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Magazine - Year 1968 - Version 2

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अप्रैल अंक दो बार पढ़ें और कुछ ठोस कदम उठायें

अप्रैल का पिछला- अंक न्यूनतम उपासना अंक था। उसमें एक ऐसी उपासना पद्धति का निर्धारण किया गया है, जो व्यस्त लोगों के लिए भी थोड़े समय में सम्पन्न हो सकने वाली और अति सरल है। कष्टसाध्य अनेक बंधन प्रतिबंधों से जुड़ी हुई- बहुत समय लेने वाली साधनायें अक्सर सर्वसाधारण के उपर्युक्त नहीं होती। उन्हें कोई विरले ही श्रद्धावान और सुविधा सम्पन्न व्यक्ति कर पाते हैं। अधिकाँश को तो रोजी-रोटी और अन्यान्य समस्याओं में उलझे रह कर व्यस्त जीवन जीना पड़ता है। ऐसे लोगों के लिए सरल साधना पद्धति ही उपयुक्त पड़ती है। अतएव गत अंक में एक ऐसी सर्वांगपूर्ण सुनिश्चित साधना पद्धति का निर्धारण किया गया है। जो हर स्तर के व्यक्ति के लिए सरल पड़े और बिना किसी विशेष अड़चन के उसे भली प्रकार पूरा किया जा सके।

जप, ध्यान, पाठ, पूजन की प्रक्रिया हम बहुत दिनों से बताते-सिखाते चले आ रहे हैं। उसे अनेकों ने अपनाया भी है यह प्रसन्नता की बात है। उपासना प्रथम चरण है, साधना उससे अगला। उपासना अति सरल है। थोड़ी देर पालथी मार कर बैठना और कुछ समय भगवान का नाम स्मरण एवं पूजन वन्दन कर लेना कोई ऐसा भार नहीं है जिसे उठाया न जा सके। रुचि न हो तो फुरसत न मिलने की बात भी कही जा सकती है पर यदि तनिक भी इच्छा और रुझान हो तो दस-बीस मिनट- घण्टा, आध घण्टा बड़ी सरलता से लगाया जा सकता है। हम में अधिकाँश व्यक्ति अनेक निरर्थक कार्यों में समय बर्बाद करते रहते हैं। समय का मूल्य समझने वाले एक-एक क्षण का उपयोग करने वाले- निरंतर तत्परतापूर्वक कर्म पथ पर चलते रहने वाले लोग कितने हैं? अपने अभागे देश में समय की बर्बादी कितनी होती है यह सर्वविदित है। निरर्थक घिस-घिस में ही जीवन का अधिकाँश भाग चला जाता है। मंद गति से छुट-पुट काम करते हुए लोग अक्सर दो-चार घण्टे में हो सकने वाले काम में प्रायः सारा दिन गंवा देते हैं। ऐसी स्थिति में भजन-पूजन के लिए घण्टा, आध-घण्टा, दस-बीस मिनट निकाल सकना उनके लिए कुछ भी कठिन नहीं होना चाहिये, जिनके मन में इस ओर थोड़ी-सी भी सच्ची लग्न एवं रुझान हो। बाल संभालने और टीप-टाप बनाने में जितना समय लगता है, उतने से भी कम समय में नियमित उपासना आसानी से हो सकती है। वह निश्चय ही अति सरल प्रक्रिया है- इसलिए प्रथम शिक्षण उसी का किया गया है।

इसका अर्थ यह नहीं कि गाड़ी एक पहिये से ही चलती रहेगी। प्रथम चरण उठने के बाद दूसरा चरण उठना ही चाहिये। मंजिल इसी क्रम से पूरी हो सकती है। कोई एक पैर ही आगे बढ़ा ले पर दूसरा उठाने-बढ़ाने को तैयार न हो तो फिर प्रगति का क्रम बनेगा ही कैसे? उपासना के साथ साधना अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हुई है। अध्यात्म का पथ इन दोनों पहियों पर ही गतिशील होता है। जो भजन तो बहुत करता है पर चारित्रिक एवं भावनात्मक विकास की ओर से विमुख है, उसका भजन कदाचित ही कुछ प्रयोजन पूरा करे। रोटी और पानी का- दिन और रात का- जिस प्रकार जोड़ा है, वैसे ही उपासना और साना का ‘अन्योन्य’ संबंध है। एक-दूसरे पर पूर्णतया अवलंबित है। दोनों के समन्वय से ही समग्र प्रतिफल उत्पन्न होता है।

यह ठीक है कि आरंभिक छात्र को सर्वप्रथम सरल प्रक्रिया आरंभ कराई जाती है और इसके बाद धीरे-धीरे कठिन पाठ याद करने को कहा जाता है। अध्यात्म पथ पर अग्रसर होने का क्रम भी यही है। सबसे पहले साधक को थोड़ा भजन-पूजन बता दिया जाता है। उसे वह आसानी से कर लेता है क्योंकि उस निर्धारित कर्मकाण्ड को पूरा कर लेने के अतिरिक्त जीवन-क्रम में कोई हेर-फेर करने की कठिनाई उसमें जुड़ी नहीं रहती। इतना अभ्यास होने के बाद व्रत, उपवास, तप, तितीक्षा, संयम, ब्रह्मचर्य, दान, पुण्य आदि ऐसे साधन बताये जाते हैं, जो कष्टसाध्य प्रतीत होते हैं और साहस धैर्य एवं श्रद्धा के बल पर ही उन्हें पूरा किया जा सकता है। उपासना का प्रथम चरण भजन-पूजन अति सरल और तप त्याग कुछ कठिन है पर अभ्यास से उन्हें भी पूरा कर ला जाता है।

आत्मिक प्रगति की मंजिल में दूसरा चरण साधना का है। साधना का अर्थ है मन व शरीर की गति विधियों का निरीक्षण नियंत्रण एवं नये सिरे से निर्माण। यह कार्य अपेक्षाकृत कठिन तो है पर है अनिवार्य। उसकी न तो उपेक्षा की जा सकती है और उससे बच कर किसी सीधी पगडंडी को पकड़ा जा सकता है। जीवनोद्देश्य का राजमार्ग ‘साधना’ के पुल पर होकर ही जाता है। इसे छोड़ने से आत्मिक प्रगति के पथ का अपरिहार्य गतिरोध उत्पन्न हो जाता है।

कितने ही व्यक्ति ऐसे देखने में आते हैं जो भजन-पूजन में तत्परतापूर्वक लगे रहते हैं किन्तु जीवन निर्माण की साधना अनावश्यक समझते हैं। ऐसे लोगों की अन्तःभूमिका का यदि निरीक्षण, विश्लेषण किया जाय तो वह खाली-खोखली ही दिखाई देती है। लगता है, उनका श्रम निरर्थक चला गया। चन्दन वह जिसमें सुगंध आये। सोना वह जिसमें जंग न लगे। आग वह जो गरम हो। भजन वह जो जीवन क्रम में उत्कृष्टता का समावेश करे- व्यक्तित्व को प्रखर एवं परिष्कृत बनाये। गंदा और घटिया स्तर का जीवन जीने वाला व्यक्ति ईश्वर के परिचय और प्रकाश से दूर ही माना जायेगा भले ही वह कितनी ही संख्या में माला क्यों न जपता हो।

आत्म-मार्ग के तत्त्वदर्शी सदा ही यह प्रशिक्षण करते रहे हैं कि श्रेयार्थी को उपासना के साथ-साथ साधना को भी जुड़ा रखना चाहिये। तभी उसे सन्तोषजनक लाभ मिल सकेगा। यही प्रयत्न अपना भी रहा है। उपासना को हम प्रारंभिक चरण मानते रहे हैं और उसकी पूर्ति के लिए साधना का समावेश करने के लिए पूरा-पूरा जोर देते रहे हैं। यही ऋषि प्रणीत सनातन एवं आर्ष-परम्परा है। जो भजन-पूजन का अलंकारिक, अत्यधिक महात्म्य बता कर- उतने में ही स्वर्ग मुक्ति, ऋद्धि-सिद्ध मिल जाने की बात कहते हैं, उनका प्रतिपादन अशास्त्रीय अनार्ष एवं अवैज्ञानिक है। यही कारण है कि अधूरा भजन करने वाले खाली हाथ रहते और अन्ततः अश्रद्धालु बनते देखे जाते हैं।

हमारे साथी सहचर भी ऐसे ही भटकने वाले लोगों की संख्या बढ़ाते रहें यह उचित नहीं। हमें न केवल अपना ही कल्याण करना है वरन् दूसरों के लिए प्रकाश पुञ्ज भी बनना है। स्वयं मंजिल पर पहुँचना है और दूसरों का पथ-प्रशस्त करना है। इसलिये अपने लिए उचित यही है कि एक सर्वांगपूर्ण- सुव्यवस्थित प्रक्रिया अपनायें। स्वयं अभीष्ट लाभ प्राप्त करें और दूसरों के लिए ऐसे आकर्षण उत्पन्न करें, जिसके लिए अनायास ही सब की अभिरुचि उत्पन्न हो सके।

गत अंक में ऐसी ही सरल किन्तु सर्वांगपूर्ण पद्धति प्रस्तुत की गई है। जप-पूजन की प्रक्रिया बहुत पहले- आरंभिक शिखा प्रक्रिया के साथ ही बता दी गई थी। परिजनों ने उसे अपना भी लिया है। अब वह समय आ गया, जब कि दूसरा कदम भी उठाया जाय। उपासना में साधना का समन्वय कर सकने की स्थिति में अब अपने परिजन पहुँच चुके हैं, इसलिये उनके कंधों की मजबूती जाँच लेने के बाद यह उपयुक्त ही प्रतीत हुआ कि वह आधार भी जोड़ लेने के लिए कहा जाय जो आत्मिक प्रगति के लिये अनिवार्य रूप से आवश्यक है।

वर्षा के दिनों में खेत जोतने पर अधिक ध्यान दिया जाता है। आसौज के महीने तक जुताई पूरा हो जाती है, तब कई महीने से चल रहे कार्यक्रम में थोड़ा हेर-फेर करना पड़ता है। बीज बोने का एक नया सिलसिला शुरू करते हैं। इसके बाद सिंचाई, निराई, गुड़ाई, रखवाली आदि की वे नई जिम्मेदारी उठानी पड़ती हैं, जो वर्षा के दिनों में जुताई आरंभ करते समय तनिक भी आवश्यक न थीं। यह तर्क ठीक नहीं कि अषाढ़ से आश्विन तक लम्बे समय में जबकि खेत जोतने की सीधी-सीधी कार्य पद्धति अपनाये रहे तो अब अगले महीनों में हेर-फेर का झंझट क्यों उठाया जाय?

प्रगति की मंजिल में समय-समय पर आवश्यक परिवर्तन करने होते हैं। विद्यार्थी प्रारंभिक कक्षाओं में जो पढ़ता है- वह पढ़ाई ऊंची कक्षाओं में नहीं चलती रह सकती। बचपन की पोशाक जवानी एवं बुढ़ापे में काम नहीं आ सकती। आत्मिक प्रगति के आरंभ काल में थोड़ा-सा जप-पाठ बताया गया हो तो यह नहीं कहना चाहिये कि उतना ही पर्याप्त है। आगे इसमें कुछ और क्यों जोड़ा जाय? चिड़िया का बच्चा आरंभ में पैरों से चलता है पर कुछ बड़ा होने पर उड़ने भी लगता है। उपासना का विकास साधना में होना आवश्यक है। इन दोनों पंखों के आधार पर ही हम आत्मिक प्रगति के उन्मुक्त आकाश में ठीक तरह उड़ सकते हैं।

अखण्ड-ज्योति परिवार के हर सदस्य से इस सर्वांगपूर्ण साधना पद्धति का अनुरोध गत अंक में किया गया है और आशा की गई कि उसे अपनाने का तत्परतापूर्वक प्रयत्न किया जायेगा। साधना और उपासना की समन्वित प्रक्रिया को अपनाने वाले 24 हजार साधकों द्वारा इस युग के अभूतपूर्व महत्तम गायत्री महापुरश्चरण को पूरा किया जाना है। पुरश्चरणों में जप-संख्या की पूर्ति ही पर्याप्त नहीं होती वरन् कर्ताओं का स्तर प्रधान रहता है। उत्कृष्ट स्तर के साधक ही किसी मंत्र का समुचित प्रतिफल उत्पन्न कर सकते हैं। प्रतिदिन 24 लक्ष जप वाला महत्तम गायत्री महापुरश्चरण ऐसे ही साधकों द्वारा सम्पन्न होना है जो उपासना को ही पद्धति न मान बैठे हों वरन् साधना को भी अनिवार्य रूप से आवश्यक समझ कर उसके लिए अभीष्ट पुरुषार्थ करने के लिए कटिबद्ध हों।

अपने परिवार में अधिकाँश परिजन ऊँचे स्तर के हैं। पूर्व जन्मों के सुसंस्कार पर्याप्त मात्रा में जिनके पास संचित हैं उन्हें ही विशेष प्रयत्न के साथ ढूंढ़ा और एक माला में पिरोया गया है। अखण्ड-ज्योति परिवार का यही स्वरूप है। ऐसे लोगों से यह आशा सहज ही की जा सकती है कि वे उपयुक्त समय पर आवश्यक उद्बोधन पाकर अपने उच्चस्तरीय कर्त्तव्यों के प्रति सजग होंगे और जो करना ही चाहिये उसे करने में आनाकानी न करेंगे। कितने ही परिजन लम्बे समय से जप-भजन करते चले आ रहे हैं। कितने ही ऐसे भी हैं जिनने इस दिशा में सक्रिय कदम नहीं उठाये हैं।

समय आ पहुँचा है कि सभी को अब सजग एवं तत्पर हो जाना चाहिये। नव-निर्माण की- युग परिवर्तन की- आवश्यकता अपना हल चाहती है। समय की पुकार प्रबुद्ध आत्माओं का आह्वान कर रही है। यह एक ऐतिहासिक संधि-बेला है। परीक्षा की ऐसी घड़ियाँ कभी-कभी ही- हजारों वर्ष बाद आती हैं। जो उससे चूक जाते हैं उन्हें पछताने के अतिरिक्त और कुछ हाथ नहीं आता। परीक्षा के दिन आना-कानी करने वाले विद्यार्थी को पूरे एक वर्ष पश्चात्ताप करना पड़ता है। यह अवसर भी ऐसा ही है, जिसमें हर प्रबुद्ध परिजन को अपना आध्यात्मिक उत्थान करना चाहिये। साधना युक्त उपासना में संलग्न होना चाहिये। सक्रिय कार्यकर्ताओं को ‘ऋत्विज’ की जिम्मेदारी उठानी चाहिये। ‘महत्तम गायत्री महापुरश्चरण’ में भागीदार बनना चाहिये और नव-निर्माण के लिए प्रबुद्ध आत्माओं के कंधों पर आये हुए उत्तरदायित्वों को आगे बढ़कर स्वीकार, शिरोधार्य करना चाहिये।

अप्रैल का अंक हर सदस्य को दो बार पढ़ना चाहिये और आगामी गायत्री-जयंती 7 जून 68 तक अपने द्वारा उठाये हुए कदम की सूचना दे देनी चाहिये ताकि गुरुपूर्णिमा 10 जुलाई 68 तक अंतिम गणना करके यह निश्चित किया जा सके कि निष्ठावान परिजनों का अपना परिवार कितना बड़ा है। भविष्य में हमारा सारा ध्यान उसी अपने छोटे परिवार को सींचने सम्भालने पर केन्द्रीभूत रहेगा।

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