• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • सत्य के लिए सर्वस्व त्याग
    • संस्कृति के लिए त्याग
    • गति का दर्शन और परमगति
    • गृहस्थ का सन्देह
    • विज्ञान द्वारा प्रमाणित अन्तर्चेतना को भूला न जाय।
    • इस संसार में सब कुछ चेतना ही है।
    • वाणी की शक्ति
    • आत्म−शक्ति का कुछ ठिकाना नहीं?
    • लड़ रहा हो जब स्वयं विज्ञान से विज्ञान
    • लुहार का घमण्ड
    • वासना स्वभाव नहीं विकार मात्र
    • मनुष्य शरीर जैसी मशीन नहीं
    • शरीर का ही नहीं−आत्मा का भी ध्यान रखें।
    • चार मित्र
    • मुशल पर्व आस्ट्रेलियाई खरगोशों का
    • जल (वरुण देवता) की अनुपम अद्भुत और अन्यतम सत्ता
    • माँसाहार का पाप पूर्व को भी पश्चिम न बना दे।
    • पुरुषार्थ
    • अपनी कमाई—सदा काम आई
    • हमारा दृष्टिकोण अध्यात्मवादी बने
    • श्रम का पुरस्कार
    • बदलती परिस्थितियों में स्वयं भी बदलें
    • संसार का अधिकार
    • महानता का जनक शुद्ध अहंभाव
    • श्रमशील इंका जाति
    • हृदय−परिवर्तन
    • मेजर कार्लडिक को एक साधु का श्राप
    • आत्मिक प्रगति के लिए−उत्कृष्ट शिक्षा की आवश्यकता
    • खून बहाना पसन्द नहीं
    • दांपत्य जीवन की तैयारी और पत्नी−व्रत
    • लोकमान्य तिलक
    • मानव मस्तिष्क की वैभव विभूतियाँ
    • स्वप्नों की सत्यता का रहस्य क्या है?
    • गुरु−भक्ति की परीक्षा
    • आप मेरे गुरु हैं
    • जीवन के उतार-चढावों पर उद्विग्न न हों।
    • मानवता का प्राण −अध्यात्म नष्ट न होने पाये।
    • पूज्य आचार्य जी के आगामी कार्यक्रम
    • मन की प्यास
    • मन की प्यास (Kavita)
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Magazine - Year 1970 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT SCAN


मानवता का प्राण −अध्यात्म नष्ट न होने पाये।

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 36 38 Last
भारतीय इतिहास का उज्ज्वल अतीत इस कारण शानदार रहा कि तब आदर्शवादिता को विचारणा एवं क्रिया में महत्त्वपूर्ण स्थान मिलता था। सोचने का स्तर उदारता एवं विवेकशीलता से और क्रिया का स्तर लोकमंगल एवं आदर्शों की रक्षा से अनुप्राणित रहता था। जहाँ उस रीति-नीति को प्रश्रय मिलेगा, वहाँ सुख और शाँति का, प्रगति और समृद्धि का बाहुल्य रहना स्वाभाविक है। इस आधार को जब कभी भुलाया जायगा—उपेक्षित किया जायेगा एवं ओछापन अपनाया जायगा, तभी पतन एवं संकट की विपन्नतायें इकट्ठी होती चली जाएंगी। साधनों की दृष्टि से हम अपने पूर्वजों से बहुत आगे हैं—अस्तु हमें उनकी अपेक्षा अधिक समर्थ, सशक्त, सम्पन्न एवं सफल होना चाहिए था। किन्तु हो ठीक उल्टा रहा है। इसका कारण हमारी विचारणा में घटियापन आ जाने से क्रियाओं का अवाँछनीय हो जाना ही है। उस स्थिति को जब तक न बदला जायगा तब तक अन्य छुट-पुट प्रयत्न मन बहलाव के बाल-विनोद मात्र सिद्ध होते रहेंगे।

अध्यात्मवाद का समस्त कलेवर इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए विनिर्मित हुआ है कि व्यक्ति आन्तरिक दृष्टि से—भावनात्मक स्तर पर अपनी उत्कृष्टता सुरक्षित रखने एवं बढ़ा सकने में समर्थ बना रहे। और बाह्य दृष्टि से—क्रिया स्तर पर आदर्शवादिता भरे संयमित, मर्यादित एवं लोकमंगल के लिए गतिविधियाँ अपनाये रहने की तत्परता बरते। पूजा, उपासना, कथा, वार्ता, तीर्थ, मंदिर, व्रत, अनुष्ठान, जप-तप तथा नियम-संयम, स्नान-ध्यान, दान-पुण्य आदि की अध्यात्मिक प्रक्रियाओं के आधार पर यदि बारीकी से दृष्टिपात किया जाय तो एक ही निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ेगा कि इन मनोवैज्ञानिक क्रिया-कलापों का प्रयोजन व्यक्ति की अन्तरंग उत्कृष्टता का अभिवर्धन करना है। आस्तिकता का अर्थ है, ईश्वर विश्वास। ईश्वर विश्वास का अर्थ है—एक ऐसी न्यायकारी सत्ता के अस्तित्व को स्वीकार करना, जो सर्व-व्यापी है और कर्मफल के अनुरूप हमें गिरने एवं उठने का अवसर प्रस्तुत करती है। यदि यह विश्वास कोई सच्चे मन से कर ले तो उसकी विवेक-बुद्धि कुकर्म करने की दिशा में एक कदम भी न बढ़ने देगी। हम आग नहीं छूते, जहर नहीं खाते तो कोई कारण नहीं कि सर्व-व्यापी कर्मफल के अनुरूप सुख-दुख देने वाली ईश्वरीय सत्ता विधि-व्यवस्था तोड़ने और अनाचार अपनाने का दुस्साहस करें। आस्तिकता हमें उसी निष्कर्ष पर पहुँचाती है। वह हमें विवश करती है कि यदि सुख-शाँति के लिए आकर्षण है तो सत्प्रवृत्तियों और सद्भावनाओं का ही अवलम्बन ग्रहण करना चाहिए। संक्षिप्त में आस्तिकता का तत्त्व हमारे अन्तरंग में उत्कृष्टता एवं बहिरंग में आदर्शवादिता की अधिकाधिक मात्रा का समावेश करने वाला अन्तःविश्वास ही कहा जा सकता है।

इसी केन्द्र-बिन्दु पर आस्तिकता का समस्त दार्शनिक एवं प्रयोगात्मक आधार खड़ा किया गया है। समस्त धर्म-ग्रन्थों में विविध विधि कथा, उपाख्यानों द्वारा इसी तथ्य का प्रतिपादन है। धार्मिक कर्मकाण्डों के द्वारा इसी आस्था को हृदयंगम कराने को मनोवैज्ञानिक उपचार कहा जा सकता है। योग शास्त्र का प्रयोजन कुसंस्कारों एवं लिप्साओं को संघर्ष करके ऊर्ध्वगामी मनस्विता को प्रखर बनाना है व्यक्ति ईश्वर का पुत्र है, उसमें अपने पिता की समस्त विभूतियाँ एवं महत्ताएं बीज रूप में विद्यमान हैं, साधना का प्रयोजन अन्तःकरण पर चढ़े हुए उन मल आवरण विक्षेपों को हटाना है, जो हमें देवत्व से वंचित कर नर-पशु की स्थिति में डाले हुए हैं। तपश्चर्या इसी मलीनता को स्वच्छ करती और प्रस्तुत ऋद्धि-सिद्धियों का जागृत करके दैवी वरदान की तरह लघु को महान् बना देती है।

आस्तिकता और उपासना का सारा आधार यही है। धार्मिकता का कलेवर कितना ही बड़ा क्यों न हो उसकी शाखायें कितनी ही क्यों न हों, बीज मूल की तरह तथ्य इतना ही है कि व्यक्ति अपनी महान महत्ता को समझे, उसी के अनुरूप सोचे और गतिविधियाँ अपनाये। व्यक्ति और समाज की प्रगति एवं सुख-शाँति का आधार इतना ही है। उत्थान और पतन का सौभाग्य, दुर्भाग्य इन्हीं तथ्यों पर पूर्णतया निर्भर है। सद्गुणी, सदाचारी, उदार और जन-कल्याण की भावनाओं से ओत-प्रोत मनुष्य ही सच्चा मनुष्य है, देवता उसी को कहते हैं और वह जहाँ भी रहता है, वहाँ स्वर अनायास ही अवतरित होकर रहता है। परिस्थितिवश कुछ कष्टकर परिस्थितियाँ भी सामने आ जाएं तो भी उच्च दृष्टिकोण रखने वाले उनका कोई बहुत बुरा प्रभाव उत्पन्न नहीं होने देते वरन् अपनी सत्प्रवृत्तियों को और भी अधिक उत्तमता से प्रस्तुत करने का एक ईश्वरीय परीक्षा का सौभाग्य सुअवसर मानते हैं और अपनी महानता को और भी अधिक प्रखरता के साथ प्रस्तुत करते हैं। इस प्रकार सामान्य लोगों के लिए जो घटनायें विपत्ति जैसी लगती हैं, वे ही अध्यात्मवादी के लिए अधिक प्रखर एवं यशस्वी होने की ईश्वरीय अनुकम्पा सिद्ध होती है। इस तथ्य में दो मत नहीं हो सकते कि उत्कृष्ट और आदर्शवादी व्यक्ति ही अपने और समस्त विधि के लिए एक वरदान बन कर जीते हैं। उन्हीं से संसार में सुख-शाँति, सुव्यवस्था, प्रगति और समृद्धि की सम्भावनाएँ साकार होती हैं। मनुष्य जाति का सारा सौभाग्य अध्यात्म के सूर्य से प्रभावित होता है। इसकी विमुखता घोर अन्धकार और आपत्ति भरी अस्त-व्यस्तता ही उत्पन्न करती है। आज की विपन्न परिस्थितियों का तात्विक कारण हमारी अनास्था ही है। उच्च आदर्शों से विमुख होकर संकीर्ण स्वार्थता अपनाने वालों की सदा ही दुर्गति होती रही है। प्रकृति के इस अटल नियम को कोई चुनौती नहीं दे सकता। निकृष्ट स्तर के व्यक्ति कभी शाँति से न रह सकेंगे और उनके बाहुल्य वाला समाज कभी भी समुन्नत न बन सकेगा।

यदि हम व्यक्ति और समाज के उत्कर्ष की बात सोचते हों तो हमें उसके मूल आधार ‘अध्यात्म’ की ओर ध्यान देना होगा और उसको स्वस्थ स्थिति में लाकर जन-मानस में गहराई तक प्रतिष्ठापित करने के लिए घोर प्रयत्न करना होगा। यदि इस ओर ध्यान न दिया गया तो राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, बौद्धिक, वैज्ञानिक क्षेत्रों में कितने ही—कुछ भी प्रयत्न किये जाते रहें, उनका तनिक भी संतोषजनक परिणाम उत्पन्न न होगा। कोई योजना कितनी ही उत्तम क्यों न हो, उसे चलाने वाले, कार्यान्वित करने वाले, उत्कृष्ट व्यक्तित्व और आदर्शवादी गतिविधियाँ अपनाने वाले न हों। ओछे और कमीने लोग जो भी कार्य हाथ में लेंगे उसे अपने दुर्गुणों के कारण कलुषित कर देंगे। और वही लाभदायक की जगह हानिकारक बन जायगा। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हम हर क्षेत्र में देखते हैं। उच्च आदर्शों के लिए बनी हुई, संस्थाएं आज पद लिप्सा और धन-लोभ के कारण संघर्ष का अखाड़ा बनी हुई हैं।

मानव-जीवन का प्रत्येक क्षेत्र आज कंटकाकीर्ण और असुविधाओं से भरा हुआ है। जो आधार हमें प्रगति और प्रसन्नता में सहायक सिद्ध होने चाहिए थे, वे ही हमें शोक-संताप देकर दुःखों में वृद्धि कर रहे हैं। शरीर रुग्ण, मन अशांत, परिवार उद्विग्न, समाज विक्षुब्ध, धन जंजाल, शिक्षा अनुपयुक्त किसी भी दिशा में दृष्टिपात करें, सर्वत्र उलझनें और विभीषिकायें ही दीखती हैं। लगता है सुख शाँति के सारे आधार उलटकर दुःख दैन्य के कारण बन गये हैं। इस विडम्बना का एकमात्र कारण अध्यात्म की उपेक्षा है। अध्यात्म मानव जीवन का प्राण है, उसे जिस क्षेत्र से भी तिरस्कृत, बहिष्कृत किया जायगा उसी में विपन्नता उत्पन्न हो जायगी। जल के बिना मछली नहीं जी सकती, मानवीय शाँति भी अध्यात्म की उपेक्षा करके जीवित नहीं रह सकती। आज की श्मशान जैसी सर्वव्यापी जलन का एकमात्र कारण यही है।

आर्थिक क्षेत्र में उपार्जन उत्पादन काफी बढ़ा है। पैसा पहले की अपेक्षा कम नहीं अधिक है। पर इतने पर भी हम आर्थिक तंगी और भी चौगुनी, सौगुनी अनुभव कर रहे है। कारण यह है कि व्यक्तिगत जीवन में हम अधिक अपव्ययी और विलासी बनते चले जा रहे हैं और व्यापारिक क्षेत्र में जमाखोरी, मुनाफाखोरी, तस्करी, मिलावट, धोखाधड़ी पनप रही है। उत्पादन बढ़ता है पर महंगाई नहीं घटती। कमाई बढ़ती है पर तंगी दूर नहीं होती, इस गोरख धन्धे के पीछे उत्पादक, उपभोक्ता और व्यापारी, वितरकों को ओछी दृष्टि ही झाँकती है। लोग उचित आवश्यकता पूर्ण करने भर के लिए उचित श्रम और संग्रह करने का आदर्श अपना लें तो जितनी कुछ अर्थ व्यवस्था आज उपलब्ध है, उसी में बड़े संतोष, आनन्द और हर्षोल्लास के साथ सारे समाज का काम चल सकता है और वास्तविक प्रगति के सभी अवरुद्ध मार्ग सहज ही खुल सकते हैं।

बढ़ते हुए अपराधों की संख्या आर्थिक नहीं अध्यात्म के अभाव में बढ़ रही है। नीति, धर्म और सदाचार का बाँध टूट जाय, व्यक्ति, ईश्वर, परलोक और कर्मफल की सुनिश्चिता पर विश्वास न करे तो फिर अनीति अपनाकर तत्काल लाभ प्राप्त करने के प्रलोभन से फिर उसे कोई नहीं बचा सकता। फिर वह राज-दंड और समाज-दंड से बचने की हजारों तरकीबें ढूंढ़ निकालेगा और गुप्त या प्रकट रूप से परिस्थिति के अनुसार अपनी योजनानुसार दुष्कर्म करता रहेगा। किसी भी धूर्त और सूझ-बूझ वाले व्यक्ति के लिए प्रलोभन अथवा आतंक की स्थिति उत्पन्न कर शासन अथवा समाज में दंड से बहुत ही सरलतापूर्वक बचते हुए अपराध पूर्ण दुष्कर्म करता रह सकता है। हम देखते हैं कि दुष्ट, दुराचारियों की संख्या दिन-दूनी राज चौगुनी बढ़ रही है।

गिरते हुए स्वास्थ्य का एक मात्र कारण असंयम है। जब तक विलासिता और वासना के प्रति वर्तमान आकर्षण बना रहेगा, जब तक आहार-विहार की मर्यादाओं को तोड़कर अप्राकृतिक रीति-रिवाज को अपनाये रहा जायगा, सर्वजनीन स्वास्थ्य की स्थिति निरन्तर गिरती ही चली जाएगी। औषधि उपचार से स्वास्थ्य के संरक्षण एवं संवर्धन हो सकने की भ्रान्त धारणा मृग-तृष्णा की तरह है। उससे मन बहलाव तो हो सकता है पर प्रयोजन की पूर्ति सम्भव नहीं। अस्वस्थता-जन्य कष्ट बढ़ते ही जायेंगे, बीमारियों का प्रकोप और प्रवाह दिन-दिन प्रबल ही होता चला जाएगा।

व्यक्ति जब कभी सच्चे मन से स्वास्थ्य की आकाँक्षा करेगा और सशक्त शरीर का महत्व समझेगा, तब उसे अध्यात्म की ही शरण में आना पड़ेगा और संयम, नियमितता और प्रकृति के अनुसरण का अवलम्बन लेना पड़ेगा। वर्तमान अस्त-व्यस्त और अप्राकृतिक रहन-सहन अपनाये रहा गया तो जन स्वास्थ्य में निरन्तर गिरावट आती चली जाएगी और अन्ततः जीवित रहना एक भार मात्र बन जाएगा। इस दुष्परिणाम से उबारने का उपाय चिकित्सा विज्ञान की प्रगति नहीं, संयम शिक्षा ही सिद्ध होगा। अध्यात्म की शरण में आये बिना हम निरन्तर अधिकाधिक वंचित होते चले जायेंगे।

परिवार एक छोटा समाज है, जिसमें व्यक्ति को उसी तरह जुड़ा रहना पड़ता है जैसा कि शरीर के साथ उसके हाथ-पाँव आदि अवयव जुड़े रहते हैं। परिवार का सहयोग सौहार्द, सद्भाव और संतुलन स्वर्गीय आनन्द का सृजन करता है। संसार के समस्त सुखों की तुलना में पारिवारिक सौहार्द का महत्व भारी बैठता है। माता-पिता का वात्सल्य पत्नी का प्रेम, भाई-बहिनों का सहयोग, बच्चों की श्रद्धा और अन्य कुटुम्बियों का सद्भाव जिसे उपलब्ध है, उसे भाग्यवान ही कहना चाहिये। मानव-जीवन की यह एक बहुत बड़ी उपलब्धि है। पर यह जिस मूल्य पर खरीदी जा सकती है, वह हमारी आध्यात्मिक आस्था ही है। हम स्वयं अपने भीतर उदारता, सद्भावना, ममता, सेवा, करुणा कृतज्ञता और सौहार्द की भावनाओं से ओत-प्रोत रखकर परिवार के हर सदस्य के साथ भाव भरी ममता रखें सज्जनतापूर्ण व्यवहार करें और उनकी त्रुटियों को उदारतापूर्वक सहते-निवाहते और क्रमशः सुधारते चले जायें तो अपनी यह शालीनता कटु कर्कश स्वभाव के परिजनों को भी अपने ढाँचे में ढाल लेगी और बरबस उनका सद्भाव और सहयोग खिंचता चला आयेगा। लाँछना, तिरस्कार, दबाव, उपेक्षा, घृणा और ताड़ना का आतंक भले ही किसी को कुछ समय के लिये चुप करा दे या कुछ करा ले पर उससे आन्तरिक दुर्भावों की और भी अधिक वृद्धि होती है। शरीर से कोई अनुकूल बन भी जाये, किन्तु भीतर से प्रतिकूल बना रहे तो इस विडंबना भरी स्थिति में कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता।

पारिवारिक आनन्द के लिए गहन अन्तस्तल से निकलने वाले सद्भाव की आवश्यकता है और हमें केवल वे ही उपलब्ध करा सकते हैं, जो स्वयं उदार सहृदय और सेवा भावनाओं से परिपूर्ण हैं। परिवार में स्वर्गीय वातावरण का सृजन केवल आध्यात्मिकता के आदर्श ही कर सकते हैं। जब यह तथ्य लोगों के अन्तःकरणों में प्रतिष्ठित हो जायगा तो तभी यह आशा की जा सकेगी कि गरीब रहते हुए भी छोटे घर घरौंदों में रहकर व्यक्ति आनन्द और उल्लास भरे दिन बिता सके।

मानसिक शाँति और संतुलन का आधार यों लोगों की समझ में धन की बहुलता और परिस्थितियों की अनुकूलता ही माना जाता है पर वास्तविकता यह है नहीं। यदि ऐसा होता तो धनी−मानी लोगों की आन्तरिक स्थिति संतोष एवं शाँति से भरी−पूरी पाई जाती। किन्तु देखा इससे प्रतिकूल जाता है। सम्पन्न लोग बाहर वालों को ही सुखी दीखते हैं। कोई भीतर से उन्हें देख सके तो पता चलेगा कि वैभव का सदुपयोग कर सकने की बुद्धि न होने के कारण वह सम्पदा उनके लिये अनेक उलझनें, चिन्तायें, कुत्सायें, कुण्ठायें, आशंकायें और विभीषिकायें उत्पन्न करने वाली बनी हुई है। बाहर से मित्र दीखने वाले ही भीतर से उनके शत्रु बने हुए हैं। घात− प्रतिघात ने उनकी मनः−स्थिति को विक्षुब्ध किया हुआ है और अति अशाँति भरा जीवन वे जी रहे हैं। मानसिक शाँति, वैभव पर आधारित नहीं है। वह तो सोचने की सही दिशा पर अवलम्बित है। जिसे विचारों को क्रम से सजाना, संभालना, मोड़ना, बदलना एवं सुधारना आता है, केवल वही सुखी, संतुष्ट और हर्षोल्लास भरा जीवन जी सकता है। यह स्थिति आध्यात्मिक आस्थाएं अपनाने से ही उपलब्ध हो सकती है। विचार करने की कला—अध्यात्म तत्त्व−ज्ञान का प्रधान अंग है। जिसने इसे सीख लिया उसकी शिक्षा पूर्ण हुई, समझी जानी चाहिये। जिसे यह सीख नहीं मिली, उसकी सारी पढ़ाई मानसिक शाँति की दृष्टि से निरर्थक है, भले ही उसे बाजार से बेचकर कुछ पैसे कमाये जाते रहें। अस्तु विचारों का ही परिणाम चिन्ता, निराशा, द्वेष, असन्तोष, घृणा, क्रोध, उद्वेग और विक्षोभ के रूप में देखा जाता है।

जिसकी विचार पद्धति व्यवस्थित है, उसे हर परिस्थिति में आशा, उत्साह, सन्तोष, संतुलन आनन्द, उल्लास और उज्ज्वल भविष्य का प्रकाश परिलक्षित होता रहेगा। गरीबी में भी अमीरों का आनन्द विचारशील लोग उठाते हैं और अविवेकी लोग अमीरी में भी अभाव और उद्वेग की आग में जलते हैं। दृष्टिकोण की परिष्कृति विवेकशीलता और दूरदर्शिता यदि अपने में हो तो व्यक्ति अपने को हर स्थिति में समर्थ, संतुष्ट और सुसम्पन्न अनुभव करता रह सकता है। यह मनःस्थिति आध्यात्मिक आस्थाओं पर ही अवलंबित है, ऐसे आस्थावान देवोपम हर्षोल्लास भरा जीवन जीते हैं। और जहाँ भी रहते हैं, सुख−शाँति के स्वर्गीय वातावरण का सृजन करते हैं।

समाज में व्यापक रूप से फैली हुई कुरीतियों और अनैतिकताओं ने उसे जर्जर, विसंगठित और दीन−दुर्बल बनाकर रख दिया है। ऐसे समाज का हर सदस्य अपने आपको अशाँत एवं असुरक्षित ही अनुभव करेगा, उसे अपने चारों ओर घिरा वातावरण आक्रमणकारी, आशंका भरा और अविश्वस्त ही अनुभव होता रहेगा। समाज में अवाँछनीय परम्परायें चल पड़ें तो उसके सदस्यों का स्तर हर दृष्टि से दयनीय बना रहेगा। अपने समाज में नारी जाति के प्रति, अछूतों के प्रति जो ओछी मान्यता प्रचलित है, उसने आधी जनसंख्या को अविकसित, असमर्थ और असन्तुष्ट बनाकर रख दिया है। आधे शरीर को लकवा मार जाने की तरह नारी तथा अछूतों के प्रति अवाँछनीय दृष्टिकोण रखने के कारण हिन्दू−जाति अपंग और असहाय बनकर रह गई है।

जाति−पाँति और ऊँच−नीच की मान्यताओं ने एक ही जाति को हजारों टुकड़ों में खंड−खंड करके इतना दुर्बल बना दिया है कि विदेशी शक्तियाँ उतनी आसानी से इतनी बड़ी जाति को लंबे समय तक पद दलित बनाये रह सकीं, जैसा कि भेड़ों के झुँड पर ग्वाले के लिए भी सम्भव नहीं होता। विवाह−शादियों के समय होने वाले अपव्यय, मालमाल और धूम−धड़क्के की परम्पराओं ने जन−समाज को दरिद्र और अनैतिक बनाकर रख दिया है। एक दूसरे को ठगने और अनुचित लाभ उठाने की अनैतिक प्रवृत्ति ने सारे समाज का ढाँचा ही लड़खड़ा दिया है। इन दिनों अपनी छाया पर भी विश्वास करना कठिन हो रहा है। ऐसे समाज के सदस्य अपने को असुरक्षित ही अनुभव करेंगे और एक दूसरे से अधिक पतित बनने की प्रेरणा ही ग्रहण करेंगे।

समाज सुधार के लिए यों कतिपय प्रकार के प्रयत्न तथा आन्दोलन चलते रहते हैं और उनकी असफलता और निरर्थकता भी सामने आती रहती है। समाज का बिगाड़ अविवेक और अनौचित्य को अस्वीकार करने के साहस की कमी से उत्पन्न हुआ है। सुधार उस दिन से आरम्भ होगा जिस दिन लोग अनीति और अनौचित्य का प्रतिरोध करने के लिए खड़े हो जायेंगे और यह न देखेंगे कि वह अवांछनीयता कितने दिनों से प्रचलित, किसके द्वारा प्रतिपादित तथा कितनों द्वारा व्यवहृत है। अनौचित्य के विरुद्ध एकाकी लड़के का शौर्य आध्यात्मिक तत्त्व−ज्ञान अपनाने से ही सम्भव है। यह उपलब्धि जिस दिन अपने लोगों में जड़ जमाने लगे, समझना चाहिये कि समाज सुधार का शुभारंभ हो गया।

कहना न होगा कि सामाजिक वातावरण का उसके सदस्यों पर असाधारण प्रभाव पड़ता है। उत्कृष्ट परिस्थितियों में ही उत्कृष्ट व्यक्तियों का निर्माण होता है। और फिर ये उत्कृष्ट व्यक्तित्व ही समर्थ समाज की रचना करते हैं। यदि हमें अपना समाज सुविकसित, सभ्य और समर्थ बनाना हो तो उसकी मान्यताओं और गतिविधियों में आध्यात्मिकता का समुचित समावेश करना होगा। यह समावेश ही हमें अपने अतीत की गौरवपूर्ण स्थिति तक पुनः पहुँचा सकने में समर्थ होगा।

राजनीति में आज की गन्दगी हर किसी को निराश कर देती है। लगता है स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए अतीत में जो महान् बलिदान हुए थे, वे व्यर्थ चले गये। नित नई योजनायें बनती हैं और जनता पर कर और ऋण का भार बढ़ता चला जाता है, जिन लाभों के उसे सब्जबाग दिखाये जाते हैं, वे अन्त तक आकाश कुसुम ही बने रहते हैं। न देश में प्रगति, न विदेश में प्रतिष्ठा। डींगें हाँकने से काम क्या बनना है, खोखलापन कहाँ तक छिपाया जा सकता है। बीस वर्ष से अधिक समय हमें स्वराज्य प्राप्त हुए हो गया। इतने समय में युद्ध जर्जरित जापान, इटली, जर्मनी, ब्रिटेन, फ्राँस, पोलैण्ड, चैकोस्लेविया आदि पुनः पहले जैसी वरन् उससे भी अच्छी स्थिति में पहुँच गये। अफीमची चीन ने अपना काया−कल्प कर लिया। रूस और अमेरिका कहाँ से कहाँ जा पहुँचे। इस प्रगति के युग में बीस वर्ष बहुत होते हैं। सुव्यवस्थित आधार पर बढ़ने वाले कितनी तेजी से बढ़ रहे हैं, यह देखकर जहां हर्ष और आश्चर्य होता है, वहाँ अपनी ओर देखकर दुःख भी होता है कि हमारा नेतृत्व अपने संकीर्ण स्वार्थों में किस बुरी तरह उलझा हुआ है। भाषा, प्रान्त, सम्प्रदाय, आदि के संकीर्ण स्वार्थों को प्रमुखता देने की होड़ लगी हुई। आत्म−दाह, अनशन, राष्ट्रीय सम्पत्ति जलाना, तोड़−फोड़, षडयंत्र गुंडागर्दी, आपा−धापी जैसी निकृष्टतायें ही मानो अपनी चरम सीमा की ओर बढ़ रही हों।

इन परिस्थितियों में राष्ट्र के उज्ज्वल भविष्य का चित्र दिन−दिन धुँधला ही होता जाता है। राजनैतिक दलों में जिस तरह की अनुशासनहीनता और आपा−धापी फैली हुई है, उनसे समूची राजनीति के प्रति ही अनास्था और निराशा उत्पन्न होती है।

तथ्य यह है कि राजनीति को कूटनीति मात्र बना दिया गया है, उसके साथ जिन आदर्शों का समावेश होना चाहिये, कहने−सुनने भर के लिए रह गये हैं। नेता लोग जोड़−तोड़ मिलाकर उल्लू सीधा करने की नीति पर विश्वास करते हैं, आदर्शों के लिए मर मिटने की लगन यदि उनमें रही होती तो आज गाँधी, तिलक, सुभाष, मालवीय जैसे नेताओं का अभाव अनुभव न होता। उत्कृष्ट व्यक्तियों का राज नेतृत्व जन−साधारण में कितना उत्साह उत्पन्न करता है, इसके उदाहरणों से इतिहास का पन्ना−पन्ना भरा पड़ा है। देश की उत्साहजनक राजनैतिक स्थिति के लिए, तब तक हमें प्रतीक्षा ही करनी पड़ेगी, जब तक कि हर राजनेता के व्यक्तित्व को आदर्शवादिता और उत्कृष्टता की कसौटी पर कसे जाने और खरे उतरने के लिए विवश नहीं कर दिया जाता।

आज की राजनैतिक विभिन्नता का यही एक मात्र हल है। घोषणा−पत्रों में भरी हुई डींगों का जंजाल कुछ प्रयोजन सिद्ध न कर सकेगा, काम विशाल दृष्टिकोण वाले ऊँचे व्यक्तियों से चलेगा और यह उत्पादन केवल आध्यात्मिकता के क्षेत्र में ही सम्भव है। यदि हमारी राजनीति धर्म और अध्यात्म के आदर्शों से जुड़ जाय तो धर्मराज्य, रामराज्य, स्वराज्य और सतयुग के दृश्य उत्पन्न होने में देर न लगे।

धर्म तन्त्र का अपना महत्व और स्थान है। उसकी शक्ति राजतन्त्र से कम नहीं वरन् अधिक है। 56 लाख व्यक्ति सरकारी कर्मचारी नहीं हैं पर साधुओं की संख्या 56 लाख से अधिक है। सरकारी कर्मचारियों को बीबी बच्चों की तथा आजीविका की भी चिन्ता रहती है। साधुओं को इन दोनों चिन्ताओं से भी मुक्ति मिली हुई है। यदि वे अपना कर्तव्य निर्वाह और जन−मानस में उत्कृष्टता उत्पन्न करने वाले रचनात्मक कार्यों में जुट पड़े तो देखते−देखते देश का सर्वतोमुखी काया−कल्प हो सकता है। सात लाख गाँवों में यदि रचनात्मक कार्य करने के लिये 56 लाख साधु जुट जायें तो वे हर गाँव के हिस्से में आठ आते हैं। आठ व्यक्तियों की शक्ति बहुत होती है। वे गाँव में व्यायाम, स्वच्छता, शिक्षा, उद्योग, कुरीति उन्मूलन, नीति सदाचार आदि आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये बहुत कुछ कर सकते हैं।

उनके व्यक्तित्व यदि आदर्शवादिता से संपन्न हों तो सारे जन−समाज पर उनका प्रभाव पड़े बिना नहीं रहेगा और यह देश सच्चे अर्थों में धर्मनिष्ठ बनकर अपनी सर्वतोमुखी समर्थता का अनुपम उदाहरण समस्त विश्व के सामने उपस्थित कर सकता है। धर्म के नाम पर प्रचलित मूढ़ता, अन्ध−विश्वास, परावलंबन और संकीर्णता को हटाकर महान् धार्मिक आदर्शों की आस्था यदि जन−मानस में उत्पन्न की जा सके तो घर−घर में प्राचीनकाल की तरह महापुरुष और नर−रत्न उत्पन्न होने लगें। तब धर्म किसी वर्ग विशेष का व्यवसाय न रहकर जन−साधारण का स्तर उठा सकने में समर्थ हो और संसार में धर्म और धार्मिकता की उपयोगिता समझी जाने लगे।

अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में वर्ग और क्षेत्र विशेष के संकीर्ण स्वार्थों के लिए जो संघर्ष, शोषण, घृणा, आरोप, आक्रमण, विद्वेष और अनाचार उत्पन्न किये जाते रहते हैं, उनकी कोई भी चिनगारी कभी भी विश्व−युद्ध की आग लगा सकती है। और चिर−संचित मानव संस्कृति का अन्त हो सकता है। बढ़ते हुए अणु अस्त्रों की विभीषिका किसी दिन मानव जाति की सामूहिक आत्म−हत्या करके अपने अस्तित्व को गँवा बैठने के लिए विवश कर सकती है। अन्तर्राष्ट्रीय शतरंज का खेल इन दिनों जिस स्तर पर खेला जा रहा है, उसका परिणाम मानव−जाति को कभी न उबरने वाले संकट में धकेल देना ही हो सकता है। छुट−पुट उपायों से काम न चलेगा। आयोग और कमीशनों की रिपोर्टें समस्याओं का हल न ढूंढ़ सकेंगी। विश्व−शाँति का आधार आध्यात्मिकता के आदर्श ही हो सकते हैं।

विश्व−बन्धुत्व और विश्व−परिवार के आदर्श को अपनाकर यदि परस्पर सहयोग, सद्भाव और संरक्षण की नीति अपनाई जाय तो सारा नक्शा ही बदल जाय। तब विवादों का हल पंचायत किया करें। विश्व−शासन का संचालन एक ही नीति पर हो और संसार के समस्त राष्ट्र—विश्व−राष्ट्र के जिले, प्रान्त मात्र रहकर काम करें। युद्ध को अनैतिक घोषित कर दिया जाय और अस्त्र−शस्त्र केवल स्थानीय उपद्रवों की शाँति के लिए प्रयुक्त किये जाने के अतिरिक्त किसी देश का, किसी के विरुद्ध प्रयोग हो सके। सम्पदाओं तथा सुविधाओं के अनुरूप कार्य करने तथा आवश्यकतानुसार पाने की व्यवस्था में बंधे रहना पड़े। न कोई शोषण कर सके, न शोषित रह सके। सबको समान अवसर मिले और सबको नीति−नियम में बंधे रहने के लिए बाध्य होना पड़े।

अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में आध्यात्मिकता का समावेश ही विश्व−बन्धुत्व और विश्व परिवार की परिस्थितियाँ उत्पन्न करेगा। तब सेना पर होने वाला व्यय शिक्षा पर किया जायेगा। युद्ध की तैयारियों में लगने वाली धन,जन एवं बुद्धि की शक्ति बेकारों, बीमारों, गरीबी एवं अनीति के निवारण में लगेगी। संसार में इतनी संपदा मौजूद है कि प्रत्येक व्यक्ति को जीवन−यापन कर सकने तथा आनन्द उल्लास के साधन प्राप्त कर सकने की सुविधा मिल सके। गरीबी और अमीरी को सबमें बाँट दिया जाय तो हर एक के हिस्से में पर्याप्त आ जायगा। और उससे संसार का प्रत्येक व्यक्ति सुखी रह सकेगा। जब अनैतिकता एवं असामाजिकता के कारणों का उन्मूलन हो जायगा तो फिर व्यक्ति को अवाँछनीय करने और अनुपयुक्त सोचने का कोई आधार ही शेष न रह जायगा। धन की अनावश्यक मात्रा जब संचय करने का अवसर ही न मिले तो कोई क्यों चोरी, बेईमानी करेगा, ईर्ष्या करने और ललचाकर अमीरी भोगने का जब अवसर ही नहीं है तो वे दुष्प्रवृत्तियाँ जियेंगी कैसे? जब आतंक और अनाचार की हर दिशा से भर्त्सना एवं ताड़ना की प्रतिक्रिया उत्पन्न दीखेगी तो गुण्डागर्दी बढ़ने की कोई गुंजाइश न रहेगी। प्रेम, संयम, सहयोग, समन्वय, सहिष्णुता और समझौता ही जब मानवीय आचार में सर्वत्र घुले दीखेंगे तो वे प्रवृत्तियां जन्म−जात संस्कारों के रूप में हर व्यक्ति को मिलेंगी और विघटनात्मक दिशा में व्यय होने वाली शक्तियाँ रचनात्मक प्रयोजनों में संलग्न होकर इस पृथ्वी पर स्वर्ग का अवतरण करेंगी।

विज्ञान का नियन्त्रण जब विवेक करेगा तो वह बेकारी, गरीबी, आलस्य, विलासिता एवं आतंक उत्पन्न करने वाला न रहेगा। थोड़े से व्यक्तियों को असीम सुविधायें होने का कारण न बनेगा वरन् केवल उपयोगी आविष्कारों तक सीमित रहकर मानवीय प्रगति में सहायक सिद्ध होगा। आज की तरह उसका आतंकवादी एवं विलासी उपयोग जब निषिद्ध घोषित कर दिया जायगा, तब विज्ञान से किसी को विरोध न रहेगा वरन् उसे सुख−शाँति एवं सुविधाओं में सहायता करने वाला उपयोगी अनुचर अनुभव किया जाने लगेगा।

मनुष्य और इतर प्राणियों के साथ आज जो संबंध शोषक, शोषित के बने हुए हैं, उनका कोई कारण न रह जायेगा। माँस की दृष्टि से पशु−पक्षियों का उत्पादन न किया जाय तो उन्हें काटने−मारने की आवश्यकता न रहेगी। शाकाहारी पदार्थ माँसाहार से अधिक पौष्टिक हैं एवं हो सकते हैं। इतर प्राणियों के प्रजनन को सीमित सुविधाओं में रखा जाय तो वे अपने क्षेत्र में अपना अस्तित्व मनुष्य को बिना कुछ हानि पहुँचाये बनाये रह सकेंगे। पशु−पक्षियों जलचरों तथा अन्य जीवों को माँस के लिए चमड़े के लिए तथा श्रम के लिए सताने की आवश्यकता न पड़ेगी। विज्ञान इन आवश्यकताओं को दूसरी तरह और भी अधिक सफलतापूर्वक संपन्न कर देगा। तब मनुष्य जाति तक ही नहीं समस्त प्राणियों तक विस्तृत एक अति विशाल विश्व संस्कृति का निर्माण होगा और अपने गौरवशाली अतीत की तरह हम प्राणि परिवार के साथ अतीव सहयोग, शाँति और आनन्द उल्लासपूर्वक रह सकेंगे। विश्व−शाँति का स्थिर स्वरूप यही हो सकता है।

अध्यात्म एक ऐसा तथ्य है, जिसके ऊपर मानव कल्याण की आधार शिला रखी हुई है। उसे जिस सीमा तक उपेक्षित एवं तिरस्कृत किया जायगा, उतना ही दुःख दारिद्रय बढ़ता जायगा। हमारी संपन्नता, समृद्धि, शाँति, समर्थता और प्रगति का एकमात्र अवलंबन अध्यात्मिक ही है। यदि हमें सुखी और प्रगतिशील होकर जीना है तो स्मरण रखा जाना चाहिए कि दृष्टिकोण में उत्कृष्टता और आदर्शवादिता का समुचित समन्वय नितान्त अनिवार्य है। इसकी विमुखता सर्वनाश को सीधा निमन्त्रण देने के बराबर है।

हम मानवीय आदर्शों को जीवित रखना चाहते हैं, इसलिए इसके प्राण—अध्यात्म को असुर प्रवृत्तियों के आक्रमण से बचाये रखना चाहते हैं। पर देखते हैं कि असुरता ने पूरी शक्ति से मानवीय आदर्शों को समाप्त करने के लिए चढ़ाई की है। आत्म−रक्षा के इस धर्म−युद्ध में लड़ने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं। असुरता के सन्मुख—हथियार डालकर आत्म−समर्पण करने का तात्पर्य आत्म−हत्या के लिए प्रस्तुत होना ही माना जायगा। आदर्श−विहीन मनुष्य तो पशु और पिशाच ही बन सकता है, देवत्व की प्रतीक मनुष्यता की ऐसी दुर्गति होते देखना इन आँखों के रहते सम्भव न हो सकेगा, अस्तु अध्यात्म की जीवन रक्षा के लिए धर्म−युद्ध लड़ना ही स्वीकार करना पड़ा है, सो हम उसे रक्त की अंतिम बूँद और श्वाँस का अंतिम प्रवाह वेग रहने तक लड़ेंगे।

धर्म और अध्यात्म के संरक्षण की जिम्मेदारी ब्राह्मणों की है। इस आड़े वक्त में संस्कृति ने ब्राह्मणत्व को पुकारा है, यदि वह कहीं जीवित हो तो आगे आये। जाति और देश में हम वर्ण का संबंध नहीं जोड़ते। ब्राह्मण हम उन्हें कहते हैं, जिनके मन में आदर्शवादिता के लिए इतना दर्द मौजूद हो कि वह अपनी वासना और तृष्णा से बचा कर शक्तियों का एक अंश अध्यात्म की प्राण रक्षा के लिए लगा सकें। किसी भी अंश में पैदा क्यों न हुआ हो पर जिसमें मानवीय आदर्शों की रक्षा में कुछ त्याग और बलिदान करने का शौर्य एवं साहस उठता है वस्तुतः वही ब्राह्मण कहा जाने का अधिकारी है। उसी वर्ग ने समय समय पर ईश्वरीय प्रयोजन की पूर्ति में महत्वपूर्ण भूमिकायें प्रस्तुत की हैं।

आज फिर वही परीक्षा की घड़ी आ गई, जब अध्यात्म को जीवन रक्षा करने के लिए बड़े से बड़ा त्याग करने की हिम्मत दिखाई जाय और संस्कृति को इस कलंक से बचाया जाय कि उसका संरक्षक ब्राह्मणत्व मर गया था, इसलिए उसकी जीवन−रक्षा न हो सकी।

अखण्ड−ज्योति परिवार के उन परिजनों को जिनमें ब्राह्मणत्व का शौर्य, साहस विद्यमान हो—समाज की पुकार पूरी करने के लिए आमन्त्रित किया जा रहा है। क्या करने से मानवीय सुख−शाँति को स्थिर रख सकने वाला अध्यात्मिक जीवित रखा जा सकता है, इसकी चर्चा क्रमशः अगले अंकों में करेंगे।

----***----

First 36 38 Last


Other Version of this book



Version 2
Type: TEXT
Language: HINDI
...

Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
...


Releted Books


Articles of Books

  • सत्य के लिए सर्वस्व त्याग
  • संस्कृति के लिए त्याग
  • गति का दर्शन और परमगति
  • गृहस्थ का सन्देह
  • विज्ञान द्वारा प्रमाणित अन्तर्चेतना को भूला न जाय।
  • इस संसार में सब कुछ चेतना ही है।
  • वाणी की शक्ति
  • आत्म−शक्ति का कुछ ठिकाना नहीं?
  • लड़ रहा हो जब स्वयं विज्ञान से विज्ञान
  • लुहार का घमण्ड
  • वासना स्वभाव नहीं विकार मात्र
  • मनुष्य शरीर जैसी मशीन नहीं
  • शरीर का ही नहीं−आत्मा का भी ध्यान रखें।
  • चार मित्र
  • मुशल पर्व आस्ट्रेलियाई खरगोशों का
  • जल (वरुण देवता) की अनुपम अद्भुत और अन्यतम सत्ता
  • माँसाहार का पाप पूर्व को भी पश्चिम न बना दे।
  • पुरुषार्थ
  • अपनी कमाई—सदा काम आई
  • हमारा दृष्टिकोण अध्यात्मवादी बने
  • श्रम का पुरस्कार
  • बदलती परिस्थितियों में स्वयं भी बदलें
  • संसार का अधिकार
  • महानता का जनक शुद्ध अहंभाव
  • श्रमशील इंका जाति
  • हृदय−परिवर्तन
  • मेजर कार्लडिक को एक साधु का श्राप
  • आत्मिक प्रगति के लिए−उत्कृष्ट शिक्षा की आवश्यकता
  • खून बहाना पसन्द नहीं
  • दांपत्य जीवन की तैयारी और पत्नी−व्रत
  • लोकमान्य तिलक
  • मानव मस्तिष्क की वैभव विभूतियाँ
  • स्वप्नों की सत्यता का रहस्य क्या है?
  • गुरु−भक्ति की परीक्षा
  • आप मेरे गुरु हैं
  • जीवन के उतार-चढावों पर उद्विग्न न हों।
  • मानवता का प्राण −अध्यात्म नष्ट न होने पाये।
  • पूज्य आचार्य जी के आगामी कार्यक्रम
  • मन की प्यास
  • मन की प्यास (Kavita)
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj