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Magazine - Year 1969 - Version 2

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भगवान् की दया और करुणा

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मनुष्य एक बार जब धर्मपथ पर चल देता है तो उसके जीवन के तार झनझना उठते है। हलचल छा जाती है। विचार मंथन उठ पड़ता है। विचारों, संकल्पों, कभी आशा कभी निराशा, आशंका और विश्वास के थपेड़ों में झूलता मनुष्य अपने आपको कुछ उसी तरह का असहाय अनुभव करने लगता है, जिस तरह घनघोर जंगल में अंधेरी राज को भटका हुआ पथिक असहाय अनुभव करता है।

तब जिज्ञासु उस स्थिति में यह तो अनुभव करता है कि मैं अनाम हूँ, नाम तो मेरी देह का है देह नष्ट होने के साथ-साथ नाम भी समाप्त हो जायेगा, मेरे गुण, विद्याएँ, कलायें और क्षमताएँ जिनसे अनेक बन्धु-बान्धवों का कुछ अपेक्षा है, वह भी शरीर के ही विशेषण हैं। जिन्हें हम अपना पुत्र, पति, माता-पिता पत्नी, मित्र सुहृद सखा मानते हैं वह भी शरीर के ही नाते-रिश्ते हैं। मेरे अन्दर जो चेतना काम कर रही है, न उसका कोई भाई है, न बन्धु, माता-पिता साले-बहनोई श्वसुर-दामाद ताऊ-चाचा सब काल के गाल में समा जाने वाली देहें थीं। उन सगों का मुझ चेतन के साथ संकल्प-सम्बन्ध होने पर भी कोई सम्बन्ध नहीं है। मैं नितान्त अकेला एक निर्गुण निराकार हूँ, ऐसी मान्यता परिपुष्ट होती चली जाती है, उसकी जो अपने जीवन का दृष्टिकोण भौतिक जगत् से हटाकर आध्यात्मिक संस्करणों से जोड़ लेता है।

भीतर की यथार्थता का प्रकट होना और उस घुमड़ती हुई द्वन्द्वपूर्ण स्थिति से संसार के साथ ताल-मेल बैठा लेना दोनों विरोधी बातें है, दोनों में टक्कर अवश्य होती है। इस ही आध्यात्मिक भाषा में अग्नि परीक्षा कहा जाता है। जिसने भी भगवान् के नाम पर अपना कदम आगे बढ़ाया उसके पैरों में काँटे अवश्य चुभे। अपनी मोह-माया वासना, क्रोध आदि से ही टक्कर नहीं लेनी पड़ी वरन् उन सब का विरोध भी अवश्य सहन करना पड़ा जिनके स्वार्थ अपने से टकराते थे।

पिता का स्नेह इसलिये था कि बच्चा बड़ा होकर कुछ कमाएगा, प्रतिष्ठा अर्जित करेगा, उससे अपने परिवार की महत्त्वाकाँक्षाओं की पूर्ति होगी। सुख-सौभाग्य बढ़ेगा पर जब वह यह देखता है कि वही पुत्र आत्मा, परमात्मा, समाज-सेवा आदि की बातें करता है तो उसे अपना ही पुत्र शत्रु जैसा दीखता है। संसार में ऐसे पिता थोड़े हुए हैं, ऐसी माताएँ नगण्य हुई है, जिन्होंने अपने पुत्र को तिलक लगाकर यह कहा हो-वत्स जा तूने जिस पथ पर पाँव बढ़ाया है, वह जीव का परम पुरुषार्थ है, तू, उस पर निष्ठापूर्वक बढ़कर और ऐश्वर्य प्राप्त कर, तेरा स्मरण करते हुए हम भी संसार सागर से उन्मुक्त हो जाएँगे

अधिकांश तो हिरण्यकश्यप और राणा कुम्भाराव ही हुए हैं, जिन्होंने अपने बेटों को, पत्नी को मारा-पीटा सताया, विषय दिया और उस पुण्य-पथ से खींचकर दैत्य और दुर्भाग्य के फर्श पर ला पटका। बाहुल्य ऐसे ही लोगों का रहा है, अन्यथा आज संसार जिस अनात्मा आस्थाओं पर झुलस रहा है, वह स्थिति पैदा न हुई होती। भगवान् की शरण लेने वाले हर लोक-सेवी को लोगों की भर्त्सना ही उपलब्ध हुई है, यह संसार का नियम-सा बन गया है।

देखने में ऐसा लगता है कि यह भगवान् की अकृपा है, किन्तु यदि गहराई तक देखें तो इससे बढ़कर परमात्मा का और कोई अनुग्रह हो नहीं सकता। अपने पुत्र को तरसते, तड़पते, मार खाते देखकर भी धैर्यपूर्वक तटस्थ बने रहने का साहस भी परमात्मा ही कर सकता है कोई और कमजोर व्यक्ति नहीं। भगवान् उसकी सहायता के लिये तत्पर न रहते हों, सो बात नहीं, उन्हें तो कभी-कभी वाहन-विहीन दौड़ना पड़ा। वे अनेक बार नंगे पावों भागे है और अपने भक्त को बचाया है पर ऐसा अपवाद ही है अधिकांश तो वे अपने भक्त को परीक्षा की अग्नि में झुलसते हुए देखते रहे, बोले कुछ नहीं।

इसमें जीव के पुरुषार्थ को जागृत करना ही भगवान् का उद्देश्य होता है। जीव की आन्तरिक गरिमा और सर्वव्यापकता की अनुभूति करना भी उसका लक्ष्य रहता है। मीरा के अन्तःकरण से वह संगीत कहाँ से आता, यदि उसे मारा-पीटा और तड़पाया न गया होता, सूरदास की पीड़ायें न उठतीं तो प्रेम और वात्सल्य की मार्मिक अनुभूति जो उनके प्रत्येक पाठक को रोमांचित कर देती है, कहाँ से प्रवाहित होती, भक्त नरसी, प्रहलाद, निमाई पण्डित को वह तेज कहाँ से मिलता, जिसने बार-बार भारतीय जीवन में आस्तिकता और ईश्वर परायणता के भावों को पुनर्जीवित किया है।

भगवान् आकर सहायता कर जाता तो भक्त को प्रेम का आनन्द न मिलता वरन् उसे अहंकार और आसक्ति ने घेरा डालकर पुनः संसार चक्र में खींच लिया होता। जीव की तड़प और उसकी आधि भौतिक कथाएँ और उस अवधि में भगवान् का चुप रहना तो भक्त के कल्याण का ही कारण है। उस कठिन घड़ी में ही आत्म-ज्ञान का प्रकाश फूटता है। मैं कौन और मेरी साधना क्या है, ऐसी कल्याणकारक जिज्ञासाओं की पृष्ठ-भूमि न परिपक्व होती, यदि जीव को तड़पाया, पीड़ित ओर, परेशान न किया गया होता। जल-जलकर ही तो उसकी ईश्वर-निष्ठा प्रगाढ़ होती है और तभी तो वह करुणा का उद्गार फूटता है- “ है प्रभु! सब तुम्हारी ही इच्छा की पूर्ति है। मेरे प्रियतम देव! मेरा स्वरूप और मेरा ज्ञान सब तुम्हारी ही तो प्रचेतना है। हे मेरे जीवन प्राण मेरा यश और विस्तार सब तुम्हारे ही सुस्नेह की तो सुगन्ध है। तुम्हीं मेरे प्रेमाधार हो, तुम्हारे बिना अब मैं रह कैसे सकता हूँ। तुम्हारे दर्शन किये बिना में सुश्री कैसे हो सकता हूँ?

बेटे को दण्ड दिया जाता है तो वह अपने नन्हे-नन्हे हाथ जोड़कर पिता से क्षमा-याचना ही तो करता है। वह यही तो कहता है-” पिता जी अब मैं यह भूल नहीं करूँगा, मैं तुम्हारी शरण हूँ, अब मुझे मत मारो।” पिता दण्ड भी देता है और हृदय से रोता भी जाता है। दण्ड इसलिये देता है कि पाप-वासना और बुराई का धैर्य छूट जाये, रोता इसलिये है कि उसे पता है वह चोट पुत्र पर नहीं उसी पर हो रही है। बेटा कोई और तो नहीं हैं वह तो मेरे अन्तःकरण से निकला हुआ टुकड़ा हैं उसकी देह, उसका मन, उसके प्राण सब मुझसे ही निर्गत है, इतनी दया और करुणा होते भी वह दण्ड प्रक्रिया बन्द नहीं करता। जीव के, पुत्र के कल्याण के लिये हृदय को कठोर बनाकर कष्ट देने वाले भगवान् के साहस की सराहना की जाये। उस पीड़ा और विपन्नता को तो वही जानता है।

कष्ट पाकर दूसरे के कष्टों की अनुभूति होती है, उस स्थिति में भक्त के हृदय में भी प्रतिरोध की नहीं करुणा और दया की निर्झरिणी फूटती है। उसको संसार में सब कुछ अपनी ही स्वरूप दिखाई देने लगता है। और उससे अपना अहंकार समाप्त होने लगता है। अहंकार ही तो आसक्ति, आसक्ति ही तो बन्धन, बन्धन ही तो दुःख का कारण था, यह अहंकार ही न रहा तो कैसी ईर्ष्या, कैसा द्वेष, मोह और कैसी ममता सब कुछ भगवान् का अपना हो गया। जब अपनी ममता ही समाप्त हो गई तो सारा विश्व ही अपना हो गया, सब अपने ही आत्म स्वरूप प्रिय परिजन से जान पड़ने लगें। अपना मोह समाप्त होते ही सम्पूर्ण जगत् के प्रति प्रेम का निर्झर प्रवाह फूट पड़ता है।

भगवान के प्रति प्रेम का ही दूसरा स्वरूप विश्व-प्रेम है। मन में तस्वीर उस प्यारे की ही होती है, जिस में सौंदर्य ही सौंदर्य, शिव ही शिव और सत्य ही सत्य है। शिव, सत्य और सुन्दरता ही तो विश्व के कण-कण में व्याप्ति है तो वही अन्तःकरण वाली तस्वीर बाहर भी झलकने लगती है। सबमें सौंदर्य, सत्य और शिव के दर्शन करने का आनन्द वही प्रेमी जानता है, जो भगवान् को सच्चे हृदय से प्यार करता है। उसे भगवान् को ढूँढ़ने के लिये और कही नहीं जाना पड़ता जब चाहे किसी भी पीड़ित हृदय, निराश अन्तःकरण और इसकी आत्मा से अपनी आत्मा को मिलाकर वह उस समय सौंदर्य स्रोत का पान करता है।

पाने और सब कुछ पाने की पुकार करने वाला भक्त जब यह देखता है कि भगवान् की शक्तियाँ देती है निरन्तर देती ही देती हैं, तब उसे देने के सुख का पता चलता है। भूमि को सींचते हुए मेघों की व्यापकता, विश्व-भुवन को प्रकाश से भरते हुए भगवान सूर्य की व्यापकता संसार को जल देन के लिये जलने वाले समुद्र की व्यापकता को देखकर भक्त की अपनी तुच्छता और संकीर्णता का मैल जल जाता है, तब उसे अपने प्रति किया गया सांसारिक छल अपनाकर भी उपकार जैसी ही दीखता है। वह यह अनुभव करता है कि संसार में सब कुछ करुणा ही करुणा दया ही दया रही होती तो सम्भवतः उसे अपने अहंकार है छुट्टी न मिलती। वह उन कष्टों की पीड़ाओं को भगवान् का वरदान मान लेता है, जिसने उसे भगवान् को भरी भावनाओं से पुकारने का अवसर प्रदान किया। भगवान् के लिये जब तक वैसी पुकार अन्तःकरण से नहीं फूटती जैसी प्रेमिका को अपने प्रेमी के मिलन की इच्छा, तब तक जीवात्मा के बन्धन मुक्त नहीं होते।

इसलिये कष्ट और पीड़ाओं से भरे संसार में यदि सहारे के लिये, पुकारने के लिये कोई सुहृदय मित्र है, पिता है तो परमात्मा ही है, वही हर जन की पुकार सुनता है, वही हर व्यक्ति के कष्ट दूर करता है। मन्त्र दृष्टा ने जब ऐसी ही पुकार लगाई थी, तभी परमात्मा ने उस पर अपने प्रेम की शीतल छाया आच्छादित कर दी थी।

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