Magazine - Year 1969 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
रोगों की गाँठ तन में नहीं, मन में
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
“देखिये, आप झूठ बोल रहे हैं, आपकी जबान लड़खड़ा रही है, आप सत्य को छुपाना चाहते हैं, मुझे विश्वास है कि यदि आप सच-सच बताकर अपने मन की गाँठ साफ कर लें तो आप निश्चित रूप से रोग मुक्त हो सकते हैं, आप जब स्वप्न की स्थिति में होते हैं और अपने आपको बहते हुये देखते हैं, तभी एकाएक चिल्ला पड़ते हैं और तुरन्त दमा को दौरा पड़ता हैं, इससे भी साबित होता है कि आपके अन्तरमन में किसी पाप की गाँठ जमी बैठी है, आप सच-सच बता दे तो मुझे आशा है आप शीघ्र ही रोग से छुटकारा पा सकते हैं, मन की गाँठ बनी रहने तक शरीर से आप स्वस्थ नहीं रह सकते।”
प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक चिकित्सक डा0 स्टैकिल के उतना जोर देकर पूछने पर रोगी एकाएक रो पड़ा। लगभग 1 घण्टे की अविरल अश्रु-धारा के बाद उसका जी कुछ हल्का हुआ और उसने अपराध स्वीकार करते हुये बताया-मैं जिस मकान में रहता हूँ, उसमें मेरे एक घनिष्ठ मित्र भी रहते थे। हमारी दोनों की धर्म और भगवान् में आस्था थी। दोनों समान विचार के थे। इसलिये हमारी मित्रता भी दिनों-दिन प्रगाढ़ होती गई। कुछ दिनों बाद संयोगवश एक ही घर की दो बहनों से हम दोनों का विवाह हो गया। हम मकान के निचले भाग में रहते थे और मेरे मित्र दुमंजिले पर विवाह के बाद भी हमारी मित्रता बराबर चलती रही। हम दोनों के बीच कोई विक्षेप नहीं आया।”
इसके बाद मन में विकार कैसे उत्पन्न हुआ उसकी कहानी सुनाते हुये रोगी ने आगे बताया कि-वह जब भी अपने मित्र की धर्मपत्नी (अपनी साली) से मिलता तो उसके प्रति कुछ आकर्षण अनुभव होता। यह आकर्षण धीरे-धीरे प्रेम और फिर काम-वासना में बदल गया। इससे मेरे मन में दबाव-सा पड़ने लगा, जब भी अपने मित्र की उदारता और स्नेह याद आता मेरी आत्मा भर्त्सना करने लगती। तो भी अपने आपको रोकने का प्रयत्न नहीं किया मित्र की धर्मपत्नी को कई बार नीचे आना पड़ता, मैं प्रायः उसकी राह देखता। इस तरह से मन में कुछ भय की सी गांठें भी पड़ती गई। जो भी हो शरीर संबंध के ठीक 1 वर्ष मुझे दमा का दौरा पड़ा और तब से जब भी उस तरह का स्वप्न देखता हूँ लगता है कोई मेरे ऊपर चढ़ बैठा है और मुझे जोर का दमा उखड़ पड़ता है।”
डा0 स्टैकिल महोदय ने सारी बातें ध्यान से सुनी यह भी संयोग ही है कि डा0 स्टैकिल भी वियना के ही निवासी थे। डा0 फ्रायड के अनेक सिद्धान्तों को मानते थे पर उनका कहना था कि दमित काम-वासना से रोगी की ग्रन्थियाँ जड़ नहीं पकड़ती वरन् मनुष्य जब नैतिकता का दमन करके पाप करता है, तभी उसके मन में विक्षेप उत्पन्न होता हैं, यह विक्षेप शरीर के किसी भी अंग में, किसी भी रोग के रूप में फूट सकता हैं, इसलिये ही उन्होंने मन को हल्का करके चित्त शुद्धि द्वारा चिकित्सा की पद्धति का विस्तार किया था। उससे उन्होंने अनेकों रोगियों को ठीक किया जो डाक्टरी हिसाब से असाध्य घोषित किये जा चुके थे उनके संस्कारों में परिवर्तन लाकर उन्होंने रोग-निवारण में असाधारण सफलता और यश अर्जित किया।
डा0 स्टैकिल का यह मरीज एक सम्पन्न व्यक्ति था। उसे किसी प्रकार का अभाव न था। एक बार उसे किसी ने जलवायु परिवर्तन की सलाह दी तो वह आस्ट्रिया के मेजारिका द्वीप में चला गया। मेजारिका अपनी सुन्दरता और मनमोहकता के लिये विश्व-विख्यात टापू है। आराम मिलने पर रोगी ने वहाँ स्थायी रूप से बसने का निश्चय किया और उसकी तैयारी के लिये वह घर आया और जब दुबारा फिर वहाँ पहुँचा तो उसकी पूर्व धारणा निर्मल सिद्ध हुई। स्थान परिवर्तन से मन में कुछ दिन स्वस्थ चैतन्यता और प्रसन्नता के कारण रोग दब गया पर स्थायी निवास के कारण जैसे ही पूर्व आकर्षण कम हुआ कि पिछला स्वप्न फिर उभरा और उसे दमा की बीमारी फिर पूरे जोर से उखड़ पड़ी। विवश होकर उसे इस बार मनोवैज्ञानिक चिकित्सक डा0 स्टैकिल की शरण लेनी पड़ी। स्टैकिल महोदय के बहुत बार पूछने पर भी वह अपने मन का पाप छिपाता। तब तक वह अच्छा भी नहीं हुआ पर जैसे ही उसने अपना अपराध स्वीकार कर लिया उसका चित्त हल्का होने लगा। कुछ दिन में उसने अपनी साली से बिलकुल संबंध-विच्छेद कर लिया और अपनी धर्मपत्नी के साथ फिर धार्मिक भावना से रहने लगा। तब से उसका स्वास्थ्य और बीमारी भी ठीक हो गई।
डा0 ब्राउन डा0 पीले मैगड्रगल हेडफील्ड और डा0 चार्ल्स जंग आदि प्रसिद्ध मनोविज्ञान शास्त्रियों ने यह माना है कि फोड़े-फुंसी से लेकर टी0 बी0 और कैन्सर तक की बीमारियों के पीछे कोई न कोई दूषित संस्कार की कारण होते हैं। मनुष्य बाहर से ईश्वर परायण सत्य-भाषी मधुर व्यवहार करने वाला दिखाई देता है पर सच बात यह होती है उसके अंतर्मन में नैतिकता को जब दबाकर केवल दिखावे के लिये कुछ किया जाता है तो उसका मन भीतर ही भीतर अन्तर्द्वन्द्व करता है। उसे अन्तर्द्वन्द्व के फलस्वरूप ही उसमें रोग पैदा होते हैं। कई बार यह संस्कार बहुत पुराने हो जाते हैं, तब बीमारी फूटती है पर यह निश्चित है कि बीमारियों का पदार्पण बाहर से नहीं, व्यक्ति के मन से ही होता है।
इस कथन की पुष्टि में मैमडों नल्ड अमेरिका का उदाहरण देते हुये कहते हैं-अमेरिका के बीमारी में आधे ऐसे होते हैं जिनमें ईर्ष्या द्वेष, स्पर्द्धा-क्रोध धोखे-बाजी आदि भाव प्रसुप्त जमाये होते हैं जो इस प्रकार मानसिक रोगी होते हैं, वे अपनी भावनाओं का नियन्त्रण नहीं कर सकते, उनका व्यक्तित्व अस्त व्यस्त हो जाता है, उसी से वे उल्टे काम करते और बीमारियों की बढ़ते हैं। आगे दुश्चिन्ता की व्याख्या करते हुये मैकडोनल्ड लिखते हैं-मानसिक चिन्ताओं द्वारा रक्त के अन्दर ‘एड्रेनैलीन’ नामक हारमोन की अधिकता हो जाती है, उसी से श्वाँस फूलना, कम्पन, चक्कर आना, बेचैनी, दिल धड़कना, पसीना आना और दुःस्वप्न बनते हैं। दौर और बड़ी बीमारियाँ भी किसी न किसी मानसिक ग्रन्थि के ही परिणाम होते हैं, जिसे डाक्टर नहीं जानता कई बार मनुष्य भी नहीं जानता पर व्याधियाँ होती मन का ही कुचक्र हैं।”
इस संबंध में भारतीय मत बहुत स्पष्ट है। यह जीवन को इतनी गहराई से देखा गया है कि आधि-व्याधियों के मानसिक कारण पाप-ताप के संस्कार रूप में स्पष्ट झलकने लगती है। योग-वशिष्ठ कहते हैं-
चित्ते विधुरते देहः संक्षोभमयुपात्यलम्।
/-/-/
चित में गड़बड़ होने से शरीर में गड़बड़ होती हैं
इदं प्राप्तनिदं जाड्पाद्वा धनमोहवाः।
आधयः सम्प्रवर्तन्ते वर्षासु मिहिका इवं
/-/
अन्तर्द्वन्द्व और अज्ञान से मोह में डालने वाले मानसिक रोग पैदा होते हैं, उनसे फिर शारीरिक रोग इस तरह पैदा हो जाते हैं, जैसे बरसात के दिनों में मेढक अनायास दिखाई देने लगते हैं।