुद्धिमानी है। उनकी पहचान के साथ जिसको उसके प्रयोग की विधि विदित हो जाती है, वह संसार का कोई भी अभीष्ट सरलतापूर्वक पा सकता है।

संसार की प्रायः सभी शक्तियाँ जड़ होती हैं, विचार-शक्ति, चेतन-शक्ति है। उदाहरण के लिए धन अथवा जन-शक्ति ले लीजिये। अपार धन उपस्थित हो किन्तु समुचित प्रयोग करने वाला कोई विचारवान व्यक्ति न हो तो उस धनराशि से कोई भी काम नहीं किया जा सकता। जन-शक्ति और सैनिक-शक्ति अपने आप में कुछ भी नहीं है। जब कोई विचारवान नेता अथवा नायक उसकी ठीक से नियन्त्रण और अनुशासन कर उसे उचित दिशा में लगाता है, तभी वह कुछ उपयोगी हो पाती अन्यथा वह सारी शक्ति भेड़ों के गल्ले के समान निरर्थक रहती है, शासन प्रशासन और व्यावसायिक सारे काम एक मात्र विचार द्वारा ही नियन्त्रित और संचालित होते हैं। भौतिक क्षेत्र में ही नहीं उससे आगे बढ़ कर आत्मिक और आध्यात्मिक क्षेत्र में भी एक विचार-शक्ति ही ऐसी है, जो काम आती है। न शारीरिक और न साम्पत्तिक कोई अन्ध-शक्ति काम नहीं आती। इस प्रकार जीवन तथा जीवन के हर क्षेत्र में केवल विचार-शक्ति का ही साम्राज्य रहता है।

किन्तु मनुष्य की सभी मानसिक तथा बौद्धिक स्फुरणायें विचार ही नहीं होते। उनमें से कुछ विचार और कुछ मनोविकार तथा बौद्धिक विलास ही होता है। दुष्टता, अपराध तथा ईर्ष्या-द्वेष के मनोभाव, विकार तथा मनोरंजन, हास-विलास तथा क्रीड़ा आदि की स्फुरणाएँ बौद्धिक विलास मानी गई हैं। केवल मानसिक स्फुरणाएँ वही विचारणीय होती हैं, जिनके पीछे किसी सृजन, किसी उपकार अथवा किसी उन्नति की प्रेरणा क्रियाशील रहती है। साधारण तथा सामान्य गतिविधि के संकल्प-विकल्प अथवा मानसिक प्रेरणायें विचार की कोटि में नहीं आती हैं। वे तो मनुष्य की स्वाभाविक वृत्तियाँ होती हैं, जो मस्तिष्क में निरन्तर आती जाती रहती हैं।

यों तो सामान्यतया विचारों में कोई विशेष स्थायित्व नहीं होता है। वे जल-तरंगों की भाँति मानस में उठते और विलीन होते रहते हैं। दिन में न जाने कितने विचार मानव-मस्तिष्क में उठते और मिटते रहते हैं। चेतन होने के कारण मानव मस्तिष्क की यह प्राकृतिक प्रक्रिया है। विचार वे ही स्थायी बनते हैं, जिनसे मनुष्य का रागात्मक सम्बन्ध हो जाता है। बहुत से विचारों में से एक दो विचार ऐसे होते हैं, जो मनुष्य को सबसे ज्यादा प्यारे होते हैं। वह उन्हें छोड़ने की बात तो दूर उनको छोड़ने की कल्पना तक नहीं कर सकता।

यही नहीं, किसी विचार तथा विचारों के प्रति मनुष्य का रागात्मक झुकाव विचार का न केवल स्थायी अपितु अधिक प्रखर तथा तेजस्वी बना देता है। इन विचारों की छाप मनुष्य के व्यक्तित्व तथा कर्तृत्व पर गहराई के साथ पड़ती है। रागात्मक विचार निरन्तर मथित अथवा चिन्तित होकर इतने दृढ़ और अपरिवर्तनशील हो जाते हैं कि वे मनुष्य के विशेष व्यक्तित्व के अभिन्न अंग की भाँति दूर से ही झलकने लगते हैं। प्रत्येक विचार जो इस सम्बन्ध से संस्कार बन जाता है, वह उसकी क्रियाओं में अनायास ही अभिव्यक्त होने लगता है।

अतएव आवश्यक है कि किसी विचार से रागात्मक सम्बन्ध स्थापित करने से पूर्व इस बात की पूरी परख कर लेनी चाहिये कि जिसे हम विचार समझ कर अपने व्यक्तित्व का अंग बनाये ले रहे हैं, वह वास्तव में विचार है भी या नहीं? कहीं ऐसा न हो कि वह आपका कोई मनोविकार हो और तब आपका व्यक्तित्व उसके कारण दोषपूर्ण बन गये। प्रत्येक शुभ तथा सृजनात्मक विचार व्यक्तित्व को उभारने और विकसित करने वाला होता है और प्रत्येक अशुभ और ध्वंसात्मक विचार मनुष्य का जीवन गिरा देने वाला होता है।

विचार का चरित्र से घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। जिसके विचार जिस स्तर के होंगे, उसका चरित्र भी उसी कोटि का होगा। जिसके विचार क्रोध प्रधान होंगे वह चरित्र से भी लड़ाकू और झगड़ालू होगा, जिसके विचार कामुक और स्त्रैण होंगे, उसका चरित्र वासनाओं और विषय-भोग का जीती जागती तस्वीर ही मिलेगा। विचारों के अनुरूप ही चरित्र का निर्माण होता है। यह प्रकृति का अटल नियम है। चरित्र मनुष्य की सबसे मूल्यवान सम्पत्ति है। उससे ही सम्मान, प्रतिष्ठा, विश्वास और श्रद्धा की प्राप्ति होती है। वही मानसिक और शारीरिक शक्ति का मूल आधार है। चरित्र की उच्चता ही उच्च जीवन का मार्ग निर्धारित करती है और उस पर चल सकने की क्षमता दिया करती है।

निम्नाचरण के व्यक्ति समाज में नीची दृष्टि से ही देखे जाते हैं। उनकी गतिविधि अधिकतर समाज विरोधी ही रहती है। अनुशासन और मर्यादा जो कि वैयक्तिक से लेकर राष्ट्रीय-जीवन तक ही दृढ़ता की आधार शिला है, निम्नाचरण व्यक्ति से कोई संबंध नहीं रखती है। आचरण हीन व्यक्ति और एक साधारण पशु के जीवन में कोई विशेष अन्तर नहीं होता। जिसने अपनी यह बहुमूल्य सम्पत्ति खोदी उसने मानो सब कुछ खो दिया, सब कुछ पा लेने पर भी चरित्र का अभाव मनुष्य को आजीवन दरिद्री ही बनाये रखता है।

मनुष्यों से भरी इस दुनियाँ में अधिकाँश संख्या ऐसों की ही है, जिन्हें एक तरह से अर्ध मनुष्य ही कहा जा सकता। वे कुछ ही प्रवृत्तियों और कार्यों में पशुओं से भिन्न होते हैं, अन्यथा वे एक प्रकार से मानव-पशु ही होते हैं। इसके विपरीत कुछ मनुष्य बड़े ही सभ्य, शिष्ट और शालीन होते हैं। उनकी दुनिया सुन्दर और कला-प्रिय होती है। इसके आगे भी मनुष्यों की एक श्रेणी चली गई है, जिनको महापुरुष, ऋषि-मुनि और देवता कह सकते हैं। समान हाथ-पैर और मुँह, नाक, कान के होते हुए भी और एक संसार में, एक ही वातावरण में रहते हुए, मनुष्यों में यह अन्तर क्यों दिखलाई देता है। इसका आधारभूत कारण विचार ही माने गये हैं। जिस मनुष्य के विचार जिस अनुपात में जितने अधिक विकसित होते चले जाते हैं, उसका स्तर पशुता से उसी अनुपात से श्रेष्ठता की ओर उठता चला जाता है। असुरत्व, पशुत्व, ऋषित्व अथवा देवत्व और कुछ नहीं, विचारों के ही स्तरों के नाम हैं। यह विचार-शक्ति ही है, जो मनुष्य को मनुष्य से देवता और राक्षस बना सकती है।

संसार में उन्नति करने के लिये धन, अवसर आदि बहुत से साधन माने जाते हैं। किन्तु एक विचार-साधन ऐसा है, जिसके द्वारा बिना किसी व्यय के मनुष्य अनायास ही उन्नति करता जा सकता है। मनुष्य के विचार परमार्थ-परक, परोपकारी और सेवापूर्ण हों तो समाज में उसे उन्नति करने के लिये किन्हीं अन्य साधनों की आवश्यकता नहीं रहती। विचारों द्वारा मनुष्य बहुत बड़े समुदाय को प्रभावित कर अपने अनुकूल कर सकता है। साधनापूर्ण व्यक्तियों को अपनी ओर आकर्षित कर सकता है। विचारों की विशालता मनुष्य को विशाल और उनकी निकृष्टता निकृष्ट बना देती है। विचार संपत्ति से भरे-पूरे व्यक्तित्व को उन्नति करने के लिये किन्हीं अन्य उपकरणों, उपादानों और साधनों की अपेक्षा नहीं रहती। अकेले विचारों के बल पर ही वह जितनी चाहे उन्नति करता जा सकता है।

मन और मस्तिष्क, जो मानव-शक्ति के अनन्त स्रोत माने जाते हैं और जो वास्तव में है भी, उनका प्रशिक्षण विचारों द्वारा ही होता है। विचारों की धारणा और उनका निरन्तर मनन करते रहना मस्तिष्क का प्रशिक्षण कहा गया है। उदाहरण के लिये जब कोई व्यक्ति अपने मस्तिष्क में कोई विचार रख कर उसका निरन्तर चिन्तन एवं मनन करता रहता है, वे विचार अपने अनुरूप मस्तिष्क में रेखायें बना देते हैं, ऐसी प्रणालियाँ तैयार कर दिया करते हैं कि मस्तिष्क की गति उन्हीं प्रणालियों के बीच ही उसी प्रकार बंध कर चलती है, जिस प्रकार नदी की धार अपने दोनों कूलों से मर्यादित होकर। यदि दूषित विचारों को लेकर मस्तिष्क में मन्थन किया जायेगा, तो मस्तिष्क की धारायें दूषित हो जायेगी, उनकी दिशा विकारों की ओर निश्चित हो जायेगी और उसकी गति दोषों के सिवाय गुणों की ओर न जा सकेगी। इसी प्रकार जो बुद्धिमान मस्तिष्क में परोपकारी और परमार्थी विचारों का मनन करता रहता है, उसका मस्तिष्क परोपकारी और परमार्थी बन जाता है और उसकी धारायें निरंतर कल्याणकारी दिशा में ही चलती रहती हैं।

इस प्रकार इस में कोई संशय नहीं रह जाता कि विचारों की शक्ति अपार है, विचार ही संसार की धारणा के आधार और मनुष्य के उत्थान-पतन के कारण होते हैं। विचारों द्वारा प्रशिक्षण देकर मस्तिष्क को किसी ओर मोड़ा और लगाया जा सकता है। अस्तु बुद्धिमानी इसी में है कि मनुष्य मनोविकारों और बौद्धिक स्फुरणाओं में से वास्तविक विचार चुन ले और निरन्तर उनका चिन्तन एवं मनन करते हुए, मस्तिष्क का परिष्कार कर डाले। इस अभ्यास से कोई भी कितना ही बुद्धिमान, परोपकारी, परमार्थी और मुनि, मानव या देवता का विस्तार पा सकता है।

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