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Magazine - Year 1969 - Version 2

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विलक्षण मानसिक शक्तियाँ और उसका आधार

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माको रूस की एक अधेड़ महिला नेल्या ड़ड़ड़ड़ सिर्फ घड़ी की ओर देखकर उसका चलना रोक सकती है। वह मेज़ पद रखे बर्तनों और भोज्य पदार्थों को भी खिसका सकती है। दिशा सूचक यन्त्र (कम्पास) की सुई जो केवल चुम्बकीय शक्ति (मैगनेटिक फील्ड) से ही प्रभावित होती है, उसे भी अपनी इस शक्ति से घुमा देती है।

रूसी ‘मास्कोवास्कामा’ समाचार पत्र ने इस महिला की गहरी ध्यान-शक्ति पर टिप्पणी करते हुए लिखा है कि “मनुष्य के मन में वस्तुतः विज्ञान से परे विलक्षण शक्तियाँ विद्यमान् हैं। उनका विकास करके वर्तमान वैज्ञानिक उपकरणों को ही नहीं पछाड़ा जा सकता मानव से संबंधित गहन आध्यात्मिक तथ्यों का भी पता लगाया जा सकता है।”

प्रसिद्ध फ्राँसीसी विद्वान् लुई जकालियट जो भारतवर्ष में बहुत दिन रहे और योग-विद्या का गहन अन्वेषण किया उन्होंने गोविन्द स्वामी नामक एक दक्षिणी योगी के सम्बन्ध में लिखा है-पानी से भरे हुए घड़े को वह दूर बैठकर अपनी मानसिक या दैवी शक्ति से आगे-पीछे और ऊपर हवा में उठा देता था। उसके आदेश पर जल से भरा हुआ घड़ा भी अधर लटक जाता हुआ मैंने देखा है। भारतीय योगियों के इन विलक्षण करतबों को कई लोग मनोरंजन की दृष्टि से देखते हैं पर मुझे उस कौतूहल के पीछे किसी बड़े रहस्य की अनुभूति होती है ऐसा लगता है मनुष्य के मन में वह शक्तियाँ है, जिनका विकास यदि किया जा सके तो मनुष्य जीवन के अनेक सत्यों का रहस्य जान सकता है।”

वैज्ञानिक और डाक्टर भी यह मानते है कि शरीर में इन्द्रियों की चेतना भी अस्थायी महत्व ही है। स्थायी रूप से दृष्टि श्रवण, प्राण प्रेरक और संवेदन सभी क्षमतायें मस्तिष्क में विद्यमान् है। ड़ड़ड़ड़-नामक एक पिंडली ड़ड़ड़ड़ भीतरी मस्तिष्क में होती है और जो सिर के केन्द्र में अवस्थित है, यही स्थान सभी ड़ड़ड़ड़- के ठहरने का स्थान (स्टेशन) है, वही से ड़ड़ड़ड़ निकलती है जो देखने का काम करती है। ड़ड़ड़ड़ ़- को तीसरा नेत्र भी कहते हैं। ड़ड़ड़ड़ शरीर के सम्पूर्ण अवयवों का नियन्त्रण करती है, ये सब भी मन से ही सम्बन्धित हैं मस्तिष्क का यदि यह केन्द्र काट दिया जाये तो शरीर के अन्य ड़ड़ड़ड़ ़- बेकार हो जायेंगे।

विज्ञान और शरीर रचना शास्त्र एनाटावी की उपरोक्त आधुनिक जानकारियों का काफी विस्तार हो चुका है, किन्तु योग पद्धति और भारतीय ड़ड़ड़ड दर्शन की जानकारी की तुलना में वह ड़ड़ड़ड़ समुद्र में एक बूँद की तरह ही है। भारतीय ड़ड़ड़ड़़ ने इनका सर्वशक्तिमय इन्द्रियातीत ज्ञान का ड़ड़ड़ड़- परमब्रह्म का ही लघुरूप माना है। मन की शक्तियों को ही ब्रह्म में तादात्म्य कर देने से हाड़-माँस का मनुष्य भगवान् हो जाता है। उसकी शक्तियों का आश्चर्यजनक और चमत्कारिक विकास इसी अवस्था पर होता है। मन की अनन्त सामर्थ्यों का उल्लेख करते हुए ड़ड़ड़ड़ में बताया गया है--

मनो हि जगतां कतृं मनो हि पुरुषः स्मृतः। -3,91,4,

स्वकर्य सर्वकृत्यं च ड़ड़ड़ड़ च महात्मनः। -3,9,1,16,

ड़ड़ड़ड़ यद्यदस्य हि चेतलः। तत्ततप्रकटतामेति ड़ड़ड़ड़॥-3।91।17

कल्पं क्षणीकरोति ड़ड़ड़ड़ नयति कल्पताम्। मनस्तवायत्तमतो देशकाल ड़ड़ड़ड़ गिदुः॥ -3।103।14

अर्थात्- संसार को रचने वाला पुरुष भी स्वयं मन ही है, मन में सब प्रकार की शक्तियाँ है। मन अपने भीतर जैसी भावना करता है, क्षण भर में वैसा ही हो जाता है। देशकाल का विस्तार और क्रम भी मन के अधीन ही है। मन ही कल्प को क्षण, क्षण को कल्प बना देता है।

इस तरह की महत्त्वपूर्ण शक्ति का स्वामी होकर भी खेद है कि मनुष्य तुच्छ भोग वासनाओं पर पड़ा हुआ निरन्तर अपने आध्यात्मिक शक्तियों का विघटन करता रहता है। यदि मानसिक शक्तियों के उत्थान का मार्ग मनुष्य ढूँढ़ ले उसे संतुलित कर ले, साथ ले, असंयम के द्वारा नष्ट होने से बचाकर उसे आदि पुरुष ब्रह्म के साथ तादात्म्य कर ले फिर संसार का जीवन का रहस्य अपने आप ही प्रकट हो जाये, तब मनुष्य दीन न रहे वरन् स्वयं ब्रह्म हो जाये।

हमारे मन में चूँकि ईश्वरीय शक्ति का बड़ा बढ़ा-चढ़ा रूप है। इसलिये इन बातों पर एकाएक विश्वास नहीं होता। मन की शक्तियों से सम्बन्ध न होने के कारण यह बातें कुछ भ्रम-सी लगती है और सहसा यह समझ में नहीं आता कि प्रत्येक मनुष्य के मन में सब कुछ जान लेने, दूसरों के अन्तरंग के मनोभाव तक पढ़ लेने, जो कुछ संसार में है, उसे प्राप्त कर लेने, ब्रह्माण्ड के विस्तार को जिससे किसी प्रकाश की गति से चलने पर भी करोड़ों मनुष्य संसार में जो कुछ है, उसे कैसे जान सकता है। दूसरों के अन्तरंग में क्या भाव है, उसे कैसे पढ़ा जा सकता है, मनोवाँछित वस्तुओं को कैसे प्राप्त किया जा सकता है? ब्रह्माण्ड का विस्तार इतना अनन्त हे कि प्रकाश की गति से चलकर भी उसे लाखों प्रकाश वर्षों में नहीं नापा जा सकता उस अनन्तता को ज्ञान में, अनुभव में, दृष्टि में छोटा-सा मन किस प्रकार ला सकता है।

इससे पूर्व कि इसका संक्षिप्त वैज्ञानिक रहस्य समझाया जाये, इन सम्भावनाओं की संक्षिप्त घटना परक जानकारी बड़ी उपयोगी होगी।

5 अक्टूबर 1950 को लन्दन में एक भारतीय महिला शकुन्तला देवी, जिन्हें गणित की जादूगरनी (विजार्ड आफ मैथेमेटिक) कहा जाता है, टेलीविजन पर अपना कार्यक्रम प्रस्तुत कर रही थी। तभी एक सज्जन ने उन्हें एक गणित का प्रश्न हल करने को कहा। बिना एक क्षण का विलम्ब किये हुये उन्होंने कहा यह प्रश्न गलत है। यह प्रश्न ब्रिटेन के बड़े-बड़े गणिताचार्यों ने तैयार किया था, इसलिये सब लोग एकदम आश्चर्य में डूब गये-प्रश्न गलत कैसे हो सकता है? बी. बी. सी. कार्यक्रम के आयोजन कर्ता ने प्रश्न की जाँच कराई तो वह विस्मित रह गया कि प्रश्न सचमुच गलत है। उसने भी यह माना कि-हम जितना समझ पाये हैं, मन की शक्ति और सामर्थ्य उससे बहुत अधिक है।”

कंप्यूटर मशीन (संगणक) की आज बड़ी आश्चर्य की दृष्टि से देखा जाता है किन्तु मन की शक्ति की तुलना में उसका मूल्य और महत्व एक कौड़ी से अधिक नहीं है। यह लोगों ने तब जाना, जब श्रीमती शकुन्तला देवी से एक सज्जन ने पूछा-”8 फरवरी 1936 को रविवार था या शनिवार कोई और व्यक्ति होता तो इतनी गणना (कैलकुलेशन) करने में उसे पूरे दो घण्टे लगते, कम्प्यूटर भी 10-15 सेकेण्ड तो लेता ही, किन्तु शकुन्तला जी को बताते एक सेकेण्ड समय भी नहीं लगा होगा।

शकुन्तला देवी बेंगलोर के एक प्रतिष्ठित परिवार में जन्मी। अन्नामलाई विश्वविद्यालय के उपकुलपति श्री बी. एस॰ शास्त्री ने उन्हें “जीते जागते आश्चर्य का विशेषण दिया है। सिडनी (आस्ट्रेलिया) स्थित न्यू साउथ वेल्स विश्वविद्यालय में उनकी प्रतिद्वंद्विता 20 हजार पौण्ड मूल्य के संगणक (कम्प्यूटर) से हुई। यह कम्प्यूटर विद्युत चालित था और उसका आपरेशन प्रसिद्ध गणितज्ञ श्री आर॰ जी0 स्मार्ट और मेरी थार्नटन कर रहे थे, किन्तु जब भी कोई प्रश्न पूछा जाता था शकुन्तला उसका तुरन्त उत्तर दे देती थी, जबकि मशीन के उत्तर की प्रतीक्षा करनी पड़ती थी। शकुन्तला के उत्तर शतप्रतिशत सेंट-पर-सेंट सही पाकर वे सब चौंक पड़े। और कहने लगे-” सचमुच मन में ऐसी कोई विलक्षण क्षमता है, जिसका विकास भारतीय योग पद्धति से करके मनुष्य सर्वज्ञ बन सकता है।” शकुन्तला जी अब तक 42 अंकों की संख्याओं का 20 वा रूट (वर्गमूल) तक निकालने में सफल हुई हैं। वह गणित जगत् के लिये लोहा मनवाने जैसी बात है। किन्तु शकुन्तला जी की मान्यता है कि यह विकेन्द्रित मन की साधारण-सी शक्ति है मन की नाप-तोल करना कठिन है वह एक सर्वसमर्थ तत्व जैसा कुछ है।

इन्हीं बातों को देखकर ही वैज्ञानिक शरीर में आत्मा जैसी किसी सर्वव्यापक शक्ति के अस्तित्व की बात स्वीकार करने लगे हों, भले ही अभी उसका विस्तृत अध्ययन वे लोग न कर पाये हैं। अमेरिका के एक दिल बदल विशेषज्ञ डा० एम० डी० कुले ने चारमोट्सबिल (वर्जीनिया) में डाक्टरी का अध्ययन करने वाले सैकड़ों छात्रों के सामने बोलते हुए बताया कि “मनुष्य की आत्मा का मास मस्तिष्क में है। “उन्होंने मृत्यु के सम्बन्ध में अपना स्पष्ट कारण देते हुए बताया कि “मृत्यु एक अकेली घटना नहीं बल्कि वह एक प्रक्रिया है और वह मस्तिष्क के मरने के बाद आरम्भ होती है, शरीर के कई अंग जैसे दिन तो मृत्यु के कई मिनट बाद तक जीवित रह सकता है, किन्तु मस्तिष्क के अणुओं की चेतना समाप्त होते ही मनुष्य का जीवन समाप्त हो जाता है।”

इस बात को हमारे पितामह ऋषि और योगी काफी समय पूर्व जान गये थे। समाधि अवस्था में आत्म-चेतना को ब्रह्माण्ड ( खोपड़ी ) में चढ़ाकर बिना साँस लिये हुए कहीं भी दबे पड़े रहने के अनेक प्रयोग भारत में हुए है, उनका कहीं अन्यत्र वर्णन करेंगे यहाँ डॉ एम. डी. कुले की बात का समर्थन करते हुए यदि यह कहा जाये कि मनुष्य शरीर के प्रत्येक सेल के अन्दर जो चेतना है, उस सामूहिक प्रक्रिया का ही नाम मन या जीवन है और उसमें सर्वव्यापकता, सर्वज्ञता जैसे विलक्षण गुण भी विद्यमान् हैं।

योगवाशिष्ठ में भगवान् राम को वसिष्ठ ने बताया-

यथा बीजेषु पुष्पादि मृदौराशौ घटोयथा। तथान्तः संस्थिता साधो स्थावरेषु स्व वासना। -6।1 10।19,

एतच्चितशरोरत्वं विद्धि सर्वगतादयम्। - 3।40।20

चिच्छक्तिर्वासना बीज रूपिणी स्वायधमिणी। स्थिता रस तथा नित्यं स्थावरादिषु वस्तुष -6।1।10।23,

बीजेषूल्लास रूपेण आडयेन जड़रुपिषु। द्रव्येषु द्रव्यमावेन काठिम्येनेतरेषु च॥ -6।1।10।24,

प्राणी बीर्य रसान्तस्था संविज्जग्ंममाततम्। तनोति सतिकान्तस्यो रसः पुष्पफर्ल यषा॥ -6।2।28।18,

हे राम! जैसे बीज के भीतर पुष्प, डाल-पत्ते आदि मिट्टी में घड़े की सम्भावनायें छिपी रहती हैं, जड़ पदार्थों के भीतर भी वासना छुपी रहती है। जड़ की वासना की तरह ही संसार की सब वस्तुओं के भीतर चित्त (मन) विद्यमान् है। वह शक्ति सम्पूर्ण जड़-चेतन में वासना के रूप के सोई हुई उसके रस के रूप में सदैव वर्तमान रहती है। यह शक्ति बीजों में उल्लास, जड़ पदार्थों में जड़ता द्रव्यों में द्रव्य भाव और ठोस में ठोस भाव से बना रहता है। जिस प्रकार लता के भीतर रहने वाला रस ही फूल और फल आदि के आकार में विकसित होता है, उसी प्रकार प्राणियों के वीर्य के रस के भीतर वास करती हुई यह चेतन सत्ता ही सब वस्तुओं का विकास करती है।

इन पंक्तियों में शास्त्राकार ने जहाँ गहन दार्शनिक सत्य का उद्घाटन किया है, उसकी वैज्ञानिक व्याख्या करने का भी यत्न किया है। अर्थात् संसार में जितनी भी धातुएँ या पदार्थ है चेतना (मन) उन सब से सूक्ष्मतम है। वह यद्यपि मनुष्यों में वासना रूप में सोई रहती है, किन्तु यदि उसे संयमित कर लिया जाये तो मनुष्य अपने में उन सभी शक्तियों को विकसित देख सकता है, जिनकी कल्पना हम परमात्मा, ईश्वर या ब्रह्म में करते है। अर्थात् वासनाओं से उन्मुक्त मन, मन ही ईश्वर है। जो भी मनोभूमि में रम गया वह ईश्वर हो गया। नरतन में ऐसे अनेक महापुरुष भगवान् हुए हैं, जिनकी विलक्षण शक्तियों के बारे में इनकार नहीं किया जा सकता।

भारतवर्ष की बात नहीं करते-अमेरिका के अलाबामा राज्य में माड्स डेन नगर के समीप रहने वाले श्री फ्रेंक रेम्स में ऐसी ही एक विलक्षण शक्ति है, जो व्यक्ति में ईश्वरीय शक्ति के अस्तित्व को प्रमाणित करने में सहायक ही सिद्ध होगी।

श्री फ्रेंक रेम्स अँग्रेजी अच्छी तरह बोल सकता है, शेष दुनियाँ की भाषाओं से वह पूर्णतया अनभिज्ञ है किन्तु आप दुनियाँ की कोई भी भाषा किसी भी लहजे में बोले- बिना एक सेकेण्ड का अन्तर किये हुए वही शब्द उसी लहजे में आपके साथ बोलते चले जायेंगे ओठों की फड़कन देखकर भी कोई यह अनुमान नहीं लगा सकता कि यह व्यक्ति क्या बोलेगा, फिर यदि ऐसी भाषा का ज्ञान न हो जिसमें वक्ता बोले तब तो वह क्या कहेगा, इसका बिल्कुल भी अनुमान नहीं लगाया जा सकता पर आप चाहे पीठ पर कर खड़े हो जायें या बीच में पर्दा लगाकर फ्रेंक रेन्स आपके साथ ही उन शब्दों को दोहराते हुए (कोन्सीडेन्स) चले जायेंगे देखने में ऐसा लगेगा जैसा एक ही ग्रामोफोन से दो लाउडस्पीकरों का सम्बन्ध हो। टेलीविजन के कुछ कार्यक्रमों में वक्ता बोलने के साथ गाने भी लगे तो फ्रेंक रेन्स ने उसी तान और स्वर में गा भी दिया। एक बार विख्यात हास्य अभिनेता जेरी ल्यूक्सि ने एक कार्यक्रम संचालित किया, उसमें लोलो ब्रिगिडा ने भी भाग लिया। उक्त महिला कई भाषायें बोल सकती थी। फ्रेंक रेन्स उन सब भाषाओं को दोहराते गये। लोलो ब्रिगिडा ने कुछ बनावटी शब्द जिनका न तो कुछ अर्थ हो न किसी भाषा के हों- बोलना प्रारम्भ किया तो लोग आश्चर्यचकित रह गये कि फ्रेंक रेन्स वह शब्द भी उसी तरह में स्वर मिलाकर बोलता चला जा रहा है।

दूसरा अमुक शब्द बोलेगा इसकी इन्द्रियातीत जानकारी फ्रेंक रेन्स को क्यों हो जाती है। भाषा न जानने पर भी वह अनजाने शब्द किस तरह बोल लेता है यह तो विलक्षण आश्चर्य है, जिसकी व्याख्या करने में डाक्टर वैज्ञानिक और अनेक विशेषज्ञ भी असफल रहे है। फ्रेंक रेन्स कहते हैं, मैं स्वयं भी नहीं जानता कि इस विलक्षण शक्ति का स्रोत क्या है पर यह भारतीय तत्व वक्ताओं और सिद्ध पुरुषों के लिए बहुत छोटी-सी बात है। मन की एक धारा का विकास ही इस सामर्थ्य का आधार है और कुछ हो या ना हो पर इससे इतना तो सिद्ध हो ही जाता है कि मन में कोई ऐसी अज्ञात शक्ति है अवश्य जो दूसरों के मन में जो कुछ है और जो कुछ नहीं भी है, यह सब जान सकती है।

मन में ऐसी-ऐसी असंख्य सामर्थ्यों का भण्डार छुपा हुआ है, मन जीवन है, मन ही सब सिद्धियों का साधन है, मन ही भगवान् है, मन का पूर्ण विकास ही एक दिन मनुष्य को अनन्त सिद्धियों, सामर्थ्यों का स्वामी बना देता है पर इसके लिए गहन संयम, साधना और तपस्या के बिना एक कदम भी आगे नहीं बढ़ा जा सकता।

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