• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • आन्तरिक सामर्थ्य ही साथ देगी
    • भगवान् की दया और करुणा
    • स्थायी सुख-शांति और प्रसन्नता (kahani)
    • सर्वव्यापी आत्मा की सर्वज्ञता
    • आत्मा में परमात्मा का निकटतम अनुभूति
    • सारा संसार एक बिन्दु पर
    • परोपकार
    • अपनी शक्तियाँ सही दिशा में विकसित कीजिए
    • मनुष्य देह में ब्रह्म-वैवर्त
    • अभाव का दुःख-सन्तोष का सुख
    • विचार ही चरित्र निर्माण करते हैं
    • भगवान् बुद्ध
    • शक्ति नहीं, करुणा जीतेगी
    • सुन्दरता और लज्जा
    • सौंदर्य का मूल स्रोत तलाश करें
    • सन्त सुकरात
    • विलक्षण मानसिक शक्तियाँ और उसका आधार
    • फसल बेचने के लिए नहीं
    • जीवन-मुक्ति का अधिकार
    • मनुष्य-अनन्त आकाश का क्षुद्रतम अंश
    • पर्वत की चुनौती
    • प्रगति पथ के आन्तरिक अवरोध
    • सुरघु की समाधि
    • महाशक्ति कुण्डलिनी और उसका जागरण
    • असत्य का सम्मान
    • पात्रत्व की परीक्षा
    • कामनाओं और वासनाओं का सदुपयोग
    • गायत्री-साधना - गायत्री महाशक्ति और उसकी सुविस्तृत ‘माया’
    • अपनों से अपनी बात- - (2) हमारे प्रेम साधना और उसकी परिणति
    • ईश्वर का प्रतिबिम्ब प्रतिबिम्ब प्रेम
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Magazine - Year 1969 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
SCAN TEXT


गायत्री-साधना - गायत्री महाशक्ति और उसकी सुविस्तृत ‘माया’

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 27 29 Last
गायत्री माता केवल पूजा, उपासना का -जप करने का-छोटा-सा मंत्र मात्र नहीं है। वह इस विश्व ब्रह्माण्ड की एक सर्वोपरि शक्ति है। उस शक्ति के साथ उपासना के माध्यम से हम अपना संपर्क बना देते हैं तो संपर्कजनय लाभ उठाने का सुअवसर प्राप्त करते हैं। उपासना में जितना समय लगता है, उसकी तुलना में कहीं अधिक लाभ हम अपने भीतर उस संपर्क की ऊष्मा एवं शक्ति के संपर्क से ज्ञान और धनवानों के संपर्क से धन प्राप्त करने के सुअवसर सहज ही मिलते रहते हैं फिर सर्वशक्तियों की उद्भूत गायत्री माता के संपर्क से हमें कुछ भी लाभ न मिले, ऐसा नहीं हो सकता।

किन्तु वहीं न मान बैठना चाहिये कि गायत्री का उपयोग उपासना में ही है या वह इतने भर काम के लिये अवतरित हुई है। वस्तुतः इस महाशक्ति के प्रभाव एवं प्रकाश में सारा ब्रह्माण्ड गतिशील हो रहा है। प्राणियों की प्राण-शक्ति जो बीच रूप में सुषुप्तावस्था में-पड़ी रहती है, उसका जागरण, पोषण और अभिवर्धन इसी महत्व के प्रभाव से होता है। जड़ जगत् में जो अणु हलचल दृष्टिगोचर होती है और प्रत्येक पदार्थ गतिशील दिखाई देता है, उसके मूल में भी वहीं महाशक्ति काम कर रही है। आकर्षण-विकर्षण के ऋण बन-द्वन्द्वात्मक जितने भी विधान एवं संचरण प्रकृति के अन्तराल में काम कर रहे हैं उनके पीछे एक अति प्रचण्ड शक्ति काम कर रही है। उसकी इच्छा एवं प्रेरणा इस जगत को वर्तमान रूप में प्रतिष्ठित किये हुए है। उसी सत्ता केन्द्र का नाम गायत्री है।

यह जगत गायत्री मय है। यों वह जड़ रूप में पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश-पंच तत्त्वों से बना हुआ है। चेतन रूप से सत्, रज, तम- तीन गुणों से विनिर्मित प्रतीत होता है पर इस तत्व और मुख ड़ड़ड़ड़ के भीतर एक ऐसी शक्ति काम कर रही है जिसका वर्णन अनिर्वचनीय है। उसकी गति सर्वत्र है। निम्न ने निम्न और उच्च से उस स्तर पर हो रही गतिविधियों के पीछे जिसका सर्वतोमुखी अस्तित्व एवं प्रभाव दीख पड़ता है, उसका ठीक से विवेचन और अनुभव कर सकना मनुष्य की स्वल्प बुद्धि मर्यादा के अंतर्गत सम्भव भी नहीं है।

फिर भी जिज्ञासा तो मनुष्य का स्वभाव है। बहुत जानना भी चाहता है कि वह शक्ति आखिर है क्या-जिसके प्रभाव से यह समस्त जगत् निर्जीव से सजीव बना है, विभिन्न स्तर की गतिविधियों का अद्भुत ड़ड़ड़ड़ दृष्टि गोचर होता है। इस जिज्ञासा का समाधान देवी भागवत् के माध्यम से उस ड़ड़ड़ड़ शक्ति ने स्वयं ही दिया।

पदार्थ विज्ञान वेत्ता उसे आदर, फोर्स और ड़ड़ड़ड़ नाम से पुकारते है। अध्यात्म क्षेत्र में उसे पूरा और अपरा प्रकृति कहकर संबोधित किया जाता है। चेतना और भावना क्षेत्र में इस शक्ति के प्रभाव की जो मानवीय प्रतिक्रिया होती है उसे ‘माया’ कहते हैं। पेट ठीक न होने पर खाया हुआ उत्तम भोजन भी जिस विकार उत्पन्न करता है, उसी प्रकार अवास्तविक एवं अज्ञान ग्रस्त दृष्टिकोण वाले व्यक्ति उस आलोक की प्रतिक्रिया उल्टी ग्रहण करते हैं ओर वासना, तृष्णा के माध्यम से उसका उपयोग करने के लिये लालायित हो उठते हैं। उल्टा अनुभव उल्टे काम करने में प्रेरणा देता है। फलस्वरूप दुःख दारिद्र एवं शोक-संताप से भरा जीवन यापन करने के लिये ड़ड़ड़ड़ पड़ता है।

इस माया से छुटकारा पाने के लिए अध्यात्म शास्त्र में बहुत विस्तार से वर्णन है। इस वर्णन में बार-बार माया शब्द का प्रयोग होता है। माया बुद्ध -अर्थात् अज्ञान ग्रस्त। माया बन्धनों से छूटना अर्थात् दृष्टिकोण परिष्कृत करके तत्व का यथार्थ दर्शन करना और वस्तु स्थिति के अनुरूप अपनी विचारणा एवं कार्य-पद्धति को सही करना। माया के बन्धनों में जीव नाना प्रकार के दुःख पाता है और उससे छूटने पर स्वर्ग एवं मुक्ति का आनन्द अनुभव करता है। यह माया बन्धन अपने दृष्टिकोण की निकृष्ट स्थिति का ओर माया मुक्ति परिष्कृत दृष्टिकोण का बोधक है। वस्तुतः भगवान् की माया तो बड़ी अपरा-प्रकृति के रूप में समस्त ब्रह्माण्डों में अनादि काल से व्याप्त है। उससे छुटकारे का प्रश्न ही नहीं। इन सबको माया की शरण में रहना पड़ता है। माता की गोद में किसी को कष्ट भी क्या हो सकता है, उसमें अहंशून्य सुख ही सुख है। माता गायत्री की शरण में, उसकी ड़ड़ड़ड़ में हम केवल सुख शांति ही उपलब्ध कर सकते हैं।

उपरोक्त तथ्य का भगवती ने स्वयं भी यथा अवसर रहस्योद्घाटन किया है। उनमें कुछ उद्धरण नीचे देखिये-

रुपं मदीर्य ब्रहृातर्त्सव कारण कारणम्।

मायानिहान भूतं तु सर्वसाक्षि निराममम्॥

ड़ड़ड़ड़ यत्पदमामनन्ति तपांसि सर्वाि च युद्ववन्ति ड़ड़ड़ड़ ब्रह्मचर्य चरन्ति तत्ते पद सगंहेण ब्रबीमि।

सम्पूर्ण कारणों का कारण भूत ब्रह्म मेरा ही स्वरूप है, वह माया का अधिष्ठान भूत सम्पूर्ण का साक्षी और निरामय है। सम्पूर्ण वेद जिस पद का कथन किया करते है, समस्त तपस्याओं का ध्येय एक वह ही है, जिसे उत्कट अभिलाषा से प्राप्त करने के लिये योगी-ऋषिगण एं ड़ड़ड़ड़ ब्रह्मा (वेद) की कठिन चर्या का पालन किया करते हैं, उस अभीप्सित पद को मैं संक्षेप से स्वयं बतलाती हूँ। इससे मेरे स्वरूप का स्पष्ट ज्ञान हो सकता है।

युष्मानहं नर्त्तयामि काण्ड पुतलिकोपमाम्।

ताँ मा सर्वात्मिकाँ यूयं विस्मृत्य निजगर्वतः॥

अहंकारा वृतात्मानो मोहमाप्ता दुरन्तकम्।

अनुग्रहं ततः कतु युष्मद्देश अनुतमम्॥

निःसृतं सहसा तेजो मदीयं यक्षमित्यपि।

अतः परं सर्व भावैहित्वा गर्व तु देहजम्।

मानेव शरणं यात सच्चिदानन्द रुचिणीम्॥

मैं आप सब के हृदयन्तभ्रारिणी होकर आप सबको काठ की पुतली के समान नचाती हूँ। अपने अहंकार से अभिभूत होकर सर्वात्मिका मुझे निज गर्व से भूलकर आप लोग दुर्दान्त को, मोह को प्राप्त होते है। उस समय आपके कार्यों की सिद्धि के लिये अनुग्रह करके आविर्भूत होकर तेजःस्वरूप में अवस्थित होती है। इसलिये अब आप लोग सर्वभाव से देह के गर्व का त्याग कर सच्चिदानन्द रूपिणी मुझमें ही शरण लीजिये। आपका सर्वत्र शुभोदय होगा।

मन्याया शक्ति संक्लप्तं जगर्त्सव चराचरम्।

सापि मतः पृथगमाया नास्त्येव परमार्थतः॥

ग्रहमेवासं पूर्वतुनानवत्किञिचराधिणः॥

तदाम्म रुपंचित सम्वित् पर ब्रहृाक नामकम।

तस्य करचित्त्पतः सिद्वा शक्तिर्मायेति विश्रुवा।

पानकसयोष्णते नेम मुष्णाँशोरिन वीधितिः।

स्व शत्पेश्च समायोगादहं बीजात्मतांगता।

यह सम्पूर्ण चराचर जगत मेरी माया शक्ति के स्रोत -प्रोत है। वास्तव में परमार्थ रूप से मुझमें पृथक् माया नाम की कोई भी वस्तु नहीं है। यह सब मेरा ही सर्वत्र निवास है। है नागाधिप! पहले मैं ही स्थित थी और कुछ भी नहीं था। मेरा आत्म स्वरूप ही चित-सम्वित् और पर ब्रह्मा नामक ही एक है। उसकी ही स्वतः सिद्धा शक्ति माया नाम से विख्यात है। जैसे अग्नि की उष्णता और सूर्य देव की किरणों की अभिन्नता है, उसी प्रकार से शक्ति में शक्तिवान के अभेद रूप से रहती हूँ। अपनी स्वतः प्रकाश शक्ति के योग से ही मैं बीजात्मक हूँ।

अत ऊर्ध्व परं ब्रह्मा मूद्रूपं रूप वर्जितम्।

निगुणम् सगुणम् चेति द्विचा मदु्रप मुच्यते॥

निगुणम् मायया हीनं सगुण मायया युतम।

साहं सर्व जगत्सृष्ट्वा तवन्तः सम्प्रविश्व च॥

प्रेरयाम्य निशं जीवं यथा कर्म यथाश्रुतम।

सृष्टि स्थिति तिरोधाने प्रेरयाम्महमेवहि॥

इससे ऊपर रूप से वर्जित मेरा स्वरूप ही पर ब्रह्मा है। वह मेरा स्वरूप निर्गुण ओर सगुण दो रूपों वाला कहा गया है। मेरा जो निर्गुण रूप होता है, वह माया से हीन है और सगुण रूप माया से युक्त होता है। अपनी सत्य संकल्प भावना से इस सम्पूर्ण जगत का सृजन करके और उसमें अन्दर प्रवेश करके यथा कर्म ओर यथाश्रुत मैं ड़ड़ड़ड़ जीवों को प्रेरणा किया करती हूँ। जगत के उत्पादन स्थिति ओर तिरोधान के कर्म में ब्रह्मादिक को मैं ही प्रेरित किया करती हूँ।

ड़ड़ड़ड़ ब्रह्रा तदेवाहुश्च ह्रींमयम्।

के बीजे मम मन्तोस्तो मुख्यत्वेन सुरोतम!॥

भागह्रयवती यस्मान्सृजामि सकलं जगत।

तत्रैक भागः संजस्तु द्वितीयो भाग ईरितः।

सा च माया पराशक्ति शक्तिभत्यहमीश्वरी॥

ड़ड़ड़ड़ यह एकाक्षर नित्याः ब्रह्मा है। इसे ही ह्रीं मय कहा जाता है। हे सुरोतम! मुख्यतया ड़ड़ड़ड़ और ह्रीं बीज मेरे ही मन्त्र हैं। इस सम्पूर्ण संसार को दो भागों वाली होकर मैं इससे निर्मित किया करती हूँ। एक भाग सच्चिदानन्द नाम वाला है और दूसरा भाग माया और प्रकृति वाला है। वही माया पराशक्ति शक्तिमयी ईश्वर में ही हूँ।

चन्द्रस्य चन्द्रिकेवेयं ममाभिन्न त्वभागता।

साम्यावस्थात्मिका चैवा माया मम सुरोतम॥

प्रलये सर्वजगतो मर्वाभन्नेव तिष्ठति।

प्राण कर्म परीमाक वशतः पुररेवहिम॥

रुपं तदेव मव्यक्तं व्यक्ती भाव भूपति च।

अन्तर्मुखा तु यावस्था सा मायेत्यभिषीयते।

वर्हिमुखा तु मा माया तमः शब्देन चाच्यते।

वर्हिमुखा जातमी रुपाज्यायते सत्व सम्भवः॥

रजोगुणस्त दैव स्यात्सर्गाहौ सुरसतम।

गुणत्रयात्मकाः प्रोक्ता ब्रह्मा विष्णु महेश्वराः॥

रजो गुणाधि को ब्रह्मा विष्णुः सस्वाधिको भवेत्।

तमो गुणाधिको रुद्र! सर्व कारण रूप धृक्।

स्थूल देहो भवेद ब्रह्मा लिंग देहो हरिः स्मृतः।

रुद्रस्तु कारणो देह स्तुरीया त्वहमेव हि॥

साम्यावस्था तु या प्रोक्ता सर्वान्तिर्यामि रूपिणी॥

चन्द्र और चन्द्रिका (चाँदनी ) के समान ही ये सब मुझसे अभिन्न हैं। हे सुरोतम! यह मेरी माया सम्पूर्ण संसार में प्राणिमात्र के प्रलय होने पर साम्यावस्था धारण करती हुई, मुझसे अभिन्न ही रहा करती है। फिर ड़ड़ड़ड़ के आदि में कर्मों के परिवाक्वत्र वह अशक्त रूप से व्यक्त होता है। अंतर्मुखी जो अवस्था है वह माया कहलाती है, बहिर्मुखी अवस्था जो माया है, वह ‘तम’- इस शब्द से कही जाती है। हे सूरश्रेषु! बहिर्मुख तमोरूप से ही तत्व की उत्पत्ति होती है ओर ड़ड़ड़ड़ के आदि में वही रजोगुण होकर उत्पत्ति का कारण बना करती है। ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर, ये गुण त्रयात्मक है। रजोगुणाधिष्ठाता ब्रह्मा सत्वाधिष्ठाता विष्णु और तमोगुणाधिक रुद्र सम्पूर्ण कारण रूप धारण करने वाले हैं। स्थूल देह वाले ब्रह्मा, लिंग देह हरि (विष्णु) है और रुद्र कारण देह है। तुरीया तो सिद्ध मैं ही हूँ। जो कि तर्वान्तर्यामी रुचिणी साम्यावस्था कही जाती है।

माया- मोह की जोड़ी प्रसिद्ध है। जहाँ माया होगी वहाँ मोह होगा। जहाँ मोह हो समझना चाहिये यहाँ माया का प्रभाव है। यह अर्थ सामान्य लोक व्यवहार में प्रयुक्त होता है। साधारणतः अज्ञान के अर्थ में आया शब्द प्रयुक्त होता है। साधारणतः अज्ञान के अर्थ में आया शब्द का प्रयोग प्रचलित है। पर वस्तुतः यह समस्त प्रकृति वैभव ही माया है और उस माया से प्रेरित मनुष्यों से लेकर देवताओं तक चैतन्य प्राणधारियों की और हृदय पदार्थों से लेकर आणविक हलचलों एवं आकर्षण, विकर्षण अदृश्य शक्तियों की गतिविधियों में एक माया को ही ओत-प्रोत समझना चाहिये। इस तथ्य का देवी भागवत् में इस प्रकार उल्लेख है-

अन्येषां चैव का संसारेस्मिननृपोतम!।

मायाधीनं जगर्त्सव सदेवासुर मानुवम्॥

तस्याद्राजन्म कर्तत्यः सम्बेहोत्र कदाचन।

देही मायापराधीन श्रेहते तदृश्या नुगः।

सा च माया परे तत्वे सम्विद्रुपेति सर्वदा।

ततो माया विशिष्ठां तां जीवेषु सर्वदा॥

ततो माया विशिष्ठां तो सम्विदं परम्इश्वरीम्।

मायेश्वरी भगवती सच्चिदानन्द रुपिणीम्।

ड़ड़ड़ड़ प्रणमेय दयेदपि।

तेन सा सजयाभूरव भीममश्येग देहिनम्॥

अर्थ- व्यास- नारद सम्वाद में देवर्षि नारद ने कहा है - इस संसार में साधारण जीवों के विषय में कहा ही क्या जाये यह संसार सम्पूर्ण जगत जिसमें देव-असुर और मानव सभी आते हैं, माया के अधीन रहता है। इसलिए हे राजन! इस विषय में कभी भी सन्देह नहीं करना चाहिये। यह देहधारी माया के पराधीन है और उसी का अनुगामी होकर चेष्टा किया करता है। वह माया सम्विद स्वरूप पर तत्व में सर्वदा संस्थिति रहती है। वह उसके अधीन और उसी के द्वारा प्रेरित होकर सर्वदा जीवों में व्याप्त होती है। इसलिए माया से विशिष्ट, मायेश्वरी, सञ्चित और आनंदस्वरूप वाली, परमेश्वरी भगवती सम्विद का ध्यान करना, उसी की आराधना करना, उसका जाप करना और उसका प्रणमन सदा करना चाहिये। ऐसा करने से वह अपनी स्वाभाविक दया प्रकट करके देही का मोचन निश्चय ही कर दिया करती है।

तस्मान्माया निरासार्थ नान्य द्वै देवतान्तरम्।

समर्थन्तु बिना देवीं सच्चिदानन्द रुपिणीम्॥

तस्मान्मायेइवरीमम्बां स्वप्रकाशां तु सम्विदम्।

आराश्रयेदति प्रीत्या माया गुण निवृतणे॥

अर्थ- इसलिये माया का निरसन करने के लिये सच्चिदानन्द वाली देवी के बिना अन्य कोई भी देवता समर्थ नहीं है। अतएव माया की स्वामिनी - स्वप्रकाशस्वरूपा अम्बा सम्विद की माया की निवृत्ति के लिए अत्यन्त प्रेम-भक्ति के साथ आराधना करनी चाहिये।

वृहदस्य शरीरं तु यद प्रमेय प्रमाणतः।

धातुर्महेति पूजायाँ महादेवी ततः स्मृतः॥

वर्तते सर्वभूतेषु शक्तिः सर्वातमना नृप।

शव वच्छकितः हीनस्तु प्राणी भवति सर्वदां॥

चिच्छक्तिः सर्वभूतेषु रुपं तस्यास्तदेव हि।

इसका परम विशाल देह है, जो किसी भी प्रमाण के द्वारा प्रमेय नहीं होता है। इसी को पूजा में धाता का तेज स्वरूप कहते हैं और इसी का ‘महादेवी’ - यह नाम कहा गया है। हे राजन्! यह सम्पूर्ण प्राणियों में सर्वात्मना व्याप्त है और इसकी शक्ति से हीन होकर तो सर्वथा प्राणी शव के समान हो जाया करता है। उस चिच्छक्ति का रूप ही समस्त प्राणियों में व्याप्त रहता है।

सा विश्वं कुरुते कामं सा पालयति पालितम्।

कस्पान्ते संहरत्येव त्रिरुपा विश्वमोहिनी॥

तपा युक्तः सृजेद ब्रह्म विष्णुः पाति तयान्वितः।

रुद्रः संहरते कामें तपा समिमलितो जगत्॥

सा वधनाति जगत्कृत्सनं माया पाशेन मोहितम्।

अहं ममेति पाषेन सुदृढ़ेन नराश्रिप।

योगिनी मुक्त सगांश्च मुक्ति कांमा मुमुक्ष चः।

तामेव समुयासन्ते देवी विश्वेश्वरीं शिवाम्॥

वह महामाया ही इस विश्व का सृजन, पालन और कल्पान्त में संहार करती है, वह त्रिरूपा विश्व को मोति करने वाली है। उससे युक्त होकर ही ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र इस विश्व का सृजन, पालन और संहार किया करते हैं। उसी से यह जगत व्याप्त है, वही मायापाश से मोहित सम्पूर्ण जगत को बाँध लेता है। वह मैं और मेरे इस सुदृढ़ पाश से हे राजन! बँधा रहता है। संसार के संग से मुक्त योगी जो मुक्ति की कामना करते हैं वे इस विश्वेश्वरी की उपासना अपने अभीष्ट की सिद्धि के लिए किया करते हैं।

मोहो नैवायसरति किं तत्कारण मद्भतम्।

स्वामिं स्त्वमसि सर्वशः सर्व संशय नाशंकृत्॥

इति पृष्टस्तदा राजा सुमेधा मुनि सत्तमः॥

तमुवाच परं ज्ञानं शोक मोह विनाशतम्।

अर्थ - राजा ने मुनि से पूछा - हे स्वामिन्! यह मेरे हृदय का मोह क्यों नहीं दूर हटता है? इसका कौन सा अद्भुत कारण है? आप तो सभी कुछ के ज्ञाता हैं और सब प्रकार के संशयों के नाश कर देने वाले हैं। हे कृपा के सागर! मेरे इस हार्दिक मोह का कारण बतलाइये। व्यास जी ने कहा - इस प्रकार से पूछे जाने पर मुनियों में परम श्रेष्ठ सुमेधा ने उस राजा को शोक और मोह के नाश करने वाला परम ज्ञान बतलाया था।

श्रृतु राजन् प्रवरुयामि कारणं बन्ध मोक्षयोः।

महामायेति विख्याता सर्वेवाँ प्राणिनामिह॥

ब्रह्मा विश्णुस्तथे शान स्तुराच्छ वरुणोमितः।

सर्वे देवा मनुश्याश्च गन्दर्वोरेगराक्षसाः॥

वृक्षाश्च विविधा पल्य पश्वो मृगपक्षिणः।

मायावी नाश्चते सर्वे भाजनं बन्ध मोक्षयोः॥

तथा सृष्ट’मिदं सर्व जगत्स्यावर जगमम्।

तद्धते बर्तते मूनं मोह जालेन यान्त्रितम्॥

स्वं क्रियान् मानुषेव्येकः क्षत्रियो रजसालिः।

ज्ञानिनामयि चेताँसि मोहय त्यनिशं हिया॥

उत्मेश वासुदेवा ज्ञाने सत्यपि शेषतः।

तेपि रामवशा श्लोके भ्रमन्ति परिमोताः॥

अर्थ - महर्षि ने कहा - हे राजा! मैं तुम्हारे सामने संसार में बन्ध और उससे छुटकारा प्राप्त करने का कारण बतलाता हूँ, उसका तुम श्रवण करो। इस संसार में समस्त प्राणियों के ऊपर पूर्ण प्रभाव रखने वाली भगवती महामाया हैं जो परम विख्यात हैं। ब्रह्म, विष्णु, शिव, तुराषाड, वरुण, अनिल आदि सब देवगण, मनुष्य, गन्धर्व, उरग और राक्षस, वृक्ष अनेक बल्ली, पशुगण और पक्षी आदि सभी उप महामाया के अधीन रहते हैं और वे समस्त बन्ध और मोक्ष के पात्र भी होते हैं। अर्थात् इनके लिए भवबंधन होता है तो इनका इस बन्धन से मोक्ष भी होता है। ये सभी माया के अधीन रहते हैं, क्योंकि उसी के द्वारा इस स्थावर (अचर) और जगंम (चर) जगत की सृष्टि हुई है। मोह के जाल में यन्त्रित होकर यह वक्त उसी महामाया के वश में रहता है। तुम तो एक साधारण मनुष्य हो और रजोगुण से लिप्त क्षत्रिय हो। तुम यदि मोह में आबद्ध हो तो क्या आश्चर्य है? वह भगवती तो बड़े-बड़े ज्ञानियों के चित्त को भी निरन्तर मोहित करती रहा करती है। ब्रह्मा, ईश और वासुदेव आदि पूर्ण ज्ञान के रहते हुए भी राम के वश में वशीभूत होकर मोहित होते हुए इस लोक में भ्रमण किया करते हैं - उस महामाया का ऐसा प्रबल प्रभाव है।

ता च ब्रह्म स्वरूपा च निस्म्य सा च सनातनी।

यथात्मा च तथा शक्तिर्यपाग्नौडाहिका स्थिता॥

अत एवं हि योगीन्द्रेः शी युग्भेदो म मन्यते।

यह आत्म स्वरूपा देवी अग्नि में जिस प्रकार से दाह-कृत्य शक्ति अनुपस्थित रहती है उसी तरह ब्रह्म स्वरूपा नित्याः-सनातनी यह आद्यशक्ति है। इसीलिये योगियों में शिरोमणि लोग इस महामाया के विषय में स्त्री एवं पुल्लिंग का भेद नहीं माना करते हैं।

ब्रह्माणं च विष्णुँ रुदं्र वै कारखाक्ष्मकम्।

मद्भ्याद्धाति पवनोभीत्या सूर्यश्च नच्छति॥

इन्द्राग्नि मृत्यवस्तद्धत्साहं सर्वोतमा स्मृता।

मत्प्रसादाद्भवहमिस्यु जयोलक्ष्योरित बवैश॥

इस जगत के कारण स्वरूप जो ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र हैं वे सब मुझसे ही प्रेरणा प्राप्त कर जगत की उत्पत्ति स्थिति और लय किया करते हैं। पवन मेरे ही भय से बहता है। सूर्य गमन करता है और इन्द्र, अग्नि और मृत्यु सब मेरी भीति से अपना-अपना काम करते हैं मैं सब में उत्तम हूँ और हे देवगण! मेरी ही कृपा से आप तीनों को जय प्राप्त होती है।

इस रहस्यमय अध्यात्म को जो जान लेता है वह अपने भय और संशय से छुटकारा पाकर लोभ-मोह से मुख फेर लेता हे। वासना, तृष्णा की प्रीति छोड़ आत्मकल्याण के मार्ग पर चलना आरम्भ करता है। भगवती की प्रेरणा जो अन्तःप्रेरणा के रूप में - परमार्थ पथ पर चलने को निरन्तर मिलती रहती है उसका अनुसरण करने वाला भवबन्धनों की दुर्गति से छूटकर शाश्वत सुख शान्ति का अधिकारी बनता और जीवन के परम लक्ष्य को प्राप्त करता हे। इस तथ्य को इस प्रकार बताया समझाया गया है -

छित्वा मित्वा च भूतानि हत्वा सबमिद जगत्।

देवीं नमति भक्तया यो न स पायै लिलिप्यते।

रहस्यं सर्व शास्त्राणां मया राजनुदीरितम्।

विमृश्ये तदशेवेण भव देवी षडाम्बुजम्।

अत्याँ नाम जानन्ति मायामा वैभवं महत्॥

गायत्री ब्राह्मणाः सर्वे जपन्ति हृदयान्तरे।

एततसर्व समाख्यातं यस्पृष्टं स्वया नध॥

समस्त भूतों का छेदन एवं भेदन करके और इस सम्पूर्ण जगत का हनन करके जो दृढ़ भक्ति की भावना से देवी को नमन किया करता है वह फिर पापों से कभी भी विलिप्त नहीं होता हैं। हे राजन! मैंने यह समस्त शास्त्रों का रहस्य तुमको बतला दिया है। इस पर भली भाँति विमर्श करके देवी के चरण कमलों का समाराधन करो। समस्त मनु अजया गायत्री का जा किया करते है, किन्तु उसकी माया का जो परम महान् वैभव है, उसकी महिमा को लोग नहीं जानते हैं। समस्त ब्राह्मण अपने हृदय -स्थल के अन्दर गायत्री का जाप किया करते है, किन्तु इसका महत्व पूर्णतया नहीं जानते हैं। हे अनथ तुमसे जो पूछा है, वह मैंने सब बतला दिया है।

First 27 29 Last


Other Version of this book



Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
...

Version 2
Type: TEXT
Language: HINDI
...


Releted Books


Articles of Books

  • आन्तरिक सामर्थ्य ही साथ देगी
  • भगवान् की दया और करुणा
  • स्थायी सुख-शांति और प्रसन्नता (kahani)
  • सर्वव्यापी आत्मा की सर्वज्ञता
  • आत्मा में परमात्मा का निकटतम अनुभूति
  • सारा संसार एक बिन्दु पर
  • परोपकार
  • अपनी शक्तियाँ सही दिशा में विकसित कीजिए
  • मनुष्य देह में ब्रह्म-वैवर्त
  • अभाव का दुःख-सन्तोष का सुख
  • विचार ही चरित्र निर्माण करते हैं
  • भगवान् बुद्ध
  • शक्ति नहीं, करुणा जीतेगी
  • सुन्दरता और लज्जा
  • सौंदर्य का मूल स्रोत तलाश करें
  • सन्त सुकरात
  • विलक्षण मानसिक शक्तियाँ और उसका आधार
  • फसल बेचने के लिए नहीं
  • जीवन-मुक्ति का अधिकार
  • मनुष्य-अनन्त आकाश का क्षुद्रतम अंश
  • पर्वत की चुनौती
  • प्रगति पथ के आन्तरिक अवरोध
  • सुरघु की समाधि
  • महाशक्ति कुण्डलिनी और उसका जागरण
  • असत्य का सम्मान
  • पात्रत्व की परीक्षा
  • कामनाओं और वासनाओं का सदुपयोग
  • गायत्री-साधना - गायत्री महाशक्ति और उसकी सुविस्तृत ‘माया’
  • अपनों से अपनी बात- - (2) हमारे प्रेम साधना और उसकी परिणति
  • ईश्वर का प्रतिबिम्ब प्रतिबिम्ब प्रेम
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj