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Magazine - Year 1969 - Version 2

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सेवा का अवसर हर समय

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हमें सेवा को जीवन के एक आवश्यक व्रत के रूप में ग्रहण करना चाहिये। सेवा की साधना कोई भी किसी भी परिस्थिति में कर सकता है। सेवा के लिये किसी बड़े धन की आवश्यकता नहीं है। संकीर्णता का त्याग कर उत्कट भावना के साथ जन-जीवन में घुल-मिल कर एक रूप हो जाना ही सेवा व्रत का पालन करने के लिए पर्याप्त होता है।

वे लोग गलती पर माने जायेंगे जो सेवा के लिए असाधारण आकांक्षा रखते हैं, ठीक विख्यात महापुरुषों की तरह सेवा के क्षेत्र में उतरना चाहते हैं, उन्हीं जैसी नकल करना चाहते हैं और यदि उनसे किसी महत् कार्य बनने का कोई अवसर नहीं आता तो कुछ भी नहीं करते, यों ही सोच-विचार और इच्छा-आकांक्षाओं में समय बिता देते है। इसकी यदि गहराई के साथ विवेचना की जाये तो उनकी वह इच्छा सेवाभाव से प्रेरित सिद्ध न होगी। उनकी वह आकांक्षा स्वार्थपूर्ण भाव ही होगा। उनके मन में महापुरुषों जैसी प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा की साध होगी। सेवा की भावना नहीं।

सच्ची सेवा भावना रखने वाला व्यक्ति बड़े-बड़े अवसरों की प्रतीक्षा नहीं करता और न वह विख्यात महापुरुषों की नकल करने की स्पृहा करता है। वह तो सेवा के लिये उपर्युक्त किसी भी छोटे से छोटे अवसर का उपयोग करता रहता है। बड़े-बड़े अवसरों की प्रतीक्षा में बैठा रहना ठीक नहीं। इससे तो अच्छा यही है कि जब यहाँ पर जिस सेवा का छोटा-मोटा अवसर आ जाये उसका लाभ उठाया जाये।

मनुष्य की विस्तृत जीवन परिधि में सेवा के छोटे-छोटे सैकड़ों अवसर नित्य हो आया करते हैं। उनका पूरा-पूरा ध्यान रखकर सेवा-व्रत का निर्वाह करते रहना बड़ी-बड़ी लोक-सेवाओं का प्रारम्भिक पाठ है। ऐसे कर्तव्यशील लोक-सेवियों का प्रकाशित होते देर नहीं लगती और तब तो बड़ी-बड़ी सेवाओं के लिये उनकी आवश्यकता स्वतः पैदा हो जाती है। सच्चा और बड़ा लोक-सेवक नहीं बन सकता है जो अपने सेवा-व्रत का प्रारम्भ छोटे और नीचे स्तर से करता है। बड़े-बड़े भार उठा लेने वाली अपनी शक्ति और अपना अभ्यास छोटे-छोटे बोझों को उठाकर ही करते हैं।

किसी भी सच्चे सेवा भावों के लिये संसार में सेवा के अवसरों की कमी नहीं है। सड़कों पर घूमने वाले भूखे-प्यासे अन्धे-अपाहिजों कोढ़ी-कंगालों की दशा हमारी सेवाओं के लिये निरन्तर संकेत करती रहती है। चिकित्सालयों के अभाव में किन्हीं झोपड़ियों और खण्डहरों में पड़े असहाय रोगियों की कराह लोक-सेवी के लिये एक अवसर नहीं तो और क्या है। बहुत बार इस व्यस्त संसार में दुर्घटनाएँ हो जाती हैं। घायल अथवा चपेट-चोट में पड़ जाने वाले का कोई वहाँ पर नहीं होता। उस समय वह ही सदाशयी व्यक्ति उसका सगा है जो अपने हृदय में सेवा की भावना संजोए रहता है। बहुत बार बच्चे खो जाते हैं और उसके माँ-बाप उसे खोजते फिरते हैं। ऐसे अवसरों पर यदि रोता हुआ बच्चा मिल जाए तो उसे घर पहुँचा देना और यदि व्याकुल माता-पिता मिल जाये तो उनके साथ बच्चे की खोज में सहायता करना एक लोक-सेवा ही तो है। इस प्रकार के एक नहीं संसार में सैकड़ों सेवा के अवसर आते रहते हैं। उनका उपयोग कर कोई भी सेवा-व्रती पुण्य-परमार्थ का लाभ उठा सकता है। इसके लिये न तो किसी बड़े धन की आवश्यकता है और न किसी बड़ी योजना की और न प्रतीक्षा की।

अनुभवी लोक-सेवक जानते हैं कि सेवा-धर्म का निर्वाह करने से उसका पुण्य फल केवल परलोक के लिए ही सुरक्षित नहीं होता रहता अपितु उसका तत्काल लाभ मिलता हैं। सेवा करते समय अन्तरात्मा में जिस शान्ति और संतोष का आविर्भाव होता है उसका आनन्द असाधारण होता है। उसकी तुलना में संसार के सारे सुख, भोग हेय ठहरते हैं। अन्तःकरण में सद्भावनाओं की प्रतिष्ठा और उनका विकास श्रेष्ठ कार्यों द्वारा ही होता है और वह श्रेष्ठ कार्य लोक-सेवा के सिवाय और कुछ नहीं माना गया है। दूसरों के लिये परमार्थ भाव के साथ कुछ कष्ट उठाना, त्याग करना एक ऐसा माननीय श्रेय है जिससे मनुष्यता की सच्ची मनुष्यता की प्राप्ति होती है। पूर्ण और सफल मनुष्य बनने के लिये सेवा से बढ़कर कोई उपाय नहीं। परोपकार अथवा पर सेवा ही परमार्थ का सच्चा एवं सक्रिय स्वरूप है। योग, साधना, ध्यान धारणा की अपेक्षा पूर्ण और पारमार्थिक मनुष्य बनने के लिये सेवा सबसे सरल उपाय माना गया है।

मानव जीवन का यथार्थ लक्ष्य निरन्तर आत्म-विकास करते रहना ही है। इतना आत्म-विकास कि एक दिन वह व्यापक होकर परमात्म में मिलकर मोक्ष पद प्राप्त कर ले। किन्तु इसका सीधा और सरल मार्ग सेवाओं के बीच से ही होकर जाता है। आध्यात्मिक और धार्मिक जीवन बिताने पर भी अन्ततः मनुष्य को जन-सेवा की प्रेरणा ही मिलती है। जिसका जितना आत्म-विकास होता जायेगा उसमें सेवा-भावना उतनी ही प्रबल होती जाएगी। जीवन लक्ष्य की मंजिल का मार्ग सेवा के बीच से ही होकर जाता है। सुकरात, ईसा, मोहम्मद, गाँधी, दयानन्द तथा पूर्वकालीन ऋषि-मुनियों का जीवन व्रत सेवा ही रहा है। एक दिन संसार छोड़कर तपश्चर्या करने के लिये जाने वाले बुद्ध देव को उसकी सिद्धि बाद में जन-सेवा में ही हुई और तभी उन्हें सच्ची शान्ति और सच्ची प्रकाश मिला जब वे एकान्त तप का त्याग कर लोकरंजन के कार्यों में लग गये।

आत्मा के कल्याण और मानव-समाज का एक अंग होने के नाते किसी को सेवा कार्यों से विमुख नहीं होना चाहिये। जन-जन को जन-सेवा को अपने जीवन का महत्त्वपूर्ण अंग बना लेना चाहिये। यदि निश्चय दृढ़ और उसके पालन का महत्व हृदयंगम कर लिया गया है तो न तो इसमें व्यस्तता आड़े आ सकती है और न कोई अभाव। यदि निःस्वार्थ भाव से प्राणी मात्र के हित, उपकार की भावना से लोक मंडल का चिन्तन भी करते रह जाये तो यह भी एक जन-सेवा ही होगी जो परमार्थ पुण्य से रहित नहीं हो सकती। विश्व-कल्याण की भावना ही सेवा कार्यों की वास्तविकता और उसका प्राण मानी गई हैं। विश्वकल्याण से रहित बड़ी से बड़ी लोक-सेवा भी निर्जीव और निस्सार ही मानी जायेगी। स्वार्थ का अंशमात्र भी बड़े से बड़े परमार्थ को व्यर्थ कर देती है।

मनोवाँछित परिस्थितियाँ और सांसारिक भोग-विलास के साधन जुटा होने पर इन्द्रिय जन्य शारीरिक सुख ही मिल सकता है। इस नश्वर सुख के आवागमन से आनन्द प्राप्ति का मानवीय लक्ष्य पूरा नहीं होता। सच्चा सुख शारीरिक नहीं आत्मिक होता है-उसकी उपलब्धि परोपकार एवं जन-सेवा की भावना और तदनुसार कार्यों से ही होती है। नश्वर स्वार्थ सुख की अपेक्षा स्थायी एवं कल्याणकारी सुख-परमार्थ सुख को महत्व देना ही बुद्धिमानी मानी गई है। शारीरिक और आत्मिक सुख में अर्थ और परमार्थ का अन्तर है। दिन-रात शारीरिक सुख में क्यों न रहा जाये-तथापि-जब तक आत्मा को संतुष्ट न किया जाएगा, मनुष्य सम्पन्नता के बीच भी एक भयानक अभाव अनुभव करता रहेगा। जब सुख ही पाना है तब झूठे और मिथ्या सुख में क्यों बहला जायें, क्यों न सेवा द्वारा सच्चा और यथार्थ आत्मिक पाने का प्रयत्न किया जाये।

लोक-सेवा की बड़ी-बड़ी आकांक्षाएँ और योजनाएँ बनाने से ही पहले कहीं अधिक उत्तम है कि हमारी जितनी परिधि है उसी में सेवा कार्यों का प्रारम्भ कर दिया जाये। जिस प्रकार एक माली संसार भर के उद्यानों की सेवा करने की योजना न बनाकर अपने जिम्मे के थोड़े से पौधों की सेवा करता और उनके फलने-फूलने के लिये त्याग करता और कष्ट उठाता है उसी प्रकार हर व्यक्ति को अपनी परिधि के उत्तरदायित्वों की ठीक प्रकार से पालन करते रहना चाहिये। यदि हम एक मनुष्य की, अपने पास-पड़ोस की सेवा ठीक प्रकार से कर सके तो वह भी सम्पूर्ण विश्वात्मा की ही सेवा होगी।

संसार की सेवा का एक रूप अपनी सेवा भी माना गया है। अपनी सेवा से तात्पर्य अपने शरीर मात्र की सेवा से नहीं है। न भोग-विलास और सुख-साधनों में लगा रहना ही अपनी सेवा है। अपने गुण, कर्म, स्वभाव का परिष्कार ही अपनी सच्ची सेवा है। अपने सुधार द्वारा हम जितना-जितना अपने को सुधारते चलेंगे, उतनी-उतनी ही समस्त संसार की सेवा होती चलेगी। हम सब इस विराट् विश्व की एक इकाई हैं। इसलिये अपनी सेवा भी संसार की सेवा ही कही जाएगी।

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