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Magazine - Year 1970 - Version 2

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गति का दर्शन और परमगति

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हम जब यह कहते हैं कि यह कमरा जिसमें हम रह रहे हैं—‘स्थिर है’ तो उसे झूठा कहने का किसी को भी अधिकार नहीं है। प्रकृति भी हमें ऐसा सोचने से विवश नहीं करती। किन्तु ऐसा हम तभी तक कह सकते हैं, जब तक कि हम इस कमरे से या यह कमरा जिस वस्तु पर (पृथ्वी पर) आधारित है, से संबंध बनाये हुए है। यदि हमें आकाश में सूर्य−चन्द्रमा, तारे नहीं दिखाई देते, केवल आकाश ही आकाश दिखाई देता तो हमें अपने कमरे के स्थिर होने में कतई सन्देह नहीं होता।

जब हम सूर्य−चन्द्रमा अथवा अन्य नक्षत्रों को घूमते हुए देखते हैं, तब हमें अपनी भूल का पता चलता है। हम सम और पदार्थ की सापेक्षता से बँधे हुये हैं, इसलिये जितने समय पृथ्वी में हैं, उतने समय में हम सोच भी नहीं सकते कि पृथ्वी चल रही है, लेकिन जब नक्षत्रों की विस्तृत खोज हुई तो पता चला कि हमारा ऐसा सोचना कि पृथ्वी या कमरा स्थिर है, भ्रम था, लगता था। सच बात यह है कि यह कमरा भी बराबर चल रहा है। उतने ही वेग से जितने वेग से पृथ्वी चल रही है।

मान लें पृथ्वी की गति 1000 मील प्रति सेकिंड है, तब इस कमरे में जो ईथर भरा हुआ है, वह भी 1000 मील प्रति सेकिंड की गति से चल रहा होगा। प्रकृति के सभी कार्य जो इस कमरे में हो रहे हैं, वह सब 1000 मील प्रति सेकिंड की गति से चल रहे हैं, इसलिये हमें चलने की स्थिति का पता नहीं चलता। पर वहीं पर हवा की गति इससे अधिक होती है, इसलिये उसकी गति का हम सीधे अनुमान कर सकते हैं, यदि संसार में गति के नियमों में सापेक्षता न होती तो हमें यह पता भी नहीं चलता कि हम स्थिर हैं या चल रहे हैं।

पृथ्वी सूर्य के आस−पास 18 मील प्रति सेकिंड की तीव्र गति से घूमती है, जबकि घड़ी की सुई एक सेकिंड में बहुत छोटा भाग (बन ग्रेजुएशन) घूमती है, हम इसी से अनुमान कर सकते हैं कि पृथ्वी कितनी तेज चल रही हो पर क्या हम उसे महसूस करते हैं? नहीं—यही हमारा भ्रम है कि हम जो कुछ भी देखते हैं, वह सब सापेक्ष (रिलेटिव) है और हम सत्य को नहीं जानते।

हम समय और पदार्थ से बँधे हैं, इसलिये पुनर्जन्म की स्थिति को नहीं समझ पाते। पूर्वजन्म में जब हम बैल या हिरन थे, तब हम भिन्न प्रकार के समय और पदार्थों से बँधे थे, इसलिये हमें पूर्ण समय और ब्रह्मांड की स्थिति का ज्ञान नहीं हो पाया था, वैसे ही गति के नियम के अनुसार अब मनुष्य शरीर में आ जाने पर फिर समय और ब्रह्मांड की सापेक्षता से बँध गये हैं, इसलिये पहले जन्म के संबंध में कुछ भी ध्यान नहीं रहा। यदि हम समय, स्थान या ब्रह्मांड के साथ अपनी गति के नियम की सापेक्षता को समझते और परम−गति (एब्सोल्यूट मोशन) की अवस्था को जानने का प्रयत्न करते तो संसार की यथार्थता, परलोक, पुनर्जन्म, इच्छाओं, कर्मफल, आत्मा, परमात्मा, स्वर्ग और मुक्ति की यथार्थता को भी समझना हमारे लिये सम्भव हो जाता।

गति या वेग के सभी माप (मेजरमेन्ट्स) किसी न किसी से संबंधित हैं। अतः सब प्रकार की गति से दृष्टा सापेक्ष है। उदाहरण के लिये एक रेलगाड़ी 60 मील प्रति घण्टा की रफ्तार से जा रही है, उसी ट्रेन का टिकट कलेक्टर 5 मील प्रति घंटा की गति से इंजन की ओर बढ़ रहा है, इस अवस्था में सड़क पर खड़े दृष्टा को ऐसा लगेगा कि टिकट कलेक्टर 65 मील प्रति घण्टा की रफ्तार से चल रहा है। दो गाड़ियाँ 40-40 मील प्रति घंटा की रफ्तार से एक ही दिशा में चल रही हैं, तब एक गाड़ी के यात्री देखेंगे कि दूसरी गाड़ी खड़ी है, दूसरी गाड़ी वाले यात्री पहली गाड़ी को खड़ी अनुभव करेंगे। किन्तु यदि दोनों गाड़ियाँ इसी रफ्तार से विपरीत दिशाओं में चल रही होतीं तो दोनों गाड़ियों के यात्री एक दूसरे को 80 मील प्रति घटा की रफ्तार से चलते हुए अनुभव करते।

इस तरह सापेक्षता के सिद्धांत का पहला नियम यह है कि साधारण परमगति (एब्सोल्यूट ट्रान्सलेटरी वेलासिटी) जो कि स्थान को किसी भी परिस्थिति में किसी भी तरीके से होती उसका माप कभी प्राप्त नहीं किया जा सकता। दूसरी बात यह है कि मुक्त आकाश (फ्री स्पेस) में प्रकाश का वेग किसी भी दर्शक को एक−सा प्रतीत होता है। हम चल रहे हों तो भी प्रकाश की गति में कोई सापेक्षता दृष्टिगोचर नहीं होती। अर्थात् जिस गति से प्रकाश हमारी आँखों की पुतली रेटिना’ से टकराता है, उसी गति से हमारी आँखों से झरने वाला प्रकाश भी साधन (मीडियम) की ओर चलता है तभी हम प्रकाश की गति को देख नहीं पाते। अर्थात् हममें और प्रकाश की सघनता में कोई अन्तर नहीं है। हम स्वयं आत्मा या ईश्वरीय प्रकाश हैं, उसका सबसे बड़ा प्रमाण यही है कि हम गति की सापेक्षता से उठकर परम गति (एब्सोल्यूट मोशन) की अवस्था में पहुँच सकते हैं, जो कि हमारे मस्तिष्क में उसी प्रकार है, जिस प्रकार समय और पदार्थ भी हमारे मस्तिष्क की ही संरचनायें हैं। मस्तिष्क बंध जाता है तो हमें एक सेकिंड का भी पता नहीं चलता, और एक विस्तृत कहानी का साराँश भी तीन घंटे में समाप्त हो जाता है।

सिनेमा बनाने वाली मशीन एक सेकिंड में 100 से भी अधिक फोटो लेने की क्षमता रखती है एक आदमी एक सेकिंड में चलते हुई, जितनी आकृतियाँ और मुद्रायें बदलता है, उन सब को वह मशीन 100 बार अपने भीतर भर लेती है, दुबारा जब उसे पर्दे पर दिखाया जाता है तो उसी गति को इस अंश तक धीमा कर दिया जाता है कि वही फोटो चलती−फिरती दिखाई देने लगती है। यदि बीच में फिल्म कभी कट जाती है और मशीन चलते−चलते रुक जाती है। तो जो जैसा फोटो सामने होता है, वैसा ही बना रह जाता है और वास्तविकता की पोल खुल जाती है कि दरअसल यह तो फोटो और प्रकाश के चलने का खेल मात्र था, कहानी में असलियत है न पर्दे पर कोई नायक−नायिका। हमारे जीवन को भी उसी प्रकार गति के नियम और उसकी सापेक्षता से बाँध दिया जाता है, इसलिये हम चलते−फिरते, खाते−पीते रहते हुये भी अपनी यथार्थ स्थिति को समझ नहीं पाते।

रंग वस्तु का भाग नहीं है। वह सफेद किरणों के विभाजन का परिणाम है। जितने भी रंगीन फूल हैं, वे रात में कभी नहीं खिलते। राज में केवल सफेद फूल ही खिल सकते हैं। अर्थात् प्रकाश से संपूर्ण जगत् व्याप्त है। पर रंगीन फूल दिन में ही खिलता है, वह इसलिये सूर्य का प्रकाश जब पौधों पर पड़ता है और फोटोन्स (प्रकाश का सबसे छोटा परमाणु जिसके टुकड़े नहीं हो सकते) में टूटकर उस आकृति में बदल जाता है, जिस आकृति का फूल दिखाई देता है।

फूल का रात में कोई रंग नहीं होता, सारी प्रकृति भी भूरी या काली लगती है। कारण प्रकाश का न होना ही है। उसी प्रकार संसार का प्रकृट और विराट् रूप वास्तव में कुछ भी नहीं है, वह सब ईश्वरी सत्ता का खेल मात्र है पर्दे के पीछे वही गति के नियमों से आबद्ध काम किया करता है। स्वयं गति में न होने के कारण ही वह सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान है।

प्रकृति में जो भी रंग−बिरंगापन है, वह सब सूर्य के प्रकाश की गति (मोशन) का परिणाम है, यदि सूर्य नहीं होता तो यह प्रकृति न होती। इस भीतर ही भीतर की हलचल को हम देख नहीं पाते, इसलिये परमगति (एब्सोल्यूट मोशन) का पता लगाने में असमर्थ होते हैं और तब तक हम साँसारिक भ्रमों में उसी प्रकार पड़े रहते हैं, जिस प्रकार रात में स्वप्न देखने पर सब कुछ सच−सच सा लगता है। मस्तिष्क की अवस्था बदलते ही वह झूठ हो जाता है। यह सत्य हो जाता है। मस्तिष्क की अवस्था बदलने पर ही अब जो दिखाई दे रहा है, वह भी गलत हो जाता है और हमारी इच्छायें जिस ढाँचे में ढली हुई होती हैं, हम उन योनि वाले संसार में चल जाते है, तब हमें वही सत्य लगता है। बाकी सब असत्य। इस भ्रम को मस्तिष्क की सीमा में बने रहकर ही समझ सकते हैं, जब तक गति की सापेक्षता से बँधे रहें, तब तक न तो यह भ्रम समझ में आयेगा और न हम अपने दृष्टिकोण और व्यवहार में परिवर्तन के लिये तैयार होंगे। उसमें अपना भले ही कितना ही अहित क्यों न होता हो। मनीषी और अध्यात्म तत्त्ववेत्ता चिन्तन पर इसीलिये जोर देते हैं कि हम अधिक से अधिक मस्तिष्क में रहें, ताकि यथार्थ हमारी समझ में उतरता रहे।

जिस प्रकार रंग प्रकाशीय प्रदर्शन (इन्टरफ्रिटेक्शन) मात्र था। उसी प्रकार हमारा शरीर भी जीवाणुओं (सेल्स) की गति (मोशन) के परिणामस्वरूप ही अदलता−बदलता दिखाई देता है। इसके भीतर भी सूर्य के प्रकाश की भाँति एक चेतना गतिशील है और वह भी निरंतर विकीर्ण होती रहती है। मनुष्य की मृत्यु एक दिन में नहीं होती या यों कहें कि शरीरान्त एक दिन का परिणाम नहीं होता, वह प्रक्रिया तो जन्म लेते ही प्रारम्भ हो जाती है। हम आहार लेते हैं, साँस लेते हैं, पानी पीते हैं, उसके द्वारा प्राण तत्त्व भीतर भरते जाते हैं, यह प्राण विचारों के रूप में सदैव निकलता रहता है। आहार के साथ शरीर में पहुँचने वाला पदार्थ भी मैल, पसीना, थूक, पेशाब, बदबू के रूप में निकलता रहता है। जब तक निकालने की क्रिया मन्द और ग्रहण की क्रिया में तीव्रता रहती है, हमारा शरीर बढ़ता है पर यह परिस्थिति बदलते ही शरीर बूढ़ा होने लगता है, जिस दिन प्राण का आखिरी कण तक निकल जाता है, उसी दिन यह शरीर निश्चेतन हो जाता है।

शरीर में इतनी गति होती रहती है पर जीवाणुओं को उसका पता नहीं चल पाता उसका कारण गति की सापेक्षता ही है। हम शरीर से बँधे रहते हैं, शरीर को ही सब कुछ माने होते हैं, उसे दृष्टा की भाँति अलग करके नहीं देखते, इसलिये परिस्थिति की गम्भीरता समझ में नहीं आती, यदि इन्द्रियों की लिप्सा, शरीर को ही अपना स्वत्व मानने की भूल को त्यागकर केवल मस्तिष्क में ही देखें तो शरीर के एक−एक अणु में गति (मोशन) होती दिखाई देगी।

संपूर्ण भ्रम का कारण यह है कि हम जहाँ भी हैं समय और स्थान की भाँति गति के नियमों से भी सापेक्ष (रिलेटिव) हो गये हैं। यदि इस बंधन को तोड़कर स्वतंत्र ध्यान और चिन्तन को बढ़ा पायें तो देखें कि सूर्य−चन्द्रमा, बुध−बृहस्पति और सारा ब्रह्मांड ही हलचल में है। हलचल गति या वेग की उन्मुक्त अवस्था जिसे हम मस्तिष्क में एक क्षण रुककर अनुभव करते हैं, सदैव−सदैव के लिये प्राप्त कर लें तो परमगति को प्राप्त करना भी हमारे लिये सम्भव हो सकता है। वही मुक्ति, मोक्ष या परम−पद है और मुक्ति किसी स्थान विशेष में नहीं है।

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