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Magazine - Year 1970 - Version 2

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बदलती परिस्थितियों में स्वयं भी बदलें

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परिस्थितियों के मनुष्य जीवन पर पड़ने वाले जबर्दस्त प्रभाव से इनकार नहीं कर सकते पर वहाँ परमात्मा ने मनुष्य को ऐसी योग्यतायें भी दी हैं, जिनसे वह अपने आपको परिस्थितियों के अनुरूप ढाल सके। यदि मनुष्य ऐसा नहीं कर सकता तो दण्ड भुगतने और असफल पड़े रहने का दोष उसी का है।

वस्तुतः परिस्थितियाँ संसार में कुछ हैं भी नहीं। अपने आपको परिवर्तनों के अनुसार बदलते न रहने की प्रतिक्रिया का नाम ही परिस्थितियाँ है। संसार में जितने भी प्राणी हैं, वह प्राकृतिक परिवर्तनों के साथ अपने आपको बदलते रहते हैं, यही कारण है कि वे बिना किन्हीं साधनों के भी मुक्ति, आनन्द, स्वास्थ्य और नीरोगता का जीवन जीते रहते हैं। एक दूसरे को खा जाने की प्रवृत्ति पशुओं और जंगली जन्तुओं की कही जाती है, तथापि आज मनुष्य जितना अशाँत और द्वन्द्वों में फंसा हुआ है, उतने तो वन्यपशु भी नहीं है, इसका एकमात्र कारण परिस्थितियों के अनुरूप अपने आपको न बदलने का दोष है।

वातावरण परिवर्तनशील है। वस्तुयें बदलती रहती हैं, किसी भी स्थान के अनुकूल बने रहने का तात्पर्य यह है कि परिस्थितियाँ चाहे जिस दिशा में मुड़ें हमें उन बदलती हुई परिस्थितियों के साथ बदलने की अथवा परिस्थितियों के अनुसार अपनी शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक प्रणाली को ढालने की क्षमता होनी चाहिये। काम तभी चलेगा, जब हम इतने प्राकृतिक हों कि हमारी प्रत्येक गतिविधि प्राकृतिक परिवर्तनों के साथ बहती चली जाए, यदि हम उसका उल्लंघन करेंगे तो निश्चय ही रोग, शोक, हारी−बीमारी का कष्ट उठायेंगे।

ध्रुवीय प्रदेशों में कुछ जन्तु जैसे लोमड़ी, रीछ और गिलहरियाँ अपने आपको वहाँ की परिस्थितियों के समरूप रखती हैं, वहाँ वर्ष भर बर्फ जमी रहती है। बर्फ श्वेत होती है, यह जीव भी अपने बालों को श्वेत रखते हैं, इससे यदि कोई बाहरी व्यक्ति इनको ढूंढ़ना चाहे तो ढूँढ़ नहीं सकता। रंग की समरूपता के कारण यह अपने आपको बर्फ की चट्टानों के साथ इस तरह समायोजित कर लेते हैं कि शिकारी इनके पास घूमते रहते हैं तो भी पहचान नहीं पाते। मनुष्यों को भी ऐसे ही समाज परिवर्तन की आवश्यकता पड़ती है, अन्य स्थानों पर पहुँचकर वह अपने आपको एकाकी अनुभव करके दुःखी अनुभव करता है पर यदि उसने अन्य प्राणियों से अनुकूलन की विद्या सीखी होती अर्थात् उस वातावरण के अनुरूप अपने आपको ढाल लेने की योग्यता का उपयोग करता तो वह जहाँ भी जाता, वहीं परस्पर प्रेम, विश्वास, एकता और आत्मीयता स्थापित करके प्रसन्नता अनुभव करता।

मरुस्थल में पाई जाने वाली बकरियाँ, हिरण और ऊँट आदि वहाँ की प्रकृति को अक्षरशः ग्रहण कर लेते हैं। जिससे उनके शरीर भी पूरे और लहरियोंदार हो जाते हैं। कोई दूर से यह नहीं जान सकता कि वहाँ कोई खड़ा है, क्या और इस प्रकार वे अपने जीवन को सुरक्षित किये रहते हैं। कई सर्प जिस मिट्टी में रहते हैं, उसी रंग के हो जाते हैं, तितली पौधों−पौधों में जाकर उनके सौरभ और सौन्दर्य का आनन्द लेती है, इसके लिये वह किसी फूल से बंधती नहीं वरन् अपने आपको सभी फूलों के समान रंग−बिरंगा बना लेती है। टिड्डी जैसे कई कीड़े जो हरी−पत्तियाँ ही खाते हैं, अपने आपको हरा रखते हैं, वह हरे वृक्षों में बैठे रहते हैं पर बाहर का कोई व्यक्ति उनका पता नहीं लगा सकता।

समुद्री चिड़ियाएं जैसे फ्लावर्स भारद्वाज (हार्क) टिटहरी आदि खुले स्थानों पर अण्डे देते हैं। टिटहरी, सारस आदि पक्षी पानी के बीच खुले भाग में अण्डे देते हैं। यदि वे अण्डों का रंग अपनी मन−मर्जी से कुछ भी रखते तो कभी भी कोई हमलावर जानवर आते और उन्हें उसी तरह मार कर खा जाते, जिसे सामाजिक जीवन में संग्रह−वृत्ति वाले धनी लोगों को, जो दूसरे पीड़ित प्रजा वर्ग की सुविधाओं का भी ध्यान नहीं देते, चोर और डकैत लूट ले जाते हैं। सामाजिक जीवन से अपना ताल−मेल न रखकर अपनी खिचड़ी अलग पकाने वाले लोग अपने आप कितना ही अहंकार प्रदर्शित करें पर भीतर ही भीतर अपनी सुरक्षा के लिये सबसे अधिक डरने वाले दुःखी लोग वे ही होते हैं, जो समाज की परिस्थितियों में बने रहते हैं, वह इन पक्षों की तरह हैं, जो चौड़े में अण्डे देते हैं पर उनका रंग इस तरह का रखते हैं कि जमीं के रंग में और उनके रंग में कोई अन्तर दिखाई न दे। चील और बाज की आँखें बड़ी तेज होती हैं, वे ऊपर मँडराते रहते हैं पर उन्हें इन अण्डों का पता भी नहीं चल पाता। समुद्र में एक चपटी मछली (फ्लैटफिश) पाई जाती है, इसी कोटि का सर्वत्र पाया जाने वाला जन्तु गिरगिट है, यह जहाँ भी रहते हैं, अनुकूलन के द्वारा अपनी सुरक्षा बनाये रखते हैं। गिरगिट अपनी ओर किसी दुश्मन को आते देखता है तो वह जिस स्थान पर होता है उस स्थान का रंग निकालकर उसी में छुप जाता है। दुश्मन समझ नहीं पाता और इधर से उधर निकल जाता है, कई बार वे कई तीव्र रंग निकालकर दीवाल खड़ी कर देते हैं और आप स्वयं अपने आपको बचा कर निकाल ले जाते हैं। प्रकृति के यह उदाहरण बताते हैं कि संसार में अस्तित्व उन्हीं का सुरक्षित है, जो स्थिति के अनुसार अपने आपको बदल सकते हों।

यह रंग बदलने की कला मनुष्य जीवन में बड़े काम आती है, यदि हम अपने वातावरण का चारों ओर चौकसी से निरीक्षण करते रहें। उदाहरण के लिये आज लोगों में खाँसी, खसरा, कैंसर, तपेदिक आदि रोग बढ़ रहे हैं, हमें देखना चाहिये कौन−सी बुराइयाँ हैं, जो इन्हें जन्म देती हैं। अप्राकृतिक रहन−सहन, आहार−विहार, धूम्रपान, आलस्य, असंयम आदि के कारण ही यह बुराइयाँ बढ़ती हैं, यदि हमारी भी परिस्थितियाँ ऐसी ही हैं तो उनसे सुरक्षा का उपाय यही है कि हम अपना रंग बदल डालें अर्थात् उन बुराइयों के आवरण को ही उतार फैंकें।

अनुकूलन की इस योग्यता का यह अर्थ नहीं कि यदि हम किसी बुरे समाज में जाते हैं तो वहाँ की बुराइयों को आत्मसात करना प्रारम्भ कर दें। ऐसी परिस्थितियों से बचाव की प्रेरणा कालिमा नामक तितली से ले सकते हैं। इसके पंखों का ऊपरी रंग चमकदार होता है, परन्तु सतह का रंग सूखी पत्ती की तरह का होता है। जब कभी वह किसी पौधे पर पंख सिकोड़कर बैठती है तो ऐसा प्रतीत होता है, जैसे यह कोई सूखी पत्ती हो। मनुष्य अपने मूल व्यक्तित्व को इस तरह आकस्मिक काल में छिपाकर अपनी सुरक्षा बनाये रख सकता है पर जो अपने व्यक्तित्व को बढ़ा−चढ़ा कर दिखाते हैं, शेखी−खोरी करते हैं, वे राह चलते चाहे, जिन मामूली व्यक्तियों के द्वारा ठग लिये जाते हैं।

दंडकीट (हाइड इन्सेन्ट) नामक कीड़ा सूखी टहनी की तरह का होता है, रंग भी उसी तरह का कुछ भूरा−काला सा होता है, मोटाई भी पतली टहनी के समान ही होती है। इसके पंख ही बड़े होते हैं पर अपनी इस विशेषता को वह बड़ी चतुराई से छिपाता है, जब किसी टहनी पर बैठता है तो पंखों को शरीर से इस तरह चिपका लेता है कि दूर से देखने पर ऐसा लगता है, जैसे यह पत्तीदार कोई टहनी ही हो और इस तरह वह अपने आपको दुश्मन से बचा लेता है, यह उदाहरण बताते हैं कि वातावरण समकूलता से व्यक्ति अपनी आत्म−रक्षा कर सकता है। इसमें उसे कुछ भी हानि नहीं होती।

बर्फीले क्षेत्रों में पाये जाने वाले रीछों के पास कोई वस्त्र नहीं होते, वे वहाँ के वातावरण को ही अपने में आत्मसात करके सुरक्षित रहते हैं। जिन दिनों बर्फ और कड़ाके की सर्दी पड़ती है, बेचारा स्वयं भी जकड़कर बर्फ में दब जाता है। छः महीने तक भालू उसी में कुछ खाये−पिये बिना ही पड़ा रहता है, यदि आदमी की तरह उसने भी कृत्रिम जीवन बनाया होता, अधिक कपड़े पहनने और तंग मकानों में रहकर अपने आपको ज्यादा शानदार दिखाने की भूल उसने की होती, असंयमित जीवन बिताया होता, एक ही कड़ाके में ढेर हो गया होता पर प्रकृति माता की गोद में पड़े रहने के कारण उसमें इतनी क्षमता आ जाती है कि वह छः महीने दबा रहकर भी मरता नहीं वरन् यह समय उसकी आयु−वृद्धि के काम आता है। छः महीने बाद जब धूप निकलती है, ऊपर की बर्फ पिघलकर बह जाती है, शरीर के रक्त में थोड़ी गर्मी आती है तो रीछ ऐसे ही अँगड़ाई लेकर उठ खड़ा होता है, जैसे रात को नींद लेकर सबेरे वह नई ताजगी प्राप्त कर रहा हो। प्रकृति का घनिष्ठ सान्निध्य हमें भौतिक परिस्थितियों से सदैव ही सुरक्षा प्रदान करता है।

सरलता और सीधापन प्रकृति का स्वभाव है, हम जब अपनी मान−मर्यादा, पद−प्रतिष्ठा, धन पुत्रों के बनावटी आवरण उतार देते हैं तो ऐसे ही सीधे स्वाभाविक सरल और सौम्य प्रतीत होते हैं, जैसे प्रकृति के दूसरे भोले−भाले प्राणी। कोई कहेगा, ऐसी स्थिति में तो जो आवेगा, हमें वह नष्ट कर डालेगा, बात ऐसी नहीं। प्रकृति हमें परिस्थितियों के अनुरूप संघर्ष के लिए भी उत्साहित करती है। हम उसके लिये तैयार न हों, तब तो एक दिन का जीवित रहना भी कठिन हो जाये। बुराइयों और दुष्प्रवृत्तियों का सामना करने के लिये भयानक आकार (टेरीफाइंग अपियरेन्स) भी रखना आवश्यक है। हरे टिड्डे (ग्रास−होपर्स) दुश्मन को देखते ही अपने पंख फैलाकर भयानक आकृति बना लेते हैं। दुश्मन अचम्भे में पड़ जाता है और उसे चुपचाप लौटना ही पड़ता है जब तक बन पड़ता है बिल्ली आत्म रक्षा के लिये भागती है पर जब वह यह समझती है कि कुत्तों से बचकर भाग निकलना सम्भव नहीं, तब वह अपने दाँत, मूँछें और आँखों को ऐसे तरेर कर खड़ी हो जाती है कि कुत्तों की सिट्टी गुम हो जाती है और वे आक्रमण करना भूल जाते हैं। प्रकृति का यह गुण हमें बताता है कि यदि साहस और हिम्मत हो तो मनुष्य अपने से कई गुना बलवान् और भयानक व्यक्तियों से भी मोर्चा लेकर उन्हें परास्त कर सकता है पर साहस बाहर की देन नहीं, मनुष्य को उसे परिस्थिति के अनुरूप अपने ही भीतर से जागृत करना पड़ता है। यदि परिस्थिति आने पर वह संघर्ष के लिये तैयार नहीं होता तो कोई भी बुरा व्यक्ति या पशु उसे आसानी से मार सकता है।

शत्रु के विरोधी पक्ष में आ जाने के कारण भी हम अपनी सुरक्षा ही नहीं अनुभव करते वरन् संसार की बुराइयों के विरुद्ध अपना साहस प्रदर्शित करने का यश भी प्राप्त करते हैं। प्रकृति का यह पक्ष हमें यह बताता है कि विरोधी शक्ति यदि न्यायोचित है तो कम शक्तिशाली होने पर उसके साथ रहने से बुरे तत्त्वों से रक्षा हो जाती है। हमारे जीवन में सैंकड़ों बुराइयाँ होती हैं। हम समझ नहीं पाते, उन्हें कैसे दूर करें पर जब ‘अणुव्रत’ सिद्धान्त के आधार पर कोई एक छोटी−सी अच्छाई का भी व्रत लेकर उसका निष्ठापूर्वक पालन करने लगते हैं तो हमारी बुरी आदतों, बुरे तत्त्वों से रक्षा हो जाती है। इंग्लैंड के प्रसिद्ध वैज्ञानिक श्री बेट्स ने दक्षिण अमेरिका में जीव−जंतुओं की बहुत दिन खोज की थी, उन्होंने पीयरिड नामक तितली का वर्णन करते हुए लिखा है—“कुछ पक्षी हेलीकोनिड तितली का शिकार नहीं करते। पर उन्हें पीयरिड का शिकार करना अच्छा लगता है। पीयरिड उनसे अपनी रक्षा करने के लिये विरोधी पक्ष के साथ हो जाती है। यद्यपि हेलीकोनिड में उसकी रक्षा करने की शक्ति नहीं होती किन्तु विरोध के फलस्वरूप ही वह आक्रमणकारी पक्षियों की दुष्टता को निरस्त कर देती है।”

अपने आपको परिस्थिति के अनुकूल ढालने की यह सूझ मनुष्य ने भी विकसित की होती तो वह आज परिस्थितियों का दास न होकर मनचाही परिस्थितियां उत्पन्न करने में समर्थ रहा होता। यदि हम अपने दृष्टिकोण में अब भी यह परिवर्तन कर लें, तो भविष्य में अपने जीवन को उन्नत सफल और सुरक्षित बनाये रख सकते हैं। प्रकृति का यह सिद्धान्त सदैव समरस और अकाट्य है। (क्रमशः)

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