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Magazine - Year 1971 - Version 2

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मानव और शक्ति की एकरूपता

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श्रीनगर (जम्मू-कश्मीर) से 87 मील दूर अमरनाथ की यात्रा और हिम शिवलिंग के दर्शन करने केवल भारतवर्ष अपितु संसार के अन्य प्रदेशों से भी प्रतिवर्ष हजारों लोग आते हैं। हिन्दू जन अपनी श्रद्धा के सुमन भगवान् आशुतोष के चरणों में समर्पित करने के लिये और दूसरे विदेशी लोग प्रकृति का वह चमत्कार देखने के लिये जिसका कोई वैज्ञानिक विश्लेषण आज तक नहीं किया जा सका।

चन्द्रमा पृथ्वी की ऐसी दिशा में अवस्थित है कि वह पृथ्वी वासियों को 30 दिन में- एक पक्ष में क्रमशः बढ़ता हुआ पूर्णमासी के दिन पूर्ण दर्शन देने की स्थिति में आ जाता है तो दूसरी बार क्रमशः घटता हुआ अमावस्या के दिन बिलकुल छुप जाता है। यहाँ विज्ञान का कार्य-कारण सिद्धाँत समझ में आता है । कोई क्रिया विशेष कारणों की उपस्थिति में ही सम्भव है पर जब कोई कार्य कारण बना सम्भव हो तब ? विज्ञान के पास उसका कोई जबाब नहीं। वह ऐसी क्रियायें नहीं मानता पर सृष्टि में यह भी होता है तब मानना पड़ता है कि सृष्टि में सब कुछ स्थूल पदार्थों का ही अस्तित्व नहीं स्थूलोत्तर चेतन अस्तित्व भी और स्थूल से कही अधिक सशक्त है।

अमरनाथ इस बात का प्रत्यक्ष उदाहरण है। अमावस्या के दिन उस बिन्दु पर कुछ भी नहीं होता जहाँ उसके दूसरे ही दिन चन्द्रकला की दशा के ही अनुसार एक हिम शिवलिंग का विकास प्रारम्भ हो जाता है और बढ़ते-बढ़ते ही पूर्णमासी के दिन पूर्ण शिवलिंग का रूप ले लेता है। अमरनाथ अत्यधिक शीत प्रदेश है। वहाँ साल भर बर्फ जमा रहती है। श्रावण के महीने में वहाँ की बर्फ कम रहती है मौसम भी कुछ अनुकूल हो जाता है तब हजारों शरणार्थी वहाँ जाकर इस अद्भुत शिवलिंग के दर्शन करते हैं। शिवलिंग के पास ही और भी मूर्तियाँ जमती है उनको पार्वती जी, गणेशजी और कार्तिकेय जी मानकर पूजन किया जाता है। अमरनाथ के इस विचित्र रहस्य के कारण की खोज आज तक कोई भी नहीं कर सका। जो भी उसे देखता है ईश्वर की महिमा कह कर सिर झुका लेता है।

यदि यह सब प्रकृति का ही खेल है तो भी हमारा ध्यान ऋग्वेद की ओर जाता है जिसमें कहा गया है-

गयः केशिनः ऋतुथा विचक्षते संवत्सरे- वपत एकएषाम्। विश्वेमेको अभिचश्टे शचीभिर्धाजिरेकस्य दद्वशे न रुपम्।

अर्थात्- जगत् के कारण स्वरूप ब्रह्म, जीव और प्रकृति तीनों पदार्थ अनादि है। परमात्मा जीव को कर्मफल प्रदान करने के लिये अध्यक्षता करता है पर व्यवस्थापिका प्रकृति ही है जो परमात्मा के आदेशों के अनुसार जीव और परमात्मा चेतन होने के कारण उनके प्रकाशमय स्वरूप की तो निश्चितता हो जाती है पर प्रकृति भी सत्व गुण वाली होने के कारण प्रकाशमय अर्थात् चेतन ही है “परमात्मा की अनुवर्ती होने पर भी वह स्वतन्त्र अस्तित्व है इसलिये अपने उपासक को वह परमात्मा की तरह ही फल देती है कई बार जिस प्रकार नाराज पिता को भी माता अपने सौंदर्य और काम गुण द्वारा प्रभावित करके पुत्र के अपराध क्षमा करा लेती है प्रकृति भी जीव के लिये कर्माध्यक्ष परमात्मा से क्षमा प्राप्त कराकर उसके लिये सुख-समृद्धि का द्वार खेल देती है।

सावित्री उपासना को प्रकृति की उपासना कहकर कुछ लोग उसे जड़ उपासना का दोष लगाते हैं यहाँ उसके भाव पक्ष को ही स्पष्ट किया जा रहा है कि प्रकृति का सत्व-गुण उतना ही चेतन और सर्वशक्तिमान है जितना ब्रह्मा इसलिये ब्रह्मा की उपासना से जो लाभ मिल सकते हैं वह सब प्रकृति की भावनात्मक उपासना से भी मिल सकते हैं विभिन्न याँत्रिक और ताँत्रिक साधनों द्वारा ही उसे वश में करने की कष्ट साध्य प्रक्रिया आवश्यक नहीं । प्रकृति की कृपा पाने के लिये उसका पति (परमेश्वर में स्थित होना) ही आवश्यक नहीं पुत्र होकर भी उसका स्नेह और प्यार प्राप्त किया जा सकता है। गायत्री को माँ मानने और नारी रूप में उपासना का यही दर्शन है। प्रस्तुत प्रमाण उसकी चेतनता सिद्ध करने को ही लिखे जा रहे है।

अमरीका के केण्टकी राज्य में मैमथ नामक प्राकृतिक गुफा है इसे मनुष्यों ने नहीं बनाया प्रकृति ने अपने आप बनाया है उस पर कारीगरी देखते ही बनती है डिजाइनर खंभे और कमरे कोई 200 मील लम्बे क्षेत्र में फैले हुये हैं इसी में तालाब और नाले भी है जिनमें जल बिहार भी किया जा सकता है। घनघोर अन्धकार वाली गुफा की आश्चर्य उसकी दीवारें है अनुमानतः कई दीवारें तो इसमें पाँच मंजिल की इमारत जितनी ऊँची है। जो कार्य किसी इंजीनियर से हो सकता है वह प्रकृति ने अन्तःप्रेरणा से करके यह दिखा दिया कि उसमें किसी भी योग्यतम इंजीनियर से बढ़कर ही बुद्धि और शक्ति है।

काँगड़ा जिले के डाडा सीखा गाँव की एक ......... को खोदने पर एक पत्थर मिला। पत्थर किसी इमारत या पुरातत्व विभाग का दबा हुआ टुकड़ा न होकर विशुद्ध खनिज है पर जब उसे बाहर निकाला गया तो लोग आश्चर्य चकित रह गये कि उस पत्थर में एक चिड़िया का हूबहू चित्राकृति है। चोंच, पूँछ, पंजे सारे अवयव ठीक किसी चित्रकार जैसे ही है उसे देखने के लिये हजारों की भीड़ जमा रहती है लोग समझ नहीं पा रहे जहाँ हवा पहुँचती नहीं जहाँ खाने-पीने के नाम मिट्टी ही मिट्टी है उस अन्ताल में दबी यह प्रकृति आखिर किस तरह चित्र बनाती रही। कारण कुछ भी हो प्रकृति ने इस उदाहरण से सिद्ध कर दिया कि वह इंजीनियर ही नहीं कुशल चित्रकार भी है।

अमरीका के पश्चिमी भाग में स्थित “सेलोस्टोन नेशनल पार्क “ जाने का अवसर मिले तो वहाँ का “ ओल्ड फेथफुल “ गीजर अवश्य देखना चाहिये। पृथ्वी के भीतर से प्राकृतिक तौर पर निकलने वाले फव्वारों को “गीजर” कहते हैं भूगर्भ शास्त्रियों का कथन है कि पृथ्वी के गर्भ में जल राशि की छिपी तहें है। जो तहें ज्वालामुखी पहाड़ों के पास है वह कभी-कभी ज्वालामुखी अग्नि ताप के संपर्क में आ जाती है। यह तापमान उस पानी को उबालने लगता है। भाप मिश्रित होने के कारण वह धरती को फोड़कर निकल पड़ता है और पृथ्वी से बाहर गर्म फव्वारे के रूप में फूट पड़ता है।

ज्वालामुखी की आग हो अथवा धरती के भीतर का पानी सब प्रकृति के ही विभाग है इसलिये इस सकारण दृश्य को भी प्रकृति का ही खेल कहा जा सकता है पर जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है यह गीजर अपने विचित्रता लिये हुये हैं वह यह है कि यह लगभग एक घण्टे के अन्तर से बराबर छूटता रहता है और इस तरह वह सिद्ध करता है कि प्रकृति को समय और नियमितता का भी ज्ञान है।

इच्छा तो भगवान् की ही समझ में नहीं आती फिर प्रकृति की इच्छा को समझना तो और कठिन है पर उसकी चेतनता में कोई अन्तर नहीं है। अनन्याँ तस्य ताँ विद्धि स्पन्दशक्तिं मनोमयरम्। योगवसिष्ठ “चिन्मात्रं स्पदशक्तिश्च सथैवैकात्य यर्वदा।- अर्थात् चिति और स्पन्द शक्ति एक ही है उसमें भी वैसा ही मन है जिस प्रकार ब्रह्म मनोमय है। विभिन्न प्राकृतिक पदार्थों में मन को प्रभावित करने की सामर्थ्य भी होती है वह केवल खाने से ही नहीं स्पर्श और दर्शन से भी होती है। प्राचीनकाल में अधिकाँश लोग जंगलों में प्रकृति के संसर्ग में रहा करते थे क्योंकि उससे उन्हें मानसिक शान्ति मिलती थी। धातुओं के प्रयोग में हमारे यहाँ जो सावधानी बरती गई है वह वैज्ञानिक तथ्य है कि विभिन्न धातुएं विभिन्न प्रकार से मस्तिष्क को प्रभावित करती हैं इस संदर्भ में आयरलैंड के कार्कनगर में पाये जाने वाले ब्लार्नी पत्थर के चमत्कारिक गुण की चर्चा करना अनुपयुक्त न होगा। “ब्लार्नी” शब्द का अर्थ है ................और जैसा कि नाम से स्पष्ट होता है इस पत्थर के बारे में यहाँ कहा जाता है कि इसे जो भी चूम लेता है उसमें कुछ बनने की सामर्थ्य का चमत्कारिक विकास होता है। यह ............. बैनकबर्न की लड़ाई के अवसर पर, जब कि जनरल बैकार्डी ने राबर्ट ब्रूस की सहायतार्थ 5 हजार सैनिक दिये ......... राबर्टब्रूस ने उपहार स्वरूप मैकार्थी को दिया था। मैकार्थी ने उसे अपने किले की बुर्ज पर जड़वा दिया था। आज भी हजारों पर्यटक प्रतिवर्ष कोर्क शहर केवल इस पत्थर को चूमने और प्रकृति के अद्भुत प्रभाव से लाभान्वित होने के लिये जाते हैं। अतरीका इस पत्थर को लेने के लिये करोड़ों डालर देने को तैयार है पर आयरलैण्ड ने ....... लिये करोड़ों डालर देने को तैयार है पर आयरलैंड ने से कभी बेचने की इच्छा भी नहीं की। भारतीय पर्यटक ....... सरोस कावस जी ने खुद जाकर इस पत्थर को चूमा और 4 अगस्त 1963 के धर्मयुग ........ में उसका विवरण कर स्वीकार किया है कि इस पत्थर ने उन्हें भी प्रभावित अवश्य किया है।

शास्त्रीय मान्यतायें प्रमाण की ही कसौटी पर खरी नहीं उतरती अब विज्ञान भी इस बात को मानने लगा है। जर्मन जीव शास्त्री हैकेल का कथन है कि प्रकृति में जो कुछ भी आक्सीजन, पानी, रोशनी, पेड़-पौधे, कीटाणु, पशु-पक्षी और मनुष्य है वे सब तरंग मात्र हैं इस विज्ञान का नाम “इकॉलाजी” दिया गया है और उसका सिद्धाँत है कि सृष्टि की हर वस्तु एक दूसरे पर अवलम्बित तरंग या चेतना रूप ही है इस तरह विराट् प्रकृति की विराट् ब्रह्म के समान ही चेतना सिद्ध होती है। उस चेतना में आत्म चेतना को घुलाकर जीव न केवल प्रकृति के सूक्ष्म रहस्यों का अवगाहन कर सकता है वरन् उसकी महान् कृपा का अधिकारी पात्र भी बन सकता है जैसा कि गायत्री उपासना से लाभ मिलने की बात कही जाती है। स्थूल की उपासना द्वारा सूक्ष्म का अवगाहन और प्राप्ति जैसी विधा और कोई नहीं है इसलिये इस उपासना को सर्वोपरि मानते हैं।

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