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Magazine - Year 1969 - Version 2

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कामनाओं और वासनाओं का सदुपयोग

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कामना और वासनाओं को त्याज्य बतलाया गया है। कहा गया है कि इनके रहने से मनुष्य सुख-शांति और आत्म-सन्तोष में बाधा पड़ती है। इनकी कोई सीमा नहीं होती, यह रक्त-बीज की भाँति एक से दूसरी उत्पन्न ही होती रहती हैं। ऐसी दशा में उनकी पूर्ति सम्भव नहीं निदान मनुष्य को अशान्ति एवं असंतोष के हाथ जाना पड़ता है।

बताया जाता है कि कामनाओं के कोष तथा उनकी अतृप्ति के फलस्वरूप मनुष्य का मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य चौपट हो जाता है, उसको अनेक प्रकार के विकार घेर लेते हैं। बात भी कुछ ठीक ही है। मनुष्य कामना करता है। उनके लिये पूरी तरह प्रयत्न करता है और यदि सत्पथ से काम चलता नहीं दीखता तो विपथ पर भी पग रख देता है। दिन-रात भरना-खपना पथ-विपथ पर दौड़ना आदि ऐसी क्रियायें हैं, जो मनुष्य का स्वास्थ्य समाप्त कर देती है। उसे अन्दर से खोखला बना देती है। उसका मानसिक पतन कर देती है। निद्रा, लाँछन, अपवाद, तिरस्कार, सरकार समाज और लोक लज्जा का भय उसकी भूख हर लेता है, उसकी निद्रा नष्ट कर देता है। अशान्ति, चिन्ता ओर आशंकाओं के भूत-प्रेत उसके मनोमन्दिर में अड्डा जाम लेते हैं। इतना सब कुछ सहने पर भी जब उसकी मनोकामनायें पूरी नहीं होती तो उसके विक्षोभ और अशान्ति की सीमा नहीं रहती। कभी-कभी मानसिक संतुलन तक बिगड़ जाता है और मनुष्य पागल तक हो जाता है। निःसन्देह कामनायें बड़ी भयानक होती हैं।

यही हाल इन्द्रिय भोग की वासना का भी है। इसकी तृप्ति भी कभी नहीं होती, बल्कि तृप्ति के प्रयास में वह बढ़ती ही है। इसकी अनियन्त्रित तृष्णा मनुष्य को इस सीमा तक पतित कर देती है कि वह सामान्य मर्यादाओं का ही उल्लंघन करने लगता है। भोगात्मक वासना से कुछ ही समय मनुष्य खोखला होकर निर्जीव हो जाता है। उसकी निराश और निरुत्साह यहाँ तक बढ़ जाती है कि फिर उसका किसी बात में मन नहीं लगता। ड़ड़ड़ड़ में मानसिक ड़ड़ड़ड़ बढ़ जाता है और मस्तिष्क का धरातल हल्का हो जाता है, जिसने उसे अच्छी बात भी कड़वी लगने लगती है। बात-बात में लड़-झगड़ पड़ने का स्वभाव बन जाता है। क्षण-क्षण पर क्रोध करता और झल्लाता रहता है। इस प्रकार का निर्बलता जन्म क्रोध करता नाना प्रकार के संकटों की जड़ होती है।

वासना प्रधान इन्द्रिय लोलुप की व्यभिचारी और आचरण हीन होते देर नहीं लगती। उसके मन के साथ उसकी दृष्टि भी दूषित हो जाती है। स्त्री जाति को माता और बहन के रूप में देख सकता उसके नसीब में नहीं होता। वह जिसकी और भी देखता है, भोग्या की ही दृष्टि से देखता। जिसके लिये वह समाज में निन्दा, अपवाद और असम्मान का भागी बनता है और अधिक आगे बढ़ जाने पर अपनी इज्जत खोता ओर राजदण्ड तक का भागी बनता है। भोग वासना मनुष्य में श्वान वृत्ति जमा देती है, उसे एक स्थान, अपने घर पर तृप्ति नहीं होती जगह-जगह कुत्तों की तरह मारा फिरता है। अवसर पाते ही इसी प्रवंचना में लग जाता है, जिसके फलस्वरूप ड़ड़ड़ड़ के साथ विभिन्न प्रकार के रोग पा लेता है। और तब जीवन के शेष दिन पश्चाताप की आग में जल-जलकर पूरे किया करता है। निःसन्देह वासना भयंकर वृत्ति है। वह मनुष्य का जीवन नारकीय वासना में बदल कर रख देती है।

भागों की भयंकरता समझने के लिए महाराज ययाति का ही उदाहरण काफी है। जैसे तो न जाने रावण, शिशुपाल, जरासन्ध और दुर्योधन जैसे कितने शक्तिमान और समर्थ लोग इस इन्द्रिय भोग की लिप्सा में लिपटकर कीट पतंगों की मौत मरे और अपना नाम कलंकित करके इस संसार से चले गये हैं। जब ऐसे-ऐसे सत्ता-धारियों की वह दशा हो गई है, तब जन-साधारण की वासनाओं के कारण क्या कुमति हो सकती है, इसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता।

महाराजा ययाति वैसे तो बड़े विद्वान् और ज्ञानवान राजा थे। किन्तु दुर्भाग्यवश उन्हें वासनाओं का रोग लग पड़ा और वे उनकी तृप्ति में निमग्न हो गये। स्वाभाविक था कि ज्यों-ज्यों वे इस अग्नि में आहुति देते गये, त्यों-त्यों का त्यों बना रहा। तृप्ति न हो सकी और वासनाओं का बवण्डर ज्यों का त्यों बना रहा। इस स्थिति में जाकर उनके वासना प्रधान हृदय में अशान्ति एवं असमर्थता की घोर पीड़ा रहने लगी। बुद्धि भ्रष्ट हो गई सारा ज्ञान जबाब दे गया। वे वासनाओं के बन्दी बनकर यहाँ तक पतित हो गये कि अपने पुत्रों से यौवन की याचना करने लगे। अनेक पुत्रों ने तो उनकी इस अनुचित इच्छा का आदर न किया, किन्तु छोटे पुत्र को उन पर दया आ ही गई और उसने उनके अशक्त बुढ़ापे से अपना यौवन बदल लिया। इससे प्रसन्न होकर राजा ययाति ने उसे अपने सारे पुण्य उपहार में दे दिये और फिर वासनाओं की तृप्ति में लग गये। जीवन भर लगे रहे, किन्तु सन्तोष न हो सका। सारे सकृत् खोये, बेटे के प्रति अत्याचारी प्रसिद्ध हुए, परमार्थ का अवसर खोया और मृत्यु के बाद युग-युग के लिए गिरगिट की योनि पाई, किन्तु वासना की पूर्ति न हो सकी। पाण्डू जैसे बुद्धिमान राजा पीलिया रोग के साथ वासना के कारण अकाल मृत्यु को प्राप्त हुये। शान्तनु जैसे राजा ने बुढ़ापे में वासना के वशीभूत होकर अपने देवव्रत भीष्म जैसे महान् पुत्र को गृहस्थ सुख से वंचित कर दिया। विश्वामित्र जैसे तपस्वी ओर इन्द्र जैसे देवता वासना के कारण ही व्यभिचारी और तप-भ्रष्ट होने के पातकी बने। वासना का विषय निःसंदेह बड़ा भयंकर होता है, जिसके शरीर का शोषण पाता है, उसका लोक-परलोक पराकाष्ठा तक बिगाड़ देता है। इस ड़ड़ड़ड़ से बचे रहने में ही मनुष्य का मंगल है।

इन तथ्यों का उदाहरणों के आधार पर कामना एवं वासनाओं को त्याज्य ही मानना होगा। किन्तु इनका एक पक्ष और भी है। यह कामनाओं का ही चमत्कार है, मनुष्य की इच्छा-शक्ति ओर अभिव्यक्ति है, जिसको हम संसार उन्नति, विकास और परिष्कार के रूप में देख रहे हैं। यह इच्छाओं ही की प्रेरणा तो है कि मनुष्य नित्य नये आविष्कार कर प्रकृति पर विजय प्राप्त करता जा रहा है। यह कामनाओं का ही तो चमत्कार है कि आज हम एक से बढ़कर सुख साधनों का उपयोग कर रहे हैं। यदि कामनाओं का अस्तित्व न होता तो क्या मनुष्य इतनी उन्नति कर सकता था, जो आज दिखलाई दे रही है। कामनाओं से प्रेरित होकर ही तो मनुष्य परिश्रम एवं पुरुषार्थ किया करता है। यदि कामनायें न हो, इच्छाओं का तिरोधान हो जाये तो मनुष्य भी जड़ बनकर पत्थर प्रस्तर की तरह यथास्थान पड़ा-पड़ा जीवन बिता डाले।

दान-पुण्य परमार्थ और परोपकार की प्रेरणा-कामना ही तो दिया करती है। अर्थ, भ्रम, काम, मोक्ष की खोज कामनाओं से ही प्रेरित होकर की गई है। देश को स्वतन्त्र कराने की कामनाओं की प्रेरणा ने ही वीरों का निर्माण किया और वे मातृ-भूमि की वेदी पर हँसते-हँसते उत्सर्ग हो सदा-सर्वदा के लिए अमर हो गये। यह ईश्वर प्राप्ति की कामना ही तो है, जो मनुष्य को भक्त, और तपस्वी बना देती है। यश-पुण्य और लोक-मंगल की कामना से ही लोग जनसेवा और लोक-रंजन में नियुक्त होते हैं। उन्नति की कामना उसके पुरुषार्थ को जमाकर समाज में आदर और श्रद्धा का भोजन बना देती है। मनुष्य सारे श्रेय, सारी उन्नति ओर सारा विकास कामनाओं के अस्तित्व पर ही निर्भर है। कामनायें मनुष्य जीवन की प्रेरणा और उन्नति का हेतु है, इन्हें सब प्रकार से ड़ड़ड़ड़ नहीं माना जा सकता।

यही बात वासना के विषय में भी है। वासना के कारण ही नर-नारी पति-पत्नी के प्रेम की वृद्धि और आत्मीयता की पुष्टि होती है। यह वासना ही है जो मनुष्य को नारी का श्रृँगार करने और उसको प्रसन्न रखने के लिए उपादान एकत्र कराने के लिये संसार पथों पर दौड़ाया करती है। वासना शून्य मनुष्य मृत्यु के समान हो जाता है। उसकी ड़ड़ड़ड़ कलात्मक और श्रृँगार वृत्तियाँ मर कर नष्ट हो जाती है। यह वासनाओं का ही चमत्कार है कि मनुष्य विवाह कर, घर बसाकर और विभिन्न प्रकार के आयोजन कर एक सभ्य, सुसंस्कृत और स्थिर जीवन-यापन का सुख लाभ करता है। यदि वासनाओं की प्रेरणा न रही होती संसार में जीवों का क्रम बन्द हो जाता। प्रजा की उत्पत्ति का आधार वासना ही है। वासना के मार्ग से ही मनुष्य पुत्रवान् होता है, समाज को नागरिक और संसार को मनुष्य मिलते हैं। यदि आज मनुष्यों के हृदय में वासनाओं का नितान्त अभाव हो जाये तो कल ही चलता हुआ संसार चक्र जाये और यह सुन्दर चहल-पहल मुखरित विश्व श्मशान में परिवर्तित हो जाये। मनुष्य जीवन में वासना का बड़ा ही महत्त्वपूर्ण स्थान है। इन्हें सर्वथा हेय अथवा त्याज्य नहीं माना जा सकता।

इस प्रकार एक ओर तो कामनायें और वासनायें मनुष्य जीवन के लिये बड़ी ही भयंकर और त्याज्य है ओर दूसरी और उसका अनिवार्य महत्व है तो आखिर इनका यह भेद क्यों है और क्यों यह ग्राह्म्र अथवा त्याज्य दो प्रकार से मानी और कही जाती है?

उत्तर स्पष्ट है कि जो कामनायें एवं वासनायें विकृत ओर भ्रांतिमूलक है, वे सर्वथा त्याज्य है और जो सुन्दर, उपयोगी और सृजनात्मक हैं वे ग्राह्य एवं महत्त्वपूर्ण है। जिन कामनाओं में परोपकार, परमार्थ और पुण्य की प्रेरणा रहती है, जो दूसरों की सेवा, सहायता और उन्हें सुख पहुँचाने की प्रेरणा देती है, जिनके पीछे संसार को सजाने, सम्पन्न करने और अधिकाधिक सरल बनाने का उद्देश्य रहता है, वे ग्राह्य एवं माननीय मानी गई हैं। पुरुषार्थ करने, दान देने और त्याग करने की कामनायें पुण्यवती कामनायें होती हैं, जिसको यह प्राप्त हो जाती है, उसे भाग्यवान ही मानना चाहिये। परहित, पर पालन आत्मोत्सर्ग, त्याग, बलिदान और अपरिग्रह की कामनाओं को सदा सम्मान की दृष्टि से देखा गया है। इन्हीं कामनाओं की पूर्ति में प्रयत्न करने वाले ही तो संसार में महापुरुष, महानुभाव और महात्माओं के नाम से पुकारे और पूज जाते हैं। ऐसी कामनायें सर्वथा ग्राह्य और पालनीय ही है।

इसके विपरीत जिन कामनाओं के पीछे अपना स्वार्थ, दूसरों का अहित और शोषण संग्रह, कृपणता, प्रदर्शन लोकेषणा आदि के हीन भाव प्रेरणा देते हैं वे विकृत एवं अपवित्र कामनायें हैं। इनका त्याग ही उचित माना गया है।

इसी प्रकार जो वासनायें इन्द्रिय भोग तक ही सीमित हैं, जिनका एक मात्र उद्देश्य व्यभिचार ओर काम सेवन है, उनका त्याज्य ही माना गया है। भोग-विलास के लिये परिवार बसाने की कामना भी एक प्रकार से व्यभिचार वृत्ति ही है, जो किसी प्रकार की उचित नहीं ठहराई जा सकती।

किन्तु यदि इसी वासना को परिमार्जित कर सत्संतान, दाम्पत्य प्रेम, नर-नारी की नैसर्गिक अनुभूति, ड़ड़ड़ड़ पालन का आधार बना लिया जाये तो यह सर्वथा मान्य और ग्राह्य बन जाती है। जो महानुभाव इस इच्छा से वासना को कर्त्तव्य समझकर प्रश्रय देते हैं उन्हें समाज को एक अच्छा नागरिक, एक सुशील प्रतिनिधि और परम्परा में एक में एक सुन्दर कड़ी प्रदान करना है, वे सर्वथा प्रशंसनीय ओर आदरणीय ही माने जायेंगे, उन्हें अपनी उस वासना की तृप्ति के लिये निन्दनीय नहीं कहा जा सकता। जहाँ इन्द्रिय लोलुपता के रूप में वासना हेय और त्रग्राहृा मानी गई है, वहाँ यदि उसकी पारिवारिक उद्यान सजाने, दाम्पत्य-जीवन को अधिक सरस ओर सार्थक बनाने, सृष्टि क्रम को जारी रखने, पारस्परिक आत्मीयता बढ़ाने, एक-दूसरे की सेवा, प्रेम और स्नेह के लिये अपनाया गया है तो वह उचित ही कहीं जायेगी।

सारांश यह है कि जिन कामनाओं एवं वासनाओं के पीछे ओर इन्द्रिय लोलुपता वास करती है, वे सर्वथा त्याज्य ही है। इस प्रकार की कामनायें एवं वासनायें व्यक्ति, समाज और संसार के लिये अहितकर ही हैं। किन्तु जिन कामनाओं और वासनाओं के पीछे परोपकार पारस्परिकता, सहायता, सहयोग पुण्य परमार्थ ओर आत्मीयता की भावना भरी रहती है, जो मनुष्य को उन्नत और अधिकाधिक विकसित एवं आदर्शवादी बनने की ओर प्रेरित करती हैं, वे सर्वथा प्रशंसनीय और ब्राह्म मानी गई है। मनुष्य उनका अन्तर समझकर उनका आनन्द से इसमें कोई अहित ओर अमंगल नहीं है।

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