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Magazine - Year 1970 - Version 2

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आत्मिक प्रगति के लिए−उत्कृष्ट शिक्षा की आवश्यकता

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हमारे जीवन−यापन की क्रियाओं में पाप का पुट प्रवेश न करने पावे—इस सावधानी के लिये ज्ञान की अनिवार्य आवश्यकता है। ज्ञान से दृष्टिकोण परिमार्जित होता है, विचार−शक्ति बढ़ती है और युक्तायुक्त निर्णय की क्षमता प्राप्त होती है। क्या पाप है, क्या पाप नहीं है, इसका ज्ञान जीवन एवं कर्म−दर्शन संबंधी पुस्तकों से ही प्राप्त हो सकता है—और वे सद्ग्रन्थ हैं, वेद−शास्त्र, गीता, उपनिषद्, रामायण आदि आध्यात्मिक एवं धार्मिक पुस्तकें। इन आदर्श ग्रन्थों के अतिरिक्त लौकिक विद्वानों द्वारा लिखा हुआ, एक से एक बढ़कर नैतिक साहित्य भरा पड़ा है—योग्यता तथा युग के अनुसार उसका लाभ भी उठाया जा सकता है।

ज्ञान−गुण प्राप्त करने के लिये जिस वस्तु की प्रथम एवं प्रमुख आवश्यकता है, वह है—शिक्षा। शिक्षा ज्ञान की आधार भूमि है। जो अशिक्षित है, पढ़ा−लिखा नहीं है, वह किसी भी जीवन अथवा कर्म−दर्शन संबंधी पुस्तक का अध्ययन किस प्रकार कर सकता है, किस प्रकार उनकी शिक्षाओं को समझ सकता है और किस प्रकार हृदयंगम कर सकता है? उसके लिये तो ज्ञान से भरी पुस्तकें भी रद्दी कागज से अधिक कोई मूल्य न रखेंगी।

अनेक लोग कबीर, दादू, नानक, तुकाराम, रायदास, नरसी यहाँ तक कि सुकरात, मुहम्मद और ईसा जैसे महात्माओं एवं महापुरुषों का उदाहरण देकर कह सकते हैं कि यह लोग शिक्षित न होने पर भी पूर्ण ज्ञानवान् तथा आध्यात्मिक सत्पुरुष थे। इनका सम्पूर्ण जीवन आजीवन निष्पाप रहा और निश्चय ही इन्होंने आत्मा को बन्धन मुक्त कर मोक्ष पद पाया है। इससे सिद्ध होता है कि निष्पाप जीवन की सिद्धि के लिये शिक्षा अनिवार्य नहीं है। ऐसा कहने वाले यह भूल जाते हैं कि अनायास ज्ञान प्राप्त कर लेने वाले महापुरुष अपने पूर्वजन्म के संस्कार साथ लेकर आते हैं।

एक ही शरीर में जीवन की इतिश्री नहीं हो जाती। इसका क्रम जन्म−जन्मान्तरों तक चला करता है और तब तक चलता रहता है, जब तक जीवात्मा पूर्ण निष्पाप होकर मुक्त नहीं हो जाती। अनायास ज्ञानज्ञों का उदाहरण देने वालों को विश्वास रखना चाहिये कि उक्त महात्माओं ने अपने पूर्वजन्मों में ज्ञान पाने के लिये अनथक पुरुषार्थ किया होता है। उसके इतने अनुपम एवं उर्वर बीज बोये होते हैं। अपने मन, मस्तिष्क एवं आत्मा को इतना उज्ज्वल बनाया होता है कि किसी समय भी पुनर्जीवन में आँख खोलते ही उनका संस्कार रूप में साथ आया हुआ ज्ञान खुल, खिलकर उनके आदर्श−व्यक्तित्व में प्रतिबिम्बित एवं मुखरित हो उठता है। ज्ञान प्राप्ति का प्रारम्भिक चरण शिक्षा ही है। शिक्षा के अभाव में कोई भी व्यक्ति ज्ञानवान् नहीं बन सकता।

जीवन पद्धति को आध्यात्मिक मोड़ दिये बिना आत्मा के विकास की सम्भावनायें उज्ज्वल नहीं हो सकतीं। जीवन में आध्यात्मिक गुणों को —उदारता, त्याग, सदिच्छा, सहानुभूति, न्यायपरता, दयाशीलता आदि को जागृत करने का काम शिक्षा द्वारा ही पूरा किया जा सकता है। शिक्षा मनुष्य को ज्ञानवान् ही नहीं, शीलवान् बनाकर निरामय मानवता के अलंकरणों द्वारा उसके चरित्र का शृंगार कर देती है। शिक्षा संपन्न व्यक्ति ही वह विवेक शिल्प सिद्ध कर सकता है, जिसके द्वारा गुण, कर्म, एवं स्वभाव को वाँछित रूप में गढ़ सकना सम्भव हो सकता है। अशिक्षित व्यक्ति का संपूर्ण जीवन, क्या बाह्य और क्या आन्तरिक, विकारों एवं विकृतियों से भरा हुआ ऊबड़−खाबड़ बना रहता है। अशिक्षित व्यक्ति न तो जीवन की साज संभाल कर सकता है और न उसका उद्देश्य ही समझ सकता है।

अशिक्षित व्यक्ति जब सामान्य जीवन की साधारण परिस्थितियों तक का निर्वाह सफलता एवं कुशलतापूर्वक नहीं कर सकता तब वह आत्मोद्धार के प्रवीणतापूर्ण प्रयत्नों को किस प्रकार कार्यान्वित कर सकता है। कर्म कुशल वह आध्यात्मिक कर्म−कुशलता केवल शिखा के बल पर ही खोजी, पाई और प्रयोग की जा सकती है। जो अशिक्षित व्यक्ति एक पत्र पढ़वाने के लिये दूसरों पर निर्भर रहता है। जो यह नहीं समझ पाता कि जिस कागज पर उसने अँगूठा छापा है, उसमें क्या लिखा है, जिस मनीआर्डर को वह प्राप्त कर रहा है, उसमें कितने रुपये लिखे हैं, वह भला आत्मिक विकास के सूक्ष्म उपायों को क्या जान सकता है? उसके लिये आत्मा, परमात्मा, प्रकृति, पुरुष, मोक्ष, मुक्ति, कर्म, अकर्म, पाप पुण्य आदि की परिभाषायें ऐसी अनबूझ हो रहती हैं, जैसे किसी बालक के लिये पक्षियों का कलरव। वह केवल इतना ही अनुभव कर सकता है, यदि कर सके— यह कुछ है तो अच्छा किन्तु यह नहीं समझ सकता कि इन सबका अर्थ और उद्देश्य क्या है, और क्या है उसके जीवन से संबंध।

पशु क्या है? एक प्राणी। और मनुष्य—वह भी एक प्राणी है। एक चतुष्पद और दूसरा द्विपद। दोनों खाते खेलते और एक से अनेकता सम्पादित करते हैं। दोनों भूख प्यास अनुभव करते हैं और दोनों नींद से निमीलित होते हैं। दोनों स्वार्थ के लिये लड़ते−झगड़ते और दोनों ही समान रूप से अपने सामान्य हित−अनहित को जानते हैं। जैसे अन्य पशु−पक्षियों को दुःख सुख की अनुभूति होती है, उसी प्रकार मनुष्य को भी। जीवों के असंख्यों आकार प्रकारों में से एक मनुष्याकार भी है। हाथ−पैर, नाक−कान, पेट−पीठ संबंधी कायिक कौतुहल पशु और मनुष्य प्राणी के बीच किसी मूल एवं महत्वपूर्ण भेद की प्रवक्ता नहीं है।

संसार के अन्य प्राणियों से भिन्न मानव प्राणी− मनुष्य की यथार्थक संज्ञा का अधिकारी तब ही बनता है, जब वह प्रकृत प्रेरणाओं एवं प्रवृत्तियों का परिष्कार कर, आध्यात्मिक आलोक में उनका प्रयोग कर सकने की योग्यता विकसित कर लेता है। अन्यथा, अन्य प्राणियों और मानव प्राणी में कोई अन्तर नहीं है। जिस प्रकार जीव−जगत् में किसी को गाय, बैल, घोड़ा, गधा, हाथी, हिरन आदि अभिधानों से संबोधित किया जाता है, उसी प्रकार इस द्विपदगामी मनुष्य को भी नर−पशु नाम से पुकारा जाता है।

अन्य जीव−जन्तुओं तथा मनुष्य के बीच जो मूल एवं महत्वपूर्ण अन्तर है, वह यह कि मनुष्य ‘आत्म−जीवी’ है, जबकि अन्य जीव ‘शरीर जीवी’ होते हैं। उनकी सारी इच्छायें, अभिलाषायें एवं आवश्यकतायें केवल शरीर तक ही सीमित रहती हैं, जबकि मनुष्य की अभिलाषाएं आध्यात्मिक और आवश्यकतायें आत्मिक स्तर तक जा पहुँची हैं। वह विवेक−बुद्धि अन्य प्राणियों में नहीं होती, जिसके प्रसाद से मनुष्य ने आत्मा को जाना−पहचाना और उसके उद्धार के लिये प्रयत्न पथ का प्रस्तुतन किया।

आत्मा की परिचायक इस विवेक, बुद्धि का विकास जड़तापूर्ण स्थिति में नहीं हो सकता। इसके लिये मनुष्य को साक्षर ही नहीं, शिक्षित होना होगा। अशिक्षा का अभिशाप पाप की प्रेरणा, देकर मनुष्य जीवन का उद्देश्य ही नष्ट कर देता है। कर्माकर्म का युक्त ज्ञान न होने से अशिक्षित व्यक्ति की अधिकाँश क्रियायें अंधकार की ओर ही ले जाने वाली सिद्ध होती हैं। जड़ता जन्य प्रेरणाओं में काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार के विकार तथा ईर्ष्याद्वेष, स्वार्थ, अदया एवं अनाधिकारिता का विष व्याप्त रहता है। जिससे मनुष्य की आत्मा प्रबुद्ध होने के स्थान पर अधिकाधिक निश्चेष्ट होती जाती है। अन्धकार में चलने वाला व्यक्ति जिस प्रकार कदम−कदम पर ठोकर खाता चलता है, उसी प्रकार अन्तर में अज्ञान का अंधकार लेकर चलने वाला अशिक्षित व्यक्ति संसार पथ पर अविस्खलित गति से नहीं चल सकता। प्रतिपद्, पतन का भय उसे कभी भी आत्मोद्धार की दिशा में बढ़ने देगा, ऐसी आशा कर सकना सम्भव नहीं।

जो अशिक्षित है, अज्ञानी है और इस अभिशाप को मिटा डालने में रुचि नहीं रखता उसे उस आत्मा का अमित्र ही कहा जायेगा, जो परमात्मा का पावन अंश है और शरीर साधन को सक्रिय रखने के लिये चेतना रूप से मनुष्य में इस उद्देश्य से स्थापित की गई है कि वह उसे जाने और उसके माध्यम से विश्व−ब्रह्मांड के कारण भूत परमात्मा को पहचान कर मुक्ति पद का अधिकारी बने।

जो आत्मा की जिज्ञासा नहीं करता और उसे मुक्त करने के प्रयत्नों की ओर से विमुख है, वह जन्म−जन्मान्तरों तक इस प्रकार ही दुःख भोगता रहेगा, जिस प्रकार वर्तमान में भोग रहा है। ज्ञान के अतिरिक्त इस भ्रामक भव रोग की अन्य कोई औषधि नहीं, जिसकी प्राप्ति विद्या बल पर ही की जा सकती है।

लोक की सफलता और परलोक की संराधना के लिये शिक्षितों को ज्ञान और अशिक्षितों को शिक्षा की ओर अग्रसर होना ही चाहिये। परिस्थितिवश जिन्हें शिक्षा के अवसर नहीं हो, वे जिस प्रकार भी हो सके साक्षरता के अक्षत तो डाल ही लें। इससे उनके सूक्ष्म अन्तःकरण में विद्या के बीच पड़ जायेंगे, जोकि संस्कार रूप में उनके साथ जाकर पुनः अथवा पुनरपि जन्म में पुष्पित एवं पल्लवित होकर ही रहेंगे।

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