Magazine - Year 1969 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
यज्ञीय वातावरण का स्वास्थ्य पर प्रभाव
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
शतं जीव शरबो वर्धमानः शर्त
हेमन्ताच्छतमु वसत्तान्
शतं तइन्द्रों अग्निः सविता वृहस्पतिः
शतायुषः हविषाहार्व में तम्।
-ऋग्
-हे रोगी तू शत शरद् शत हेमन्त और शत बसन्तों तक दिन-दिन वृद्धि पाता हुआ जीवित रह। इन्द्र, अग्नि, सूर्य और बृहस्पति आदि सारे देव तेरे इस शरीर को सौ वर्षों तक जीवन धारण करने के लिए आहुतियों के बल पर मृत्यु-मुख से वापस ले आवें।
ऋग्वेद की इस ऋचा पर ऋषि ने सूक्ति द्वारा रोगी को यज्ञ के आधार पर निरोग अघायु होने का निर्देश किया है।
यह निर्देश केवल यज्ञ की महिमा स्थापित करने अथवा यज्ञ धर्म को प्रोत्साहित करने के लिए यों ही नहीं कर दिया गया है, बल्कि इसके पीछे एक आयुर्वेदिक तथ्य निहित हैं जो कि आधुनिक प्रयोगों पर खरा उत्तर कर विज्ञान सम्मत सिद्ध हो चुका है।
शरीर रोगों पर यज्ञीय वातावरण का क्या प्रभाव हो सकता है और यह रोगों को रोकने अथवा उनका निराकरण करने में कहाँ तक सफल हो सकता है। इसे देखने के लिए एक प्रयोग किया गया-
काँच की बारह शीशियों को वैज्ञानिक ढंग से शुद्ध एवं स्वच्छ करके दो-दो शीशियों में दूध, माँस, फलों का रस आदि छः प्रकार की वस्तुएँ भरकर छः शीशियाँ उद्यान के उन्मुक्त वायु मण्डल में और छः शीशियाँ यज्ञीय वातावरण में रख दी गई। कुछ समय बाद उद्यान के वायु मण्डल में रखी शीशियों की चीजों में सड़न पैदा होने लगी जब कि यज्ञीय वातावरण की शीशियों की वस्तुएँ शुद्ध बनी रहीं। उनमें सड़न तब प्रारम्भ हुई जब उद्यानीय वातावरण में रखी शीशियों की सारी चीजें सड़ गई। इस प्रयोग का परिणाम प्रकट करता है कि शुद्ध आक्सीजन युक्त वायु की अपेक्षा यज्ञीय वायु में रोग रोधक शक्ति अधिक होती है।
प्रायः देखा जा सकता है कि जो व्यक्ति नियम पूर्वक नित्य प्रति हवन किया करते है। वे दूसरों की अपेक्षा अधिक निरोग रहा करते है। इसका एक कारण जहाँ जीवन की नियमितता एवं भावना की पवित्रता है वहाँ एक वैज्ञानिक कारण यह भी है कि हवनकर्ता को नियमित रूप से यज्ञ-पूत वायु भी मिलती रहती है। जो अपनी शक्ति से शरीरस्थं रोगाणुओं को नष्ट कर और नये जीवाणुओं को प्रवेश करने से रोकती रहती है। इन प्रयोगों तथा अनुभवों के आधार पर विश्वास किया जा सकता है कि अन्य उपचारों के साथ साथ यदि यक्ष्मा आदि असहाय अथवा किसी अन्य प्रकार के जीर्ण रोगों से ग्रस्त व्यक्ति उपयुक्त औषधियों द्वारा नित्य प्रति हवन भी करते रहें तो निश्चय ही वे रोग मुक्त होकर आरोग्य लाभ कर सकते है।
प्रायः जीर्ण रोगों से ग्रस्त लोग जल्दी ठीक नहीं होते। बहुत कुछ उपचार करने के बाद भी काई लाभ नहीं होता। डाक्टर लोग जवाब दे देते है। और कोई उपाय न देखकर रोगी जीवन से निराश हो जाते है। पुराने रोगों के ठीक न होने का एक विशेष कारण है कि रोग के सूक्ष्म कीटाणु शरीर के किसी अंग की भीतरी पर्त में स्थायी रूप से बस जाते है और धीरे धीरे रोगी की जीवनी शक्ति नष्ट करते रहते है। इन रोगाणुओं की सूक्ष्मता का इससे ही अनुमान लगाया जा सकता है कि एक खस-खस के दाने पर बीस अरब कृमि चढ़ जाते है। ऐसे सूक्ष्म कीटाणु शरीर की किसी भीतरी पर्त में निर्लिप्त घर बनाये अपना काम किया करते है। शरीर के उन भीतरी भागों में रक्त के भी बहुत ही सूक्ष्म कण कठिनता से पहुँच पाते है। किन्तु दवा दी जाती है स्थूल रूप में। इससे उनका उन भीतरी भागों में सूक्ष्म कीटाणुओं तक पहुँच पाना सम्भव नहीं होता। रोगी दवा पीता -खाता रहता है। कोई लाभ नहीं होता। निदान उसे विवश होकर जीवन से निराश हो जाना पड़ता है। यह निश्चित है कि किसी स्थूल वस्तु की अपेक्षा उसके सूक्ष्म रूप का प्रभाव सैकड़ों गुना बढ़ जाता है। इंजेक्शन औषधि का सूक्ष्म रूप है। यही कारण है कि पुराने और असाध्य रोगों में डाक्टर अधिकतर इंजेक्शनों की ही व्यवस्था किया करते है। इंजेक्शन स्थूल औषधि की अपेक्षा अधिक प्रभाव उत्पन्न करता है। वैध लोग औषधि की शक्ति बढ़ाने के लिए उसे महीनों खरल में घुटवाते अथवा उसको भस्म रूप में परिणित करवाया करते है। आयुर्वेद में इसी उद्देश्य से औषधियों को फूँक कर भस्म बनाने का नियम है। होम्योपैथी के आविष्कर्ताओं ने औषधि की शक्ति बढ़ाने के लिए ही उनकी “पोटेन्सी” तैयार करने का नियम बनाया है। उनका कहना है कि ‘सुगर आफ मिल्क’ अथवा स्पिरिट में घोटने अथवा झटका देने से किसी औषधि का जितना सूक्ष्म भाग किया जायेगा उसकी शक्ति उतनी ही बढ़ जायेगी। कारण यह है कि इस विधि से औषधि की गुप्त औषधियाँ उभर आती है। सभी जानते है कि ऊँची पोटेन्सी की होम्योपैथी दवा की एक मात्रा कई कई महीने अपना प्रभाव करती रहती है, जब कि कम पोटेन्सी की दवा की कई मात्राएँ एक दिन में दी जाती है। जीर्ण अथवा असाध्य रोगों में होम्योपैथी की दवा ऊँची पोटेन्सी में ही दी जाने का विधान है। यह तो रही औषधियों को घोटने आदि की बात। हम सब नित्य प्रति के व्यवहार में देख सकते है कि जिस भोजन को खूब चबा कर खाया जाता है वह अधिक लाभकर होता हैं डाक्टरों का कहना है कि अच्छी तरह चबाने से जहाँ भोजन अन्य अनेक प्रकार के लाभ करता है वहाँ उसकी गुप्त प्राण शक्ति उभर आती है जिससे थोड़ी मात्रा में किया हुआ भोजन भी अधिक बलदायक होता है। उसका अधिकांश भाग तत्त्व रूप में परिणित हो जाने से मल कम बनता है जिसके कारण शरीर स्वस्थ तथा निरोग रहता है। इस प्रकार जिस वस्तु को जितना ही सूक्ष्म किया जाता है उसकी शक्ति भी उतनी ही बढ़ जाती है। अणुओं की शक्ति इसी सूक्ष्मता के सिद्धांत पर अमोघ एवं अपरिमित हो जाया करती है।
कोई भी औषधि कितनी ही खरल में क्यों न घोटी-पीसी जाये या कितनी देर ही क्यों न उबाली जायें उसके परमाणु उतने सूक्ष्म नहीं हो सकते जितने कि हवन द्वारा अग्नि में जलाने से। उदाहरण के लिए एक मिर्च को ले लीजिए। एक पूरी मिर्च एक आदमी आसानी से खा सकता है। उसका प्रभाव जो कुछ थोड़ा बहुत होगा वह उस एक खाने वाले पर ही होगा। किन्तु जब उसी मिर्च को किसी चीज में कूटकर मीन किया जाता है तक उसका प्रभाव बढ़ जाता है और आस पास के चार छः आदमी प्रभावित हो उठते है। पर जब उसी मिर्च को आग में जलाया जाता है तो उसका प्रभाव इतना बढ़ जाता है कि आस पास के घरों तक के लोग प्रभावित हो जाते है। इसी प्रकार जो औषधि अग्नि में हवन की जाती है उसके तत्त्व सूक्ष्म से सूक्ष्मतम होकर बहुत अधिक प्रभावशाली हो जाते है। अग्नि में जलाये जाने से औषधि के सूक्ष्म परमाणु न केवल रोगों के सूक्ष्म जीवाणुओं को ही नष्ट कर सकते है बल्कि वे हर उस स्थान पर पहुँच कर अपना प्रभाव डाल सकते है जहाँ पर रोगाणु शरीर के गुप्त से गुप्त भागों में अपना स्थान बनाकर मनुष्य को असाध्य रोगी बना दिया करते है। रोगों के कृमि कितने ही सूक्ष्म क्यों न हों पर वे वायु से सूक्ष्म कदापि नहीं हो सकते। शरीर के जिस भीतरी भाग में रोग के कीटाणु पहुँच सकते हैं। उसमें वायु तो बिना किसी बाधा के जा ही सकती है। हवन की हुई औषधियों के सूक्ष्म तत्त्व उसी की तरह सूक्ष्म होकर वायु में मिल जाते है। जो श्वाँस द्वारा शरीर में पहुँच कर रोगों का नाश करते है। यज्ञ से उत्पन्न औषधियों का लाभकारी तत्त्व प्रभाव रूप में ही वायु के साथ शरीर में जाते और लाभ करते है। यही कारण है कि नित्य नियमित यज्ञ करने वाले लोग अन्यों की अपेक्षा अधिक स्वस्थ एवं निरोग रहते हैं
क्षय रोग का रोगी जब असाध्य हो जाता है, उस पर कोई भी औषधि किसी रूप में लाभ नहीं करती तो डाक्टर उसे पहाड़ पर जाने का परामर्श दिया करते है। इसका कारण यही होता है कि औषधियों के प्रभाव से भरी हुई पहाड़ों की आक्सीजन वायु इतनी सूक्ष्म होती है कि वह शरीर के किसी भी सूक्ष्म से सूक्ष्म भाग में जाकर रोगी को लाभ करती है। उद्यानों अथवा पहाड़ों की उन्मुक्त वायु को इसी लिए स्वास्थ्यदायक माना जाता है कि उसमें वनस्पतियों तथा औषधियों का सूक्ष्म प्रभाव विद्यमान् रहता है।
आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के आधार पर सिद्ध हो चुकी है कि क्षय जैसे अनेक घातक रोगों की सर्वोत्तम औषधि आक्सीजन युक्त युद्ध वायु ही है। आक्सीजन वायु में जहाँ अन्य अनेक स्वास्थ्य दायक गुण होते है वहाँ उसमें एक सुखाने का भी गुण होता है। यह वायु रोगी के शरीर में जाकर जहाँ रोगाणुओं का नाश करती है वहाँ फेफड़ों आदि में पड़ गए घावों को सुखाती भी है।
किन्तु प्रकृति की उन्मुक्त वायु में दिशाओं की गति के अनुसार भिन्नता भी होती है। पूर्व से आने वाली वायु जहाँ क्षत को सुखाती है वहाँ पश्चिमीय वायु उसे हरा कर देती है। बरसाती वायु तो हर प्रकार के क्षत के लिए हानिकारक मानी जाती है। इस भिन्नता तथा ऋतु वैविध्य के कारण प्रकृति की आक्सीजन युक्त वायु भी हर समय हर प्रकार से लाभकारी नहीं हो सकती। उसके लाभ के लिए उसकी गति तथा ऋतुओं पर निर्भर रहना पड़ता है। एक यज्ञीय वातावरण ऐसा होता है जिस पर ऋतु अथवा दिशा का कोई प्रतिबन्ध नहीं रहता। वह हर समय हर प्रवार से लाभकारी ही होता है।
साथ ही एक विशेषता और भी होती है- वह यह कि यज्ञ में हवन की हुई एक ही औषधि अनेक रोगों पर लाभकारी सिद्ध होती है। ईश्वर ने एक औषधि में एक ही गुण नहीं रखा उसमें अनेक गुण होते है। होम्योपैथी के जानकार जानते है कि उसकी एक ही औषधि अनेक रोगों की अवस्था विशेष में दी जाती है और वह लाभ करती है। पीसने कूटने अथवा उबालने से औषधि का एक स्थूल तत्त्व ही प्राप्त होता है बाकी सब फोकस अथवा छिलकों के रूप में बेकार चला जाता है। हवन की हुई किसी औषधि का कोई भी तत्त्व किसी प्रकार भी नष्ट नहीं होता। वे सारे के सारे अपनी पूरी शक्ति के साथ विस्तारित होकर वायु मण्डल में मिल जाते हैं।
इस प्रकार किसी भी रोग के रोगी यदि नित्य प्रति विशुद्ध औषधियों के साथ यज्ञ करे तो कोई कारण नहीं कि वे शीघ्र ही स्वस्थ न हो जायें। कैंसर, तपेदिक अथवा कारवंकल जैसे रोगों के रोगियों को चाहिए कि वे अन्य हवन सामग्री के साथ इन रोगों की औषधि विशेष के साथ नित्य प्रति यज्ञ किया करें। इससे उनके रोग के सदा सर्वदा के लिए अच्छे हो जाने की सम्भावना रह सकती है। इसलिए ऋषि ने निरोग होने स्वस्थ रहने तथा सौ साल तक जीवित रहने के लिए यज्ञ करने का निर्देश किया है।